शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

ठोस रिश्ता-लघुकथा

ठोस रिश्ता

“अब मैं रिया के साथ नहीं रह सकता| उसका रोज रोज देर से घर आना मुझे पसंद नहीं| नौकरी करने का मतलब यह नही कि घर को वह नेग्लेक्ट करे|”

“नहीं बेटा, ऐसा मत सोचो| रिया एक समझदार लड़की है| वह काम के प्रति वफादार है| जब हमने नौकरी वाली बहु लाई है तो हमें उसकी मजबूरी भी समझनी चाहिए| | एक तो उसे नौकरी का तनाव है , उसपर तुम्हारा यह रुख कहीं सब कुछ बिखरा न दे| इसका प्रभाव बच्चों पर पड़ता है, ”माँ ने बेटे अंशुल को समझाना चाहा|

“मगर माँ, अब मुझसे बिल्कुल बरदाश्त नहीं होता| रिश्तों में कड़वाहट आने लगे तो अलग हो जाना ही अच्छा है| मैं तलाक की अर्जी देने जा रहा हूँ|”

“तो ऐसा करो,तलाक का एक कागज मेरे लिए भी ले आना| मैं भी तुम्हारे पापा से तंग आ चुकी हूँ| उनका हर समय घर से बाहर रहना मेरे भी बरदाश्त से बाहर है| सारी गृहस्थी का बोझ मैं अकेले ही क्यों उठाऊँ|”

अंशुल के जाते हुए कदम थम गए| वह सीधे अपने कमरे में गया और पनी दो साल की बिटिया को प्यार करने लगा|

---ऋता शेखर ‘मधु’ 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-10-2016) के चर्चा मंच "आदिशक्ति" (चर्चा अंक-2482) पर भी होगी!
    शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सही है ....रिश्तों को निभाने के लिए धैर्य और समझदारी ज़रूरी है .

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