रविवार, 29 सितंबर 2013

सीमा रेखा

मर्यादा की सीमा रेखा
जिसने किया अनदेखा
निकल गया वह
सुरक्षा के दायरे से
इतिहास गवाह है
अमर्यादित हँसी ने
महाभारत का लेख रचा
लक्षमण रेखा लाँघते ही
सिया हर ली गईं
महाविद्वान रावण
स्वर्ण खान का नृप
अमर्यादित सोच ने ही उसे
विनाश के कगार पर पहुँचाया
भाई की रक्षिता शूर्पनखा
मर्यादा उसने न गँवाई होती
जग में उसकी न हँसाई होती
प्रकृति नियम पर चलती
तभी दिन के बाद रात ढलती
पौ फटते ही
खगों की चहचह...
गोधूलि में बसेरे को लौटना
नीड़ में समाना
सुरक्षित होने के पल हैं
पुरुष से स्त्री और
स्त्री से पुरुष सुरक्षित हैं
मर्यादा पालन सिर्फ
स्त्रियों के लिए नहीं
मर्यादित श्रीराम ही
मर्यादापुरुषोत्तम कहलाए
मर्याद से सुरक्षा
हर हाल में जरूरी
बोलचाल में जरूरी
हँसी-मजाक में जरूरी
लेखन के शब्द में जरूरी
प्रारब्ध में जरूरी
रक्षा का धर्म निभाओ
स्यंमेव रक्षित बन जाओगे|
............ऋता

बुधवार, 25 सितंबर 2013

मन की किताब




मन की किताब
कुछ खुले पृष्ठ
कुछ अधखुले से
कुछ मुड़े तुड़े
कुछ बन्द से

खुले पन्ने
शब्द-शब्द कहें
एहसास की कोमलता
जीवन की मधुरता
उत्साहित लम्हे
खिलती कलियाँ
उड़ती तितलियाँ
बासंती बहारें
ठंढी फुहारें
कलकल नदिया
चमचम सितारे
शीतल चाँदनी
मधु यामिनी

अधखुले कहें
वैसे सपने
जो हुए न अपने
काली बदरिया
रुपहली रेखाएँ
अरुण की लालिमा
अस्त की कालिमा
थिरकते कदम
बोझिल सा मन
दोपहर का साया
बरगद की छाया
परियों की उड़ान
दानव की माया
उत्साह से लेकर
नैराश्य तक
हर रंग के शब्द

मुड़े तुड़े पन्ने
कहानियाँ संघर्ष की
ठोकरों की
अपमान की
तिल तिल जलने की
लम्हा लम्हा सुलगने की
शूल के चुभन की
जीवन के थकन की
गिरि पर चढ़ने की
चढ़कर लुढ़कने
फिर से सँभलने की
चाहकर भी
सीधे नहीं हो पाते
मुड़े तुड़े पृष्ठ

बन्द पन्ने
अनुत्तरित प्रश्न
अनसुलझी गाँठें
कुछ कोरे पृष्ठ भी
जहाँ अंकित होंगे
भविष्य के इंद्रधनुष|
...ऋता

रविवार, 22 सितंबर 2013

ज़िन्दगी की जंग कभी होती नहीं आसान


आसमाँ में टूटता एक सितारा देखा
दुआ माँगता हुआ एक बेचारा देखा

सबको ही पड़ी है अपनी अपनी
किसी के लिए न कोई सहारा देखा

ज़िन्दगी की जंग कभी होती नहीं आसान
जीतने की जिद में दौड़ता एक हरकारा देखा

दिल हथेली पर लिए घूमता था वो
किरचों को चुनता प्यार का मारा देखा

चुप रहकर जिएँ तो जिएँ कैसे
बिन बोले होता नहीं गुजारा देखा|
...................ऋता

बुधवार, 18 सितंबर 2013

उड़हुल के फूल...


उसे
फूलों से
बहुत प्यार था
पत्ता-पत्ता
बूटा बूटा
उसके स्पर्श से
खिले रहते

नित भोर
वह और
उसकी फुलवारी
कर में खुरपी
सजाती रहती क्यारी
गुनगुनाती रहती
भूल के दुनिया सारी
गेंदा,गुलाब, जूही
चम्पा चमेली
बाग में तो
वही थीं सहेली

और एक था
उड़हुल का पेड़
उसकी डालियाँ
लचक जाती थीं
पाँच पँखुड़ी वाले
सूर्ख़ चमकदार
लाल फूलों से

हर रोज वह पेड़
फूलों से लद जाता
वह गिनती
एक दो तीन....बीस
अब वह हिसाब लगाती
इनमें दस फूल
दुर्गाजी, हनुमान जी
लक्ष्मी जी....के लिए,
बाकी बचे दस फूल
बाग की शोभा बनते
हवा में झूम झूम
सबको लुभाते

किसी दिन मिलते
एक दो...दस
पाँच ईश्वर के नाम
पाँच बाग की शोभा
फिर एक दिन दो फूल
एक प्रभु सिर माथ
दूजा बाग के साथ

समय पर
सबको जाना होता है
वह भी गई
दिन महीने वर्ष बीते
वापस आई
बगिया को निहारा
कुछ नाजुक पौधे
सूख चुके थे
उड़हुल के तने
मोटे हो चुके थे
उसपर फूल नहीं थे
उसने
पौधों पर हाथ फिराया
पानी से सींचा|

दूसरी सुबह
पूर्ववत
वह फूलों से लदा
उसने गिना
एक दो तीन...छब्बीस
आदत के मुताबिक़
उसने फिर हिसाब लगाया
तेरह पूजा में
तेरह पेड़ पर|

पूजा के समय
फूल तोड़ने गई
पर क्या...
पेड़ पुष्पविहीन थे
हैरान हुई
सभी पुष्प
भगवान पर चढ़े थे
वह
असमंजस में खड़ी रही

अचानक
उसकी तन्द्रा टूटी
वह भूल गई थी
इस घर में अब
एक नई पुजारन भी थी
बाग भी
अपने फूलों के बिना
उदास था|

वह
जिसका मन
खुली किताब था
अचानक
बन्द हो गया
वह
बताना चाहती थी
अपने मन की बात
कहने की कोशिश भी की
भीतर के अंकित शब्द
आँखों की नमी में घुलकर
धुँधला चुके थे
मिटते हुए शब्दों ने
फुसफुसा कर कहा
अब यह मंदिर
तुम्हारा नहीं|
....ऋता

घर में फूल के पौधे हैं तो
सब न तोड़ें पूजा के बहाने..
कुछ फूल बाग में भी छोड़ दें...
हवा को सुरभित करने के लिए...
भगवान खुश...बाग भी खुशः)

....................ऋता

सोमवार, 16 सितंबर 2013

पिता.....

पिता....पिता को याद करने के लिए फ़ादर्स डे की जरूरत नहीं...



स्थिर कदम अडिग विचार

मन  निडर मधुर व्यवहार

आज अक्स बन गए पिता के

हृदय में भर लिया धैर्य अपार|


कहा पिता ने 'सच अपनाओ

झूठ को  कदमों में झुकाओ'

शान से गर्दन तनी रहेगी

बेधड़क तुम जीते जाओ|


कभी सख्त और कभी नरम

कभी शीत और कभी गरम

काँटों वाले फूल पिता जी

कभी गंभीर तो कभी सुगम|


सहजता सरलता ही रहा

जिनके जीवन का आधार

उनके अमूल्य सिद्धांत अपनाए

जीतने निकले हम संसार|
........ऋता

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

हिन्दी दिवस पर समर्पित कुछ हाइकु-पुष्प...



हिन्दी दिवस पर समर्पित कुछ हाइकु-पुष्प...

१.

हिंद-संविधा

चौदह सितम्बर

हिन्दी दिवस|

२.

संविधा धारा

तीन सौ तेतालिस

वर्णित हिन्दी|

३.

राष्ट्र की भाषा

लिपि देवनागरी

बोलें तो हिन्दी|

४.

गरिमामयी

लेखन में सरल

सौम्य है हिन्दी|

५.

हिन्दी दीपक

रौशन हिन्दुस्तान

फैला उजास|

६.

सुख का मूल

भारतेन्दु को प्रिय

अपनी हिन्दी|

७.

माँ सी है प्यारी

मातृभाषा हमारी

जग में न्यारी|

८.

स्वदेशी हिन्दी

राष्ट्र का हो विकास

हिन्दी ही लिखें|

९.

रिश्ता प्रगाढ़

हिन्दी में जब बोलें 

सारे ही प्रान्त|

१०.

तुलसीदास

हिन्दी में रामायण

सब को मान्य|

११.

अ से अनार

इ से होती इमली

पढ़े विमली|

१२.

अपनी बोली

हिन्दी होती है खास

दिल के पास|

१३.

कर्ण को प्रिय

मिठास भरी हिन्दी

सहज ग्राह्‌य|

१४.

सुनो संतन

है मधुर गुंजन

हिन्दी भजन|

............ऋता शेखर 'मधु'