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शनिवार, 29 अक्टूबर 2011

आस्था का महापर्व-छठ



कार्तिक महीना त्योहारों का महीना हे| करवा चौथ तथा पंचदिवसीय त्योहार दीपावली मनाने के बाद अब आ रहा हे आस्था का चारदिवसीय महापर्व- छठ पर्व| दीपावली के चौथे दिन से इस पर्व की शुरुआत हो जाती है|

भारत के बिहार प्रदेश का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व हैसूर्यषष्ठी। यह पर्व मुख्यतः भगवान सूर्य का व्रत है। इस व्रत में सर्वतोभावेन सूर्य की पूजा की जाती है। वैसे तो सूर्य के साथ सप्तमी तिथि की संगति है, किन्तु बिहार के इस व्रत में सूर्य के साथ 'षष्ठी' तिथि का समन्वय विशेष महत्व का है। इस तिथि को सूर्य के साथ ही षष्ठी देवी की भी पूजा होती है। पुराणों के अनुसार प्रकृति देवी के एक प्रधान अंश को 'देवसेना' कहते हैं; जो कि सबसे श्रेष्ठ मातृका मानी गई है। ये लोक के समस्त बालकों की रक्षिका देवी है। प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इनका एक नाम "षष्ठी" भी है। षष्ठी देवी का पूजनप्रसार ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार राजा प्रियव्रत के काल से आरम्भ हुआ। जब षष्ठी देवी की पूजा 'छठ मइया' के रूप में प्रचलित हुई। वास्तव में सूर्य को अर्ध्य तथा षष्ठी देवी का पूजन एक ही तिथि को पड़ने के कारण दोनों का समन्वय इस प्रकार हो गया कि सूर्य पूजा और छठ पूजा में भेद करना मुश्किल है। वास्तव में ये दो अलगअलग त्यौहार हैं। सूर्य की षष्ठी को दोनों की ही पूजा होती है।
छठ बिहार का प्रमुख त्यौहार है। छठ का त्यौहार भगवान सूर्य को धरती पर धनधान्य की प्रचुरता के लिए धन्यवाद देने के लिए मनाया जाता है। लोग अपनी विशेष इच्छाओं की पूर्ति के लिए भी इस पर्व को मनाते हैं। पर्व का आयोजन मुख्यतः गंगा के तट पर होता है और कुछ गाँवों में जहाँ पर गंगा नहीं पहुँच पाती है, वहाँ पर महिलाएँ छोटे तालाबों अथवा पोखरों के किनारे ही धूमधाम से इस पर्व को मनाती हैं। यह पर्व वर्षमें दो बार मनाया जाता है । पहली बार चैत्रमें और दूसरी बार कार्तिक में । चैत्र शुक्लपक्ष षष्ठी पर मनाए जानेवाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्लपक्ष षष्ठीपर मनाए जानेवाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है । पारिवारिक सुख-स्मृद्धि तथा मनोवांछित फलप्राप्तिके लिए यह पर्व मनाया जाता है । इस पर्वको स्त्री और पुरुष समानरूपसे मनाते हैं । छठ व्रतके संबंधमें अनेक कथाएं प्रचलित हैं; उनमेंसे एक कथाके अनुसार जब पांडव अपना सारा राजपाट जुएमें हार गए, तब द्रौपदीने छठ व्रत रखा । तब उसकी मनोकामनाएं पूरी हुईं तथा पांडवोंको राजपाट वापस मिल गया । लोकपरंपरा के अनुसार सूर्य देव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है । लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी।

नहाय खाय-३०.१०.२०११

पहला दिन कार्तिक शुक्ल चतुर्थी नहाय-खायके रूप में मनाया जाता है। सबसे पहले घर की सफाइ कर उसे पवित्र बना लिया जाता है। इसके पश्चात छठव्रती स्नान कर पवित्र तरीके से बने शुद्ध शाकाहारी भोजन ग्रहण कर व्रत की शुरुआत करते हैं। घर के सभी सदस्य व्रती के भोजनोपरांत ही भोजन ग्रहण करते हैं। भोजन के रूप में कद्दू-दाल और चावल ग्रहण किया जाता है। यह दाल चने की होती है।
लोहंडा और खरना-३१.१०.२०११
दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल पंचमी को श्रद्धालु शुद्धिकरण के लिए विशेषरूप से गंगा में डुबकी लगाते हैं तथा गंगा का पवित्र जल अर्पण हेतु घर साथ लाते हैं। व्रतधारी दिन भर का उपवास रखने के बाद शाम को चाँद निकलने के उपरांत भोजन करते हैं। इसे खरनाकहा जाता है। खरना का प्रसाद गंगाजल में ही बनाया जाता है|खरना का प्रसाद लेने के लिए आस-पास के सभी लोगों को निमंत्रित किया जाता है। प्रसाद के रूप में कहीं-कहीं गन्ने के रस में बने हुए चावल की खीर के साथ दूध, चावल का पिट्ठा और घी चुपड़ी रोटी बनाई जाती है। कहीं-कहीं बासमती चावल का भात और सेंधा नमक डालकर चनै की दाल बनाई जाती है|। इस दौरान पूरे घर की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता है।

संध्या अर्घ्य-१.११.२०११


तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल षष्ठी को दिन में छठ का प्रसाद बनाया जाता है। प्रसाद के रूप में शुद्ध घी में बने ठेकुआ के अलावा चावल के लड्डू, जिसे लड़ुआ भी कहा जाता है, बनाते हैं। इसके अलावा चढ़ावा के रूप में लाया गया साँचा और फल भी छठ प्रसाद के रूप में शामिल होता है।
शाम को पूरी तैयारी और व्यवस्था कर बाँस की टोकरी में अर्घ्य का सूप सजाया जाता है और व्रती के साथ परिवार तथा पड़ोस के सारे लोग अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने घाट की ओर चल पड़ते हैं। सभी छठव्रती एक नियत तालाब या नदी किनारे इकट्ठा होकर सामूहिक रूप से अर्घ्य दान संपन्न करते हैं। सूर्य को जल और दूध का अर्घ्य दिया जाता है तथा छठी मैया की प्रसाद भरे सूप से पूजा की जाती है। इस दौरान कुछ घंटे के लिए मेले का दृश्य बन जाता है। इस व्रत में सभी किसी न किसी रूप में योगदान देना चाहते हैं|

प्रातः या उषा अर्घ्य-२.११.२०११

चौथे दिन कार्तिक शुक्ल सप्तमी की सुबह उदीयमान सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है। ब्रती वहीं पुनः इक्ट्ठा होते हैं जहाँ उन्होंने शाम को अर्घ्य दिया था। पुनः पिछले शाम की प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती है। अंत में व्रती कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत पूर्ण करते हैं।
  
व्रत
छठ उत्सव के केंद्र में छठ व्रत है जो एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्रायः महिलाओं द्वारा किया जाता है किंतु कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैय्या का भी त्याग किया जाता है। पर्व के लिए बनाए गए कमरे में व्रती फर्श पर एक कंबल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नए कपड़े पहनते हैं। पर व्रती ऐसे कपड़े पहनते हैं, जिनमें किसी प्रकार की सिलाई नहीं की होती है। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहनकर छठ करते हैं। शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालोंसाल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहित महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए।
छठ व्रत स्वच्छता, शुद्धता और आस्था का महापर्व है| यह प्रकृति की पूजा है| इसमें नदी, चन्द्रमा और सूर्य- तीनों की पूजा होती है| छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी पवित्रता और लोकपक्ष है।इस पूजा में व्रती को घाट जाने के लिए सड़कें धोकर साफ कर दी जाती हैं| भक्ति और आध्यात्म से परिपूर्ण इस पर्व के लिए न विशाल पंडालों और भव्य मंदिरों की जरूरत होती है न ऐश्वर्य युक्त मूर्तियों की। यह पर्व बाँस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों,गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूँ से निर्मित प्रसाद, और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।

ऋता शेखर मधु

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

पंचदिवसीय त्योहार-दीपावली


वर्षा ऋतु से उत्पन्न हुई  सीलन और गन्दगी को दूर कर अब हम सब तैयार हैं पाँच दिनों का त्योहार मनाने के लिए|
धनतेरस, दीपावली, चित्रगुप्त पूजा एवं भाईदूज की हार्दिक शुभकामनाएँ|
१) धन त्रयोदशी- २४.१०.२०११
इसे आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि की याद में मनाया जाता है|समुद्र मंथन में धन्वन्तरि महाराज अमृत कलश लेकर समुद्र से निकले थे
और देवताओं को अमृत पिलाकर उन्हें आयु और आरोग्य प्रदान किया था| इसे धनतेरस भी कहते हैं| ऐसा विश्वास है कि इस दिन सोना, चाँदी या बरतन खरीदने से धन की देवी लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं| अपनी अपनी हैसियत के अनुसार सभी कुछ न कुछ खरीदते हैं|
आज के दिन यम का दीप निकाला जाता है|देर रात जब घर के बच्चे सो जाते हैं तो घर के अन्दर से ही दीया जला कर बाहर ले जाते हैं और उसे मसूर दाल की ढेरी पर रखा जाता है| यम को यह दीप दान करने से पति और पुत्र की अकाल मृत्यु से रक्षा होती है|
२) नरक चतुर्दशी- २५.१०.२०११
आज के दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था|
आज के दिन को बजरंगबली हनुमान की जन्मतिथि के रूप में भी मनाया जाता है|
आज के दिन एक खास स्नान का बहुत महत्व है| कहते हैं कि इस स्नान से रूप निखर जाता है| चंदन, कपूर, मंजिष्ठा, गुलाब, नारंगी का छिलका और हल्दी को मिलाकर खास उबटन तैयार किया जाता है| सूर्योदय से पहले इस उबटन को लगाकर स्नान करने से रूप में चार चाँद लग जाते हैं| इसे रूप चौदस भी कहते हैं| इसे छोटी दिवाली के रूप में भी मनाया जाता है| 
३) दीपावली- २६.१०.२०११
पाँच दिनों के त्योहार का सबसे महत्वपूर्ण दिन दिवाली का है|
आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी के दिन मर्यादापुरुषोत्तम राम ने लंका में लंकापति रावण को युद्ध में पराजित करने के बाद सीता को वापस पाया था| विजयादशमी के बीस दिनों के बाद पुष्पक विमान से राम जी, सीता जी एवं लक्ष्मण जी तथा अन्य अयोध्या वापस लौटने लगे| धरती पर घुप्प अंधकार छाया था क्योंकि उस दिन कार्तिक अमावस्या की रात थी| राम जी को उतरने का सही स्थान पता चले इसके लिए अयोध्यावासियों ने पूरे नगर को ढेर सारे घी के दीपक जलाकर रौशन कर दिया था| इस तरह से उन्होंने वापस लौटने की खुशी भी जाहिर की थी| तभी से ही इस दिन को दीपों की पंक्ति से सजाने की परंपरा शुरू हो गई|
दीपावली के दिन गणेश जी और लक्ष्मी जी की पूजा का भी विधान है| गणेश जी को लड्डू चढ़ाकर उनकी पूजा की जाती है| घरों में घरौंदा बनाने का भी रिवाज़ है| कुलिया में लावा, फ़रही और पचंजा(पाँच तरह के अनाज) डालकर बहनें अपने भाइयों को देती हैं| अंधकार पर प्रकाश की विजय का यह पर्व समाज में उल्लास, भाई-चारे व प्रेम का संदेश फैलाता है। लोगों में दीवाली की बहुत उमंग होती है। लोग अपने घरों का कोना-कोना साफ़ करते हैं, नये कपड़े पहनते हैं। मिठाइयों के उपहार एक दूसरे को बाँटते हैं, एक दूसरे से मिलते हैं। घर-घर में सुन्दर रंगोली बनायी जाती है, दिये जलाए जाते हैं और आतिशबाजी की जाती है।
 ४) गोवर्धन पूजा- २७.१०.२०११

दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा का होता है।

गांव और शहरों में पारंपरिक रूप से गाय और उसके गोबर से बने पर्वत की पूजा होती है। भगवान कृष्ण को अन्नकूट का भोग लगता है।
भगवान कृष्ण ने ही गोवर्धन पूजा की शुरुआत की थी, जो उस वक्त से आज तक चली आ रही है। इंद्र को इस बात का अहंकार हो गया था कि वो बारिश कराते हैं, तब कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर इंद्र को यह एहसास दिलाया कि वो पानी बरसा कर धरती पर कोई कृपा नहीं करते, बल्कि यह तो उनका कर्तव्य है, जो विधाता ने उन्हें सौंपा है।
भगवान कृष्ण ने इसके जरिए ये संदेश दिया था कि अपना कर्तव्य करना चाहिए बिना फल की चिंता किए। इसलिए उन्होंने बारिश के देवता इंद्र को भी ये समझाया।
कृष्ण ने इंद्र को समझाया था कि बारिश समय पर करना तुम्हारा कर्तव्य है, इसके लिए तुम्हें कोई पारिश्रमिक नहीं मिले तो तुम्हें नाराज होने क कोई अधिकार नहीं है। तुम केवल इसलिए पूजे जाने योग्य नहीं हो कि तुम समय पर बारिश करवाते हो, ब्रह्मा ने तुम्हें यह काम सौंपा है और तुम्हें इसे हर हाल में करना है। इंद्र ने अपनी गलती मानी। तभी से गोवर्धन पूजा का प्रचलन चल पड़ा।
गाय बैल को इस दिन स्नान कराकर उन्हें रंग लगाया जाता है व उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है। गाय और बैलों को गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।
५) यम द्वितीया- २८.१०.२०११
आज के दिन दो प्रकार की पूजा होती है|
चित्रगुप्त पूजा और भाईदूज
चित्रगुप्त पूजा-
भगवान चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा जी की काया से उत्पन्न हुए हैं और यमराज के सहयोगी हैं।
सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक कमल निकला जिस पर एक पुरूष आसीन था चुंकि इनकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य से हुआ था अत: ये ब्रह्मा कहलाये। इन्होंने सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गंधर्व, अप्सरा, स्त्री-पुरूष पशु-पक्षी को जन्म दिया। इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को सजा देने का कार्य प्राप्त हुआ था। धर्मराज ने जब एक योग्य सहयोगी की मांग ब्रह्मा जी से की तो ब्रह्मा जी ध्यानलीन हो गये और एक हजार वर्ष की तपस्या के बाद एक पुरूष उत्पन्न हुआ। इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अत: ये कायस्थ कहलाये और इनका नाम चित्रगुप्त पड़ा।
भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कर्म की किताब, कलम, दवात और करवाल है। ये कुशल लेखक हैं और इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय मिलती है। कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि को भगवान चित्रगुप्त की पूजा का विधान है। यमराज और चित्रगुप्त की पूजा एवं उनसे अपने बुरे कर्मों के लिए क्षमा मांगने से नरक का फल भोगना नहीं पड़ता है।
भाई दूज( गोधन)-
यह एक सामूहिक पूजा है|गाय के गोबर से एक चतुर्भुज बनाया जाता है|इसकी चारो भुजाओं को बीच से खोल दिया जाता है,यह यमपूरी का प्रतीक है| बीच में गोबर से ही यम की आकृति बनाई जाती है| उसके
उपर एक नया ईट रख दिया जाता है|यम की विधिवत पूजा की जाती है|इस पूजा के लिए मुरली की माला, रेंगनी का काँटा, बजरी(कुशी केराव), नारियल,कच्चा रूई एवं मिठाई आवश्यक वस्तुएँ हैं|पूजा के क्रम में बहनें भाई को भला-बुरा कहती हैं, और फिर अपनी जीभ पर रेंगनी का काँटा गड़ाकर प्राशयश्चित करती हैं|कच्चे रूई से माला बनाकर भाई की आयु जोड़ती हैं और यम से भाई की लम्बी उम्र के लिए प्रार्थना करती हैं|फिर समाठ(धान कूटने के लिए प्रयोग किया जाने वाला काठ का बना मूसल) से ईंट पर इतने प्रहार किए जाते हैं कि ईंट और यम चकनाचूर हो जाते हैं| भाईदूज  में हर बहन रोली एवं अक्षत से अपने भाई का तिलक कर उसके उज्ज्वल भविष्य के लिए आशीष देती हैं। भाई अपनी बहन को कुछ उपहार या दक्षिणा देता है। भाईदूज दिवाली के दो दिन बाद आने वाला ऐसा पर्व है, जो भाई के प्रति बहन के स्नेह को अभिव्यक्त करता है एवं बहनें अपने भाई की खुशहाली के लिए कामना करती हैं। इस त्योहार के पीछे एक किंवदंती यह है कि यम देवता ने अपनी बहन यमी  को इसी दिन दर्शन दिया था, जो बहुत समय से उससे मिलने के लिए व्याकुल थी। अपने घर में भाई यम के आगमन पर यमुना ने प्रफुल्लित मन से उसकी आवभगत की। यम ने प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया कि इस दिन यदि भाई-बहन दोनों एक साथ यमुना नदी में स्नान करेंगे तो उनकी मुक्ति हो जाएगी। इसी कारण इस दिन  नदी में भाई-बहन के एक साथ स्नान करने का बड़ा महत्व है। इसके अलावा यमी ने अपने भाई से यह भी वचन लिया कि जिस प्रकार आज के दिन उसका भाई यम उसके घर आया है, हर भाई अपनी बहन के घर जाए। तभी से भाईदूज मनाने की प्रथा चली आ रही है। जिनकी बहनें दूर रहती हैं, वे भाई अपनी बहनों से मिलने भाईदूज पर अवश्य जाते हैं और उनसे टीका कराकर उपहार आदि देते हैं।
ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

कविता




हर्ष बनती है कविता
विषाद बनती है कविता
ज़ुल्म सह-सह कर
आर्तनाद बनती है कविता|


अनुराग बनती है कविता
वैराग्य बनती है कविता
मौन मूक भाषा का
संवाद बनती है कविता|

त्याग बनती है कविता
बलिदान बनती है कविता
विग्रह में वतन की
पुकार बनती है कविता|

शोक बनती है कविता
क्षोभ बनती है कविता
शोषण के ख़िलाफ़
विरोध बनती है कविता|

अन्तर्द्वन्द बनती है कविता
स्वच्छन्द बनती है कविता
इज़हारे-मुहब्बत की
पसन्द बनती है कविता|

व्यथा बनती है कविता
कथा बनती है कविता
ग्रन्थ के पन्नों में
गाथा बनती है कविता|

प्रेरणा बनती है कविता
शुभकामना बनती है कविता
थके हारे पथिक की
सांत्वना बनती है कविता|

सम्मान बनती है कविता
आभार बनती है कविता
लय-छंद सजाकर
जयजयकार बनती है कविता|

ओर बनती है कविता
अंत बनती है कविता
कण-कण से निकलकर
अनन्त बनती है कविता||

ऋता शेखर 'मधु'