मंगलवार, 20 सितंबर 2016

विमाता-लघुकथा

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विमाता
करीब एक साल पहले माँ न बनने की शर्त पर तीन सयाने बच्चों की माँ बन कर रेवा इस घर में आई थी| बच्चे सगी माँ का स्थान किसी अन्य को देने को तैयार न थे| बच्चों ने एक दूरी बना रखी थी जिसे रेवा पार नहीं कर पाती| रेवा बड़े जतन से रोज सवेरे बच्चों के इस्तरी किए कपड़े, सबकी पसंद का नाश्ता, लंच पैक, रात का दूध सब कुछ पूरा करने का हर संभव प्रयास करती, जो एक माँ करती है| रात का खाना सब इकट्ठे खाते| बच्चे पिता की बातों का जवाब देते किन्तु रेवा कुछ बोलती तो चुप्पी मार जाते| रेवा का दिल आहत हो जाता|
बारिश में भीग जाने की वजह से आज रेवा का बदन बुरी तरह से टूट रहा था| पति ऑफिस जा चुके थे| वह पलंग पर लेटी कराह रही थी| अचानक रेवा को माथे पर शीतल स्पर्श का अनुभव हुआ| रेवा ने आँखें खोलीं| मोहित ने झट से हाथ हटाया और बाहर चला गया| रेवा ने पूर्ववत आँखें बन्द कर लीं|
“माँ,” एक आवाज आई| रेवा के कान यह शब्द सुनने को अभ्यस्त न थे| उसने भ्रम समझ कर आँखें न खोलीं|
“माँ, दवा खा लीजिए| आपको तेज बुखार है|”
अब शक की गुंजाइश न थी| रेवा ने आँखें खोलीं| मोहित ने दवा और पानी का ग्लास आगे बढ़ाया| दवा खाते हुए रेवा के आँसुओं को मोहित ने दिल से महसूस किया| दवा खाकर वह सो गई |
नींद में ही उसने महसूस किया कि कोई धीरे धीरे उसके पैर दबा रहा है| रेवा ने आखें खोलीं तो जया थी|
“माँ, रात का खाना मैं बनाऊँगी,” बगल में खड़ी नेहा ने रेवा का हाथ पकड़ कर कहा|
तब तक रेवा के पति आ गए|
“मैं अभी डॉक्टर को फोन करता हूँ| रमिया को भी बुला लेता हूँ, खाना बना देगी”
“ नहीं जी, जिस माँ के बच्चे इतने प्यारे और केयरिंग हों उसे किसी की जरूरत नहीं|” लाड भरे स्वर में रेवा ने कहा और जो खिलखिलाहट गूँजी उसे द्विगुणित करने में घर की दीवारों ने कमी न की|
--मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित
---ऋता शेखर ‘मधु’

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