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रविवार, 28 फ़रवरी 2021
कर्णेभिः 28- पीढ़ियों का अन्तर- #पवन जैन, वाचन व प्रस्तुति- ऋता शेखर मधु
बुधवार, 24 फ़रवरी 2021
चाँद-चाँदनी
चाँद- चाँदनी...
चंदा की तुम चाँदनी, झरती सारी रात।
गगन अनोखा दे रहा, धरती को सौगात।।1
देख अमा की रात को, नहीं मनाना शोक।
घट-बढ़ ही है जिन्दगी, सीखे तुमसे लोक।।2
रूप रुपहला है मिला, लगते वृत्ताकार।
सूरज से रौशन रहे, लेकर किरण उधार।।3
तुमसे मनता चौथ है, तुम करवा त्योहार।
जग को तुम आशीष दो, मिले सभी को प्यार।।4
व्यथित हुई है चाँदनी, जाओ उसके पास।
क्यों छुपे अमा की रात में, क्यों करते परिहास।।5
जिस सूरज की रश्मियाँ, रखते अपने पास।
ग्रहण बने कृतघ्न तुम , देते हो संत्रास।।6
चन्द्र सलोने कृष्ण के, शायर के महबूब।
माँ की लोरी तुम बने, भाते सबको खूब।।7
बुढ़िया काते सूत जब, कट जाती है रात।
तन्हाई को बाँटकर, करते हो तुम बात।8
कहीं स्वप्न के पृष्ठ हो, कहीं किसी के राज।
गुड़िया के मामा बने, प्यारा हर अंदाज।।9
....ऋता शेखर
स्वप्न
तुम जब तक दूर हो
आँखों का नूर हो
तुम्हारे पूरा होते ही
तुम हकीकत हो जाओगे
तब फिर से उगेगा एक स्वप्न
फिर से परियों को पँख मिलेंगे
फिर से एक सफर का आगाज होगा
तब हकीकत बन गए स्वप्न तुम
सम्भाल लेना वह कहानी
जिसमें बिता दी हमने ज़िन्दगानी।
कल्पना का घोड़ा
सपनों के तांगे में बैठ
गया है चाँद के पास
नटखट चाँदनी
झूला झुलाती हुई
उसे बहला रही ।
तारे भी आ गए
सब हो गए हैं मगन
स्वप्नों के आसपास
सब के नए स्वप्न हैं
सबका है नया आकाश।
*****
चाँद रोता है
धरती भी भीगती है
कभी भोर होते ही
हरे घास की कालीन पर
चलकर तो देखना
कभी
हरसिंगार की पंखुड़ियों को
सहलाकर देखना
@ ऋता शेखर मधु
रविवार, 21 फ़रवरी 2021
माँ की माँ
एक माँ
जो बन चुकी होती है
माँ की भी माँ
मतलब
माँ बन चुकी बहू बेटी की माँ
जी लेती है
अपने बच्चों का बचपन
अक्सर मिलाती है
उस समय को इस समय से
जब आज की माएँ
कड़ी आवाज में भी
बच्चों को कुछ नहीं कहतीं
उसे याद आता है
अपना उठा हुआ हाथ
जो उठते थे देर तक सोने के लिए
समय पर पढ़ाई के लिए नहीं बैठने पर
जब वह देखती है
नाती पोतों के नखरे
उसे याद आती है
दूध रोटी
या लौकी पालक
जिसे खिलाकर ही छोड़ती थी
जब वह देखती है
बस एक डिमांड पर
नई कॉपी
नए जिओमेट्री बॉक्स आते
उसे याद आता है
एक ही किताब को सम्भालना
जो काम आते थे छोटे को
दो या चार बार पहने गए
बच्चों के नए कपड़े
जब किनारे धर देती हैं बेटियाँ
तब माँ की माँ याद करती है
होली के कपड़े
दशहरे तक चलते हुए
पैसे तब भी थे
किन्तु साथ ही होते थे
संयुक्त परिवार
नए बनाने हों तो
सभी के बनेंगे
यह अवधारणा जोड़ती थी
रिश्तों को, परिवार को
वह माँ की माँ
आंखों पर हाथ धरे आज भी
जाने क्या क्या ढूँढती है
उसके अनुभव
या तो हँसकर टाल दिए जाते
या शिकार हो जाते उपेक्षा के
वह माँ की माँ
आज भी समझौते कर लेती है
नए जमाने की माँ से
लेती नहीं है पंगा
उसकी हाँ में हाँ मिलाती
चुपके से देती है अपने सुझाव
बाद में जब मिलती है शाबासी
वह देती है एक सहज मुस्कान
मन ही मन बोलती हुई
ओल्ड इज गोल्ड बेटा 😊
ऋता.....