---मेरा उद्‌गार---

जीवन की आपाधापी में,
जीवन के संघर्ष में,
रिश्तों के तानोंबानों में,
ऐसी उलझी मैं,
फुर्सत न मिली सोचने की,
हूँ मैं भी एक ‘मैं’|
कुछ पल मिले बैठने को,
लगा कहाँ हूँ मैं,
दुनिया की इस भीड़ में,
कहीं तो हूँ ‘मैं’|
मन में था विचारों का रेला,
बहने को बेताब हुआ|
लेखनी आ गई हाथों में,
कागज़ से उसका मिलाप हुआ|
उभर आए अक्षर के मोती,
पिरोने का संतोष हआ|
पसन्द आए अगर ये माला,
समझूँगी जीवन धन्य हुआ|