शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

बचपन के जैसा फिर यहाँ मंजर नहीं देखा

बचपन के जैसा फिर यहाँ मंजर नहीं देखा
गोदी हो जैसे माँ की, वो बिस्तर नहीं देखा

हिन्दू या मुसलमान में आदम यहाँ उलझे
हों सिर्फ़ जो इंसान वो लश्कर नहीं देखा

धरती पे लकीरें हैं दिलों में हैं दरारें
काटे जो समंदर वही नश्तर नहीं देखा

बिखरे जो कभी गुल तो, रहे साथ में ख़ुशबू
जो तोड़ दे जज़्बात वो पत्थर नहीं देखा

शीरीं हो ज़ुबाँ और मुहब्बत की अदब हो
संसार में उसको किसी का डर नहीं देखा
-ऋता शेखर ‘मधु’

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