रविवार, 16 सितंबर 2012

मैं बाहर आने से डरता हूँ




मैं तुम्हारे सपनों का सपना
मैं बाहर आने से डरता हूँ
मुझे ख्वाबों में ही रहने दो|
यथार्थ का धरातल है पथरीला
गिरा, चकनाचूर हो जाऊँगा|
जीवन समुद्र के बड़े भँवर में
फँसा, चक्कर खा जाऊँगा|
जीवन पथ है बड़ा कंटीला
चला, लहुलुहान हो जाऊँगा|
जीवन पथ पर खड़े तुंग हैं
टकरा, औंधे मुँह गिर जाऊँगा|
निराशा की घटा है काली
मिली, अश्रु बन टपक जाऊँगा|
विषाद की पीड़ा बड़ी घनेरी
झेल, सुबक सुबक
सिसकी बन जाऊँगा|
जीवन नैया है हल्की फुल्की
डगमग, लहरों में बह जाऊँगा|
मुझे ख्वाबों में ही रहने दो|
मैं बाहर आने से डरता हूँ|


मैं तुम्हारे सपनों का सपना
मुझे ख्वाबों में ही रहने दो|
निर्मम निष्ठुर पल में खिड़की से
झाँक तुम्हे लुभाऊँगा|
किसी घनघोर विषम घड़ी में
आशा की ज्योत जलाऊँगा|
तोड़ असफलताओ की श्रृंखला
मैं जिगीषा बन जाऊँगा|
बर्बर की उग्रता सह-सह कर
निडरता का पाठ पढ़ाऊँगा|
गरल अपमान का पी-पी कर
पीयुष तुम्हें बनाऊँगा|
अभिराम क्षण में विस्मृत पल
स्मरण करा तुम्हें गुदगुदाऊँगा|
जीवन के वानप्रस्थ में
मैं मुमुक्षु बन जाऊँगा|
मुझे ख्वाबों में ही रहने दो||

           ऋता शेखर मधु

7 टिप्‍पणियां:

  1. अभिराम क्षण में विस्मृत पल
    स्मरण करा तुम्हें गुदगुदाऊँगा|
    जीवन के वानप्रस्थ में
    मैं मुमुक्षु बन जाऊँगा|
    मुझे ख्वाबों में ही रहने दो|..सच है सपने हमें सबलता स
    देते है ..बहुत सुन्दर..

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  2. बहुत खूब |
    आपने पूरी जिंदगी का सार कुछ ही पंक्तियों में परोस दिया |

    सादर नमन |

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  3. एक सकारात्मक सोच और उत्साहवर्धन करती सुन्दर रचना |

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  4. मुझे सपना ही रहने दो
    सपनों में मैं सबकुछ हूँ
    सपने से परे एक कंकाल
    तुम डरोगे
    मैं सर झुका लूँगा
    ....... मुझे सपना सलोना ही रहने दो.

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  5. सपनों की मखमली जमीन यथार्थ के पत्थरों से छली /छिली है !

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