सोमवार, 12 जनवरी 2015

ओ बटोही...

चित्र गूगल से साभार
ओ बटोही रोज सवेरे
तुम मेरे घर आना
खोल अपनी लाल पोटली
जग में रश्मि बिखराना

नव मुकुलित पुष्पों से छनकर
स्वर्ण प्रभा बिखराते
पाकर उजास जग जग जाता
पंछी गीत सुनाते
जलते चुल्हे धुआँ उड़ाते
पंछी शोर मचाते

उषाकाल से सँझा तक तुम
अथक निरंतर जाना
करने को विश्राम पथिक
सिंधु में जा समाना

प्रभात से रजनी बेला तक
नव उमंग मिल जाती
साँझ ढले जब घर जाते हो
चंद्रप्रभा मुसकाती
निशा साँवरी हुई सलोनी
तारों से खिल जाती

दिनकर से पाकर आलोक
चाँद बना मस्ताना
अच्छा लगता है सूरज का
दानवीर कहलाना

मकर संक्रा़तिकाल कथा में
गंगा सागर मिलते
सूर्यदेव उत्तरायण होकर
धरती का तम हरते
सेहत वाली किरणें लेकर 
पादप सुन्दर खिलते

आदित्यराज से लें हम सीख
जगमग जग कर जाना
जेठ दोपहरी में हँसकर
अमलतास सा छाना
*ऋता शेखर 'मधु'*

8 टिप्‍पणियां:

  1. उषाकाल से सँझा तक तुम
    अथक निरंतर जाना
    करने को विश्राम पथिक
    सिंधु में जा समाना.... bahut simdar..

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  2. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (14-01-2015) को अधजल गगरी छलकत जाये प्राणप्रिये..; चर्चा मंच 1857 पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    उल्लास और उमंग के पर्व
    लोहड़ी और मकरसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सुन्दर, सरल और व्यापक चित्रण, बधाई है.

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  4. बहुत कुछ सीखा जा सकता है सूरज से ...
    अच्छे रचना ...

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