बुधवार, 8 जून 2016

मुक्ति-लघुकथा

मुक्ति-

कंपकंपाते हाथो से मकान के लोन की अंतिम किश्त पर हस्ताक्षर करते हुए सुरेश बाबू की आँखों से दो बूँद आँसू टपक पड़े।
" यह क्या, आज तो आपको खुश होना चाहिए कि आप कर्ज से मुक्त हो गए।" बैंक मैनेजर ने आत्मीयता से सुरेश बाबू से हाथ मिलते हुए कहा।
" जी, मैं बहुत खुश हूँ कि जिंदगी ने यह मौका दिया कि मैं बेटे पर कर्ज का भार छोड़कर नहीं जा रहा।"
घर लौटते हुए पत्नी के लिए चूड़ियाँ लेते हुए उन बंधनमुक्त कलाइयों पर खनकती चूड़ियों की कल्पना कर बरबस मुस्कुरा उठे सुरेश बाबू।
-ऋता

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