सोमवार, 31 दिसंबर 2018

दो लघुकथाएँ

1.
समझौता
घर में चाहे जितने भी बदलाव किए जाते मगर बैठक के मुख्य द्वार के एक ओर दो सजी कुर्सियाँ वापस रख दी जाती थीं| एक कुर्सी पर करीने से एक तुलसी माली टँगी रहती | दूसरी कुर्सी पर एक छड़ी, एक चश्मा और एक पेन रहते थे| सजावट के ख्याल से छड़ी पर सुनहरी मूठ लगवा दी गई थी और चश्मा को कलम के साथ सुन्दर पारदर्शक डब्बे में बंद किया गया था|

एक बार शरद ने पूछा था,' पापा, इन कुर्सियों पर रखी माला, छड़ी, कलम और चश्मे को हम अन्दर के शो बॉक्स में भी रख सकते हैं न, यहाँ ही क्यों?''
'बेटा, इन कुर्सियों पर मेरी माँ और पिताजी बैठा करते थे| जब भी मैं कुछ गलत करने की सोचता हूँ तो पिता जी की यह छड़ी मुझे धमकाती है| किसी गहरी समस्या पर सोचता हूँ तो चश्मा मुझे दूरदर्शिता रखने को कहता है| यह कलम मुझे कहती है कि कभी गलत काग़ज़ पर हस्ताक्षार न करना| माँ की माला धर्म की राह दिखाती है|'

'वह तो ठीक है पापा, पर अन्दर भी तो शो बॉक्स में रख सकते हैं न', शरद ने दोहराया|

'रख तो सकते हैं बेटा, फिर वह सजावट का सामान बन कर रह जाएगा| मुख्य द्वार पर बुज़ुर्गों के रहने का अहसास भी घर को कई आपदाओं से बचाता है| घर के सदस्य स्नेहाकर्षण से बँधे रहते हैं|'

तभी शरद का मोबाइल बज उठा| वहाँ शालिनी का नाम चमक रहा था|

'शरद, पापा ने यादों के कचरे को मेन डोर से हटाया या नहीं,' मोबाइल पर जोर से कही गई बहू की आवाज़ धीमे से दिनेश बाबू के कानों में पड़ गई| शरद का उत्तर जानने के लिए वे कुछ देर वहीं ठिठक गए|

'नहीं यार, लाख गुण हों हमारे बुज़ुर्गों में पर उन्हें समझौता करना नहीं आता,' अन्दर कमरे की ओर जाता हुआ शरद कह रहा था|

कुछ देर बाद शरद बाहर जाने के लिए दरवाजे पर पहुँचा तो वहाँ कुछ खाली खाली सा लगा| ध्यान देकर देखा तो दोनों कुर्सियाँ गायब थीं| अचकचा कर वह पापा, पापा बोलता हुआ उनके कमरे में गया| सामान सहित कुर्सियाँ वहीं रखी थीं| दिनेश बाबू के पलंग पर चारों ओर पुस्तक के पन्ने बिखरे पड़े थे और पुस्तक का मुखपृष्ठ उनके हाथों में था जिसे वे अपलक देख रहे थे|
अभी एक सप्ताह पहले ही दिनेश बाबू ने बड़े गर्व से 'मेरे बच्चे मेरा संस्कार' नामक अपनी पुस्तक को लोकार्पित किया था|

'पापा, ये क्या किया आपने?' विह्वल स्वर में शरद ने कहा|
'समझौता', दिनेश बाबू की आवाज़ स्थिर थी|

--ऋता शेखर 'मधु'
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2.
दर्द

फेसबुक पर सुमित्रा ने लिखा,
" कल मैंने एक सिनेमा देखा-हाउसफुल-3 जिसमें लँगड़ा, गूँगा और अँधा बनकर सभी पात्रों ने दर्शकों का खूब मनोरंजन किया..."
बस पाँच मिनट ही बीते थे यह लिखे हुए कि इनबॅाक्स की बत्ती जली|
ये तो तुषार का मेसेज है, सोचती हुई सुमित्रा ने मेसेज़ खोला|
'दीदी जी, विकलांग क्या मनोरंजन की वस्तु हैं? ' यह पढ़कर सुमित्रा का दिल धक् से रह गया| तुषार सुमित्रा का फेसबुक मित्र था| दोनों पैरों से लाचार तुषार कलम का धनी था| उसकी लिखी रचनाएँ बहुत लोकप्रिय होती थीं| अभी हाल में ही विकलांग कोटि के द्वारा उसकी नौकरी एक सरकारी विद्यालय में लगी थी|
अभी सुमित्रा सोच ही रही थी कि क्या जवाब दे, तुषार का दूसरा मेसेज़ आ गया|
'दीदी जी, स्वस्थ इंसान विकलांगों के दर्द कभी महसूस नहीं कर सकते तभी तो उनके किरदार निभाकर हास्य पैदा करते हैं|'
सुमित्रा ने कुछ सोचकर कर एक फ़ोटो पोस्ट किया जिसमें वह एक प्यारी सी लड़की के साथ खड़ी थी| उस लड़की की आँखें बहुत सुन्दर थीं|
'बहुत प्यारी बच्ची है दीदी, ये कौन है?'
'मेरी छोटी बहन जो देख नहीं सकती| समय से पूर्व जन्म लेने के कारण बहुत कमजोर थी तो इसे इन्क्युबेटर में रखा गया था| नर्स ने बिना आँखों पर रूई रखे उच्च पावर का बल्ब जलाकर
सेंक दे दिया जिससे इसकी आँखों की रौशनी छिन गई| यह बात तब पता चली जब वह आवाज होने पर अपनी प्रतिक्रिया तो देती थी किन्तु नजरें नहीं मोड़ती| यह पता चलने पर हमारे परिवार पर जो वज्रपात हुआ होगा वह तो तुम समझ सकते हो न तुषार| मैंने फेसबुक पर यह तो नहीं लिखा कि यह सिनेमा देखकर मुझे मजा आया|'
'सॉरी दीदी जी'
'सॉरी की बात नहीं तुषार, दर्द से हास्य पैदा करना ही तो दुनिया की आदत है| अब बताओ तो, विकलांग कौन है? '
तुषार ने खिलखिला कर हँसने वाली बड़ी सी स्माइली भेजी और सुमित्रा ने चैन की साँस ली|
--ऋता शेखर मधु 

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

कलकल नदिया है बही, छमछम चली बयार -कुंडलिया

कलकल नदिया है बही, छमछम चली बयार |
गिरिराज हैं अटल खड़े, लिए गगन विस्तार ||
लिए गगन विस्तार, हरी वसुधा मुस्काई ,
दूर्वा पर की ओस, धूप देख कुम्हलाई ||
तितली मधु को देख, मटक जाती है हरपल ,
छमछम चली बयार, बही है नदिया कलकल ||

गरिमा बढ़ती कार्य से, होता है गुणगान |
जग में सूरज चाँद सम, मिले सदा सम्मान||
मिले सदा सम्मान, नाम जग में होता है,
करते जो आलस्य, स्वप्न उनका खोता है |
ऋता करे स्वीकार, सतत प्रयत्न की महिमा,
होता गुणगान, कार्य से बढ़ती गरिमा ||

मन मन्दिर में शोभते, शिव सम सरल विचार |
सुधा-कलश को बाँटकर, गरल करें स्वीकार ||
गरल करें स्वीकार, जगत रौशन कर जाएँ ,
शीतल विल्व समान, मनः संताप मिटाएँ ||
मधु फूलों के बाग, सोहते ऋतु मगसिर में ,
शिव सम सरल विचार, शोभते मन मन्दिर में||

क्रंदन दिल को चीर कर, ढूँढे दृग की राह |
जाने टूटे स्वप्न हैं, या दरकी है चाह ||
या दरकी है चाह, व्यंग्य की सुन सुन बातें ,
मन को देतीं दंश, विरह की काली रातें ||
रजत किरण की धार, रोम को देतीं स्पंदन,
मनभावन वह चंद्र, सोखता दिल का क्रंदन||

संबोधन के शब्द में, होते गहरे राज|
कर्कश, नम्र, विनीत या, कहीं दिखाते नाज ||
कहीं दिखाते नाज, कुसुम बन कर सजते हैं,
सही बँधे जब तार , सप्तसुर ही बजते हैं |
'मधु' ये रखना ध्यान, कर्णप्रिय हो उद्बोधन,
होगी अच्छी सोच, मधुर होंगे संबोधन||

--ऋता शेखर 'मधु'

मन के भीतर धैर्य हो, अधरों पर मुस्कान-कुंडलिया

जीवन यात्रा अनवरत, चली सांस के साथ |
मध्यम या फिर तीव्र गति, स्वप्न उठाती माथ ||
स्वप्न उठाती माथ, कभी रोती या हँसती |
करती जाती यत्न, राह से कभी न हटती|
पढ़ कर हर पग पाठ,'ऋता'' बनती है छात्रा|
चुक जाएगी सा़ंस, रुकेगी जीवन यात्रा||

जिनके हिय में हरि बसे, वे हैं साधु समान|
परहित को तत्पर रहें, लेकर के संज्ञान|| 
लेकर के संज्ञान, स्वयं आगे आ जाते |
भेदभाव को छोड़, सबको गले लगाते |
' मधु डूबी मझधार, सहारा बनते तिनके|
होते साधु समान, हृदय में हरि हैं जिनके ||'

ममता की जो खान है, घर की है वह जान |
बिन बोले सब कुछ सहे, त्यागे निज अरमान ||
त्यागे निज अरमान, उसे कहते हैं नारी |
बेलन, शिक्षा के साथ, जीतती दुनिया सारी ||
'मधु'को होता गर्व, देखकर उनकी क्षमता |
मन की वह मज़बूत, जोड़ती जाती ममता ||

माना जीवन -पथ नहीं, होता है आसान।
मन के भीतर धैर्य हो, अधरों पर मुस्कान।।
अधरों पर मुस्कान, राह को सरल बनाती,
खग -गुंजन के साथ, ऋचा वेदों की आती।।
भोर-निशा का राज, प्रकृति से हमने जाना।
पतझर संग बसन्त,राह जीवन की माना।

-ऋता शेखर 'मधु'