मंगलवार, 29 सितंबर 2015

रंगा सियार

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"हरीश बाबू, अभी आधे घंटे में विद्यालय का कार्यक्रम शुरू होने वाला है। हमें ऊर्जा संरक्षण पर बोलना है और हमने कोई तयारी नहीं की है। आप कृपाकर उसपर आलेख तैयार कर दें।" सह अध्यापक अभिषेक कुमार ने  आग्रहपूर्वक कहा। 

विद्यालय में नए नए आये हरीश बाबू ने हामी भर ली। 


मगर अचानक वे भी कैसे तैयार करते। विद्यालय में इंटरनेट की सुविधा नहीं थी। संयोग से उसी दिन उन्होंने नेटपैक लिया था। उसे ही ऑन किया और गूगल पर गए। सारी जानकारियाँ इकठ्ठा कर के फटाफट आलेख तैयार किया। तब तक अभिषेक बाबू इधर उधर घूमते दिखे। 


कार्यक्रम शुरू हुआ और अभिषेक बाबू ने उस आलेख को पढ़कर सुनाया। आलेख ने खूब वाहवाही बटोरी। जब पुरस्कारों की घोषणा हुई तो प्रथम पुरस्कार अभिषेक बाबू के उत्कृष्ट आलेख को मिला था। हरीश बाबू के चेहरे पर ख़ुशी की लहर दौड़ गई। 
पुरस्कार लेने अभिषेक बाबू मंच पर गए। उनसे पूछा गया कि इस आलेख के लिए उन्होंने कहीं से सहयोग लिया है तो उसका जिक्र अवश्य करें। 


"इसे मैंने खुद अपनी मेहनत से तैयार किया है" 


यह सुनकर हरीश बाबू अवाक् रह गए। अभिषेक बाबू के प्रफुल्लित चेहरे की कुटिल लकीर भी दिख चुकी थी उन्हें। 
हरीश बाबू ने मन में कहा,"रंगा सियार की असलियत कभी न कभी तो सबके सामने आएगी ही"। 
-ऋता शेखर "मधु" 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

हवा पेड़ पौधे हँसी बन के रहते- ग़ज़ल

बह्र  122-122-122-122
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
काफ़िया-  आरे
रदीफ़ - न होते
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मतला-
परिंदे कभी भी पुकारे न होते
धरा पर अगर ये सवारे न होते
हुस्न-ए-मतला-
ये संसार हम भी सँवारे न होते
अगर साथ तुम यूँ हमारे न होते
अशआर-
न होती अगर गाँव में बैलगाड़ी
कसम तीसरी के नजारे न होते
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सियासत हमारी हिफ़ाजत करे तो
यहाँ हम कभी भी बिचारे न होते
==
हवा पेड़ पौधे हँसी बन के रहते
धुआँ पैर अपना पसारे न होते
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लहर यूँ न उठती समंदर में इतनी
फलक चाँद को जब पुकारे न होते
गिरह-
उदासी भरी रात तन्हा ही रहती
अगर आसमाँ में सितारे न होते
*ऋता शेखर 'मधु'*

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

मायाजाल

यह सर्वविदित है कि मानव शरीर सिर्फ एक शरीर नहीं बल्कि असंख्य कोशिकाओं का समूह है और सभी मिलकर एक खूबसूरत तन की रचना करते हैं। सारी प्रक्रियाएं जो शरीर द्वारा किये जाते हैं वह हर एक कोशिका भी करती है। हर तरह से सक्षम होते हुए भी कोशिका को वह स्वरुप नहीं मिल पाता जो शरीर के साथ रहने पर मिलता है।
परिवार को बिलकुल इसी तरह से समझा जा सकता है। एक पूरा मकान कई कमरों वाला घर होता है। हर कमरा अपने आप में परिपूर्ण है। वहां हर साधन मौजूद रह सकता है। कमरा ही बैठका,कमरा ही रसोई,कमरा ही मनोरंजन और कमरा ही डाइनिंग होता है। कोई रोक कोई टोक। आज़ादी ही आज़ादी। संयुक्त परिवार टूटा तो कम से कम न्यूक्लिअर परिवार तो रहा जहाँ माता पिता और एक या दो बच्चे मस्त हो गए। परिवार के नाम पर थोडा बंधन ज्यादा आज़ादी मिली। समय मिलने पर बाक़ी लोगों का गेट टुगेदर भी हो जाता था।
अब नए नए गैजेट्स ने इस नन्हे से परिवार को भी बिखरा दिया हैं। घर के बाहर की आभासी दुनिया ही रास आने लगी है। यह भी पता नहीं होता की घर में कौन है या कौन बाहर गया है। पहले टेलीफोन एक स्थान पर हुआ करता था। घंटी बजने पर कोई आकर फोन रिसीव कर लेता था। अब सबके अपने फ़ोन है और वह भी पासवर्ड के घेरे में। कोई किसी की मोबाइल नहीं ले सकता। दो अलग अलग कमरों में बैठे लोगों को मिस्ड कॉल से बुलाया जाता है। नाम लेकर जोर जोर से बुलाने की परम्परा भी लुप्त होती जा रही है।
एक बार तो हद ही हो गयी। किसी रिश्तेदार के घर गयी थी। वे बड़े चाव से घर के बारे कुछ कुछ बता रही थी जो शायद उनकी बिटिया को पसन्द नहीं रहा था। अचानक व्हाट्सअप की टुन्न से आवाज़ आई मोबाइल देखने के बाद उन्होंने अचानक टॉपिक बदल दिया। अब समझ में तो यह बात ही गई कि बिटिया रानी की ओ से चुप रहने का आदेश था।
एक ही कमरे में में बैठे सभी सदस्य अपने अपने लैपटॉप पर या अपनी मोबाइल लेकर मस्त हैं। पूरी दुनिया से संवाद चालू है मगर आपस में बातचीत नहीं। बीच बीच में कुछ बातें हुई भी तो काम चलने भर ही हुईं। खाने की टेबल पर खाना लग चूका होता है ठंडा भी हो जाता है सबके जुटते हुए। आए भी तो बायें हाथ से मोबाइल चिपका ही रहता है। खाना खाओ और साथ में टिप टाप भी करते रहो। महिलाएं भी अब पीछे नहीं। किसी खाना खज़ाना टाइप ग्रुप से जुडी है तो पहले फ़ोटो खींची जायेगी। फिर रेसिपी लिखी जायेगी तब घर वालों के लिए परोसी जायेगी।
एक करीबी रिश्तेदार के घर कुछ यूँ देखा। घर की माता जी जो नब्बे से पार हो चुकी हैं और चलने फिरने से लाचार थी, एक कमरे में बैठी थीं। कमरे में सारी सुविधाएं थीं पर वे इस तरह लाचार थी कि स्वयं पानी लेकर नहीं पी पाती थीं। घर के सदस्य उच्च वोल्यूम पर टीवी चलाकर देख रहे थे। इधर वो बुजुर्ग महिला पानी के लिए आवाज़ दे रही थी मगर टीवी के शोर में आवाज़ दब जा रही थी। उनकी आँखों में आंसू गए थे। कहने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि इससे कोई फायदा होता।
आखिर यह आधुनिकता या आधुनिक उपकरण इंसान को किस मंजिल की और लेकर जा रहे है।

अपने ही खोल में समाते जा रहे हैं लोग कछुए की तरह। दिन भर फेसबुक पर बने रहने की प्रवृति क्षणिक ख़ुशी दे रही है पर जीवन वही तो नहीं, यह किशोर बच्चे समझ नहीं पा रहे। जीवन आसान हो गया है गैजेट्स से | कहीं न कहीं निष्क्रियता का भी बोलबाला हो रहा है| 
इन सब से बचिए| समय संयोजन बहुत आवश्यक है| मायाजाल पर रहें, खूब रहें पर समय सीमा भी निर्धारित करें| गैजेट्स को एनज्वाय करे| उसे जीवन मत बनने दें| 
*ऋता*