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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

महादान

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ
सुस्वागतम्

नया साल उत्साह नव, आया सबके पास|
कुछ तो नव कर लीजिए, बन जाए यह खास||


महादान
रखना था वचन का मान
दिव्य उपहार कवच कुण्डल का
कर्ण ने दे दिया दान|

 लोक हित का रखा ध्यान
दधिची ने दिया अस्थि दान
शस्त्र का हुआ निर्माण
हरे गए असुरों के प्राण|

 अनोखे दान को मिला स्थान|
दान कार्य जग में बना महान||

 विद्यादान वही करते
जो होते स्वयं विद्वान,
धनदान वही करते
जो होते हैं धनवान,
कन्यादान वही करते
जिनकी होती कन्या सन्तान,
रक्तदान सभी कर सकते
क्योंकि सब होते रक्तवान|

 रक्त नहीं होता
शिक्षित या अशिक्षत
अपराधी या शरीफ़
अमीर या गरीब
हिन्दू या ईसाई|
 यह सिर्फ़ जीवन धारा है,
दान से बनता किसी का सहारा है|

 रक्त कणों का जीवन विस्तार           
है सिर्फ़ तीन महीनों का|
क्यों न उसको दान करें हम
पाएं आशीष जरुरतमन्दों का|

 करोड़ों बूँद रक्त से
निकल जाए गर चन्द बूँद,
हमारा कुछ नहीं घटेगा
किसी का जीवन वर्ष बढ़ेगा|
                    
मृत्यु बाद आँखें हमारी
 खा़क में मिल जाएंगी,
दृष्टिहीनों को दान दिया
उनकी दुनिया रंगीन हो जाएगी|

रक्तदान सा महादान कर
जीते जी पुण्य कमाओ
नेत्र-सा अमूल्य अंग दान कर
मरणोपरांत दृष्टि दे जाओ|
                          
रक्तदान के समान नहीं
है कोई दूजा दान,
नेत्रदान के समान
है नहीं दूजा कार्य प्रधान|



                                         
              ऋता शेखर मधु


सोमवार, 26 दिसंबर 2011

किशोरों के लिए

मेरी आज की कविता बारहवीं क्लास में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए है जिनके सामने साल बदलते ही परीक्षा ओर प्रतियोगिता-परीक्षाओं की लम्बी कतार लगने वाली है|
निराशा की घटा हटा के रखो
धैर्य का दामन पकड़  के  रखो,
सब्र की मुट्ठी जकड़  के  रखो,
उम्मीदों के चिराग जला के रखो,
खुशियों के  दीप जगमग करेंगे|

निराशा की घटा हटा के  रखो,
प्यार की ज्योत जला के  रखो,
इच्छा की रंगोली सजा के रखो,
आनंद के सागर छलक  उठेंगे|

क्रोध की अग्नि बुझा के रखो,
वैर  के  बीज  सुखा के रखो,
बातों के तीर  छुपा  के रखो,
हर्ष  के  पौधे  लहक  उठेंगे|

प्रेम की धारा  बहा  के  रखो,
विश्वास की नींव जमा के रखो,
आशा की किरण जगा के रखो,
जीत  के  झंडे  लहर  उठेंगे|

श्रम के मोती चमका के रखो,
लगन की लौ बचा  के  रखो,
प्रयास की सीढ़ी लगा के रखो,
शौर्य  के सूरज  दमक उठेंगे||

       ऋता शेखर मधु

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

लघुकथा- हार की जीत



!! क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनाएँ !!
हार की जीत

दिसम्बर महीने की ठंढ थी| रजनी अपने घर के बाहर लान में बैठी धूप का आनन्द ले रही थी| तभी एक महिला अपनी दस वर्षीया पुत्री के साथ गेट पर खड़ी दिखी| महिला देखने में भले घर की लग रही थी| रजनी उठकर उसके पास गई और प्रश्नवाचक दृष्टि से उसे देखा|
मैं बहुत मुसीबत में हूँ|महिला ने कहा|
क्या बात है,रजनी ने पूछा|
मैं पास के छोटे शहर से अपना इलाज करवाने यहाँ आई हूँ| मुझे माइग्रेन है| कभी-कभी मुझे यहाँ आकर दिखाना पड़ता है| मेरे साथ मेरी बच्ची है| मैं ने डाक्टर से दिखा लिया है| मेरा बटुआ किसी ने पार कर दिया है| मेरे पास घर लौटने के पैसे नहीं हैं| यदि आप घर लौटने के लिए गाड़ी का भाड़ा दे दें तो बहुत मेहरबानी होगी| मैं जब अगले महीने इलाज के लिए आऊँगी तो पैसे लौटा दूँगी|
यहाँ पर इतने सारे मकान हैं फिर आप मदद माँगने यहाँ ही क्यों आई हैं|रजनी ने जिज्ञासा प्रकट की|
क्योंकि मुझे आपके चेहरे पर धार्मिकता और दयालुता नज़र आई|
महिला का उत्तर सुन रजनी उसकी चापलूसी पर मन ही मन मुस्कुरा उठी|
वह घर के अन्दर गई और उसने अलमारी से तीन सौ रुपए निकाले| रजनी ने उस महिला को इस विश्वास पर पैसे दे दिए कि वह अगले महीने लौटा देगी|
     इस घटना को बीते दो साल हो चुके हैं| पैसे वापस नहीं आए| रजनी ने उस महिला की बातों और आँखों की सच्चाई पर विश्वास किया था , इसलिए आज भी उसे पैसे देने का पछतावा नहीं है|
आज जब भी वह इस घटना के बारे में सोचती है तो बचपन में पढ़ी  बाबा भारती और डाकू खड्गसिंह की कहानी को ‌याद करती है| इस कहानी में डाकू खड्गसिंह ने दीन-हीन याचक बनकर बाबा भारती का घोड़ा उड़ा लिया था| बाबा ने खड्गसिंह से विनती की थी कि वह इस बात को किसी से न बताए वरना लोग दीनों पर विश्वास करना छोड़ देंगे|

                                                     ऋता शेखर मधु

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

बड़े सयाने,फिर भी मासूम




पिछले दिनों किसी काम से शहर से बाहर जाना पड़ा|वापसी के रास्ते में सोचा,अपने सुपुत्र की गृहस्थी भी देखती चलूँ जहाँ दो-तीन बैचलर बच्चे एक फ्लैट लेकर रहते हैं और जौब करते हैं|बस, ये सृजन उसी वक्त का है-

बड़े सयाने
फिर भी मासूम
असमय बड़े होते ये बच्चे
आधुनिकता की त्रासदी कहूँ
या समय की माँग
ममता की छाँव छिन गई है
देख उन्हें दिल भर आता है
सिर्फ फोन का ही नाता है|

बड़े सयाने
पर ज्यूँ सर रखा गोद में
लगा, लेटा है
वही पाँच साल का
मासूम बच्चा
अपनी हर बात कहने को आतुर
एक अव्यक्त उपालम्भ था
आँखों में चमका इक मोती
दिख न जाए माँ को
इसका भी ख्याल था
पर माँ तो माँ है|

कहो या न कहो
नम आँखों को लाख छुपाओ
बातों से भी खूब रिझाओ
किन्तु उस हँसती व्यथा को
छुपा नहीं सकते
क्यूँकि माँ तो माँ है|

कुक का बना
खाते ये बच्चे
कुछ दिन ही सही
मिलेगा ममता का खाना
एक संतुष्टि
दिखती चेहरे पे
आफिस के लज़ीज़ खाने
अब नहीं मन भाते|

ज्यूँहि, चलने का वक्त आया
आँखों में उदासी तिर आई
बड़े यत्न से उसे छुपाया
पर माँ तो माँ है|


हाथ झुके थे
चरण-स्पर्श को
आशीर्वाद का हाथ भी
रख दिया था सर पे
पर क्यूँ कुछ देर
उठ न पाए
डर था
अश्रु –बिन्दु दिख न जाए
पर माँ तो माँ है|

उम्र इतनी भी बड़ी नहीं
विवाह बंधन में बँध सके
अकेलेपन को झेलते
खुद को सँभालते
बड़े सयाने
फिर भी मासूम
असमय बड़े होते ये बच्चे|

ऋता शेखर ‘मधु’

रविवार, 18 दिसंबर 2011

५.श्रीराम की किशोरावस्था और विश्वामित्र की याचना-ऋता की कविता में

आज मैं श्रीराम कथा की पाँचवीं कविता लेकर प्रस्तुत हूँ|आपकी छोटी -सी प्रतिक्रिया भी मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है और मुझमें नए उत्साह का संचार करती है|

श्रीराम की किशोरावस्था

बाल्यावस्था  बीत गई, श्रीराम  हुए  किशोर
यगोपवीत संस्कार हुआ, चले गुरुकुल की ओर|

श्वास और स्वभाव में जिनके, बसते चारो वेद
वही  गए  विद्याध्ययन को, अद्भुत है ये भेद|

अल्प समय में हो गए, विद्या विनय में निपुण
सीखने  लगे  बड़े  मन  से, राजाओं  के  गुण|

शोभा और निखर जाती, लेकर धनुष और बाण
कोशलपुरवासी के बसते थे, श्रीरामचंद्र में प्राण|

बन्धुओं संग शिकार खेलना, प्रतिदिन का था कृत्य
पवित्र  मृग  ही  मारते, राजा  को  दिखाते नित्य|

श्रीराम  के  बाण से, पवित्र मृग जो सिधारते
मुक्ति उनको मिल जाती, स्वर्गलोक को जाते|

संग  अनुजों  मित्रों  के, भोजन करते श्रीराम
गुरुजनों के आज्ञाकारी, प्रसन्न रखना था काम|

बड़े  ध्यान  से श्रवण करते, पुराणों की गाथा
पुन: अनुजों को कहते, समझाकर उनकी कथा|

नित्य ही प्रात: करते, मात- पिता गुरु को प्रणाम
लेकर उनकी आज्ञा, आरम्भ करते नगर का काम|

सर्वव्यापक कलारहित, इच्छारहित निर्गुण निराकार
अद्भुत  लीलाओं  से  करते, मानव- जन्म साकार|

विश्वामित्र की याचना

एक ऋषि  थे  महाज्ञानी, नाम  था  विश्वामित्र
वन में करते थे निवास, आश्रम था पावन पवित्र|

जप  यज्ञ  योग  में सदा, रहा करते थे लीन
उपद्रवी असुर निर्भय हो, करते यज्ञ को क्षीण|

महर्षि आहत हो जाते, करूँ क्या मैं उपाय
श्रीराम हैं प्रभु के अवतार, होंगे वही सहाय|

बिन ईश्वर पापी न मरेंगे, हो गई ऐसी सोच
दर्शन कर प्रभु को लाऊँ, तज कर के संकोच|

विचार कर चल दिए, किया सरयू में स्नान
दशरथ के दरबार में, मिला बहुत सम्मान|

मुनिवर के आगमन को, राजा ने माना सौभाग्य
श्रीराम  की  शोभा  देख, मुनि भूले सारा वैराग्य|

राजन  के  अनुरोध  पर, मुनि ने बताई बात
अवधराज सन्न रह गए, जैसे आया झंझावात|

विकल व्यथित हो, अनुनय कर बोले
दिल  की  बात,  संकोच  से  खोले|

पृथ्वी गौ कोष सेना, सब न्योछावर कर दूँगा
बुढ़ापे  में  पुत्र  मिले,  उनको मैं नहीं दूँगा|

सारे  पुत्र  हैं  प्राण  समान, सबसे  प्रिय  हैं  राम
सुन्दर छोटा सा पुत्र मेरा, कैसे करेगा यह विकट काम|

राजगुरू ने जब समझाया, राजा का दूर हुआ सन्देह
विश्वामित्र  प्रसन्न  हुए, पाकर राम- लक्ष्मण सदेह|

सप्रेम पुत्रों को बुलाया, और दे दी यह शिक्षा
ऋषि ही हैं पिता तुम्हारे, देनी है विकट परीक्षा|

प्रसन्नवदन राम-लक्ष्मण चले, छोड़ पिता का घर
पीताम्बर  में  सजे  थे, तरकश  था  पीठ  पर|

एक  श्याम  एक  गौरवर्ण, सुन्दर  थी  जोड़ी
लोभ निहारने का, मुनि की आँखों ने नहीं छोड़ी|

मार्ग में मिली राक्षसी ताड़का, राम ने कर दिया उसका वध
तर  गई  वह  इस  संसार  से, मिल  गया राम का पद|

अस्त्र-शस्त्र राम को सौंप मुनि बोले, बढ़े आपका बल
भूख-प्यास पर विजय पाएँ, समझें  असुरों  का  छल|

क्रोधी असुर मारीच सुबाहु, आए पैदा करने विघ्न
आश्वासन दिया राम ने, पूरा होगा यज्ञ निर्विघ्न|

फरहीन बाण चलाया, मारीच गिरा समुद्र के पार
श्रीराम के अग्नितीर से, सुबाहु गया प्राण को हार|

अनुज  लक्ष्मण  ने  किया, असुर  कटक  का  संहार
देव मुनीश्वर प्रसन्नमन से, करने लगे स्तुति बारम्बार||

ऋता शेखर ‘मधु’



रविवार, 11 दिसंबर 2011

आज का दर्द



आज का दर्द

दो पीढ़ियों के बीच दबा
कराह रहा है आज
पुरानी पीढ़ी है भूत का कल
नई पीढ़ी है भविष्य का कल
दोनों कल मिल
आज पर गिरा रहा है गाज़|

भूत का कल झुके नहीं
भविष्य का कल रुके नहीं
दोनों का निशाना
बन गया है आज|

ना मानो तो बुज़ुर्ग रुठते
लगाम कसो औलाद भड़कते,
क्या करुं कि सब हंसे
हाथ पर हाथ धरे
सोंच रहा है आज|

भावनात्मक अत्याचार करते वृद्ध
घायल हो रहा है आज|
इमोशनल अत्याचार से
स्वयं को बचा रहा भविष्य का कल|
मेरा क्या होगा
भविष्य अपना सोच सोच
घबड़ा रहा है आज|

पुरानी पीढ़ी मानती नही
नई पीढ़ी समझती नहीं
दोनों के बीच समझने का ठेका
उठा रहा है आज|

पुराना कल बोले
मेरी किसी को चिन्ता नहीं
नया कल बोले
मेरी कोई सुनता नहीं
सुन सुन ये शिकवे, कान अपने
सहला रहा है आज|

दोनों पीढ़ी नदी के दो किनारे
बीच की धारा है आज|
कभी इस किनारे
कभी उस किनारे
टकरा टकरा
बह रहा है आज|

भूत और भविष्य का कल
तराजू के पलड़ों पर विराजमान
बीच की सूई बन
संतुलन बना रहा है वर्तमान|
दोनों कल चक्की के दो पाट
उनके बीच पिसते स्वयं को
साबूत बचा रहा है आज|

रुढ़िवादी है पुराना कल
है वह झील का ठहरा जल
आधुनिक है नया कल
है वह नदी का बहता जल
कभी झील में कभी नदी में
मौन रह, पतवार संभाल रहा है आज|

परम्परा मानता जर्जर कल
बदलाव चाहता प्रस्फुटित कल
दोनों के बीच चुपचाप
सामंजस्य बैठा रहा है आज|

कल और कल का
कहर सह सह
टूट न जाना आज|
धैर्य का बाँध टूटा अगर
बह जाएँगे दोनों कल|

कल और कल की रस्साकशी में
मंदराचल पर्वत
बन जाओ तुम आज
कई अच्छी बातें उपर आएँगी
बीते कल का प्यार बनोगे
आगामी कल का सम्मान|
 ऋता शेखर मधु
                       

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

बाबुल का अंतर्द्वन्द



बाबुल का अंतर्द्वन्द
बिटिया खड़ी दुल्हन बनी
मन का जाने न कोई राज
बाबुल खड़ा सोचे बड़ा
अजीब रस्म है आज
सौंपना है जिगर के टुकड़े को
बजा बजा के साज
मन है व्याकुल, ले जाने वाला
बन पाएगा क्या उसका रखवाला
नयन नीर बने, होठों पर मुस्कान
मन विह्वल होता जाता है
दिल भी बैठा जाता है
पर साथ ही सुकून है
बाबुल खुद पर है हैरान|
बिटिया इस घर की रानी थी
क्या वहाँ करेगी राज!
बाबुल की बाहें बनी थीं झूला
मिल पाएगा क्या वहाँ हिंडोला!
माँ की गुड़िया प्यारी-प्यारी
बन पाएगी क्या वहाँ दुलारी!
भाई की आँखों का तारा
जीवनसाथी की क्या बनेगी बहारा!
बहनों की वह प्यारी बहना
बन पाएगी क्या वहाँ की गहना!
दादी-नानी की नन्हीं मुनिया
उड़ पाएगी क्या बन चिड़िया!
बूआ-मासी की है वह लाडली
पाएगी क्या फूलों की डाली!
सवाल रह गए सारे मन में
बिटिया चली, बैठ पालकी में
आँगन बजती रही शहनाई
बिटिया की हो गई विदाई|

अब जो बिटिया हुई पराई
याद में आँखें भर आईं|
बाबुल, तुम रोना नहीं
दिल में है सिर्फ वही समाई|
अब जब भी वह घर आए
प्यार से झोली भर देना
एक अनुरोध इतना सा है
अपने घर को 
उसका भी रहने देना||

ऋता शेखर ‘मधु’

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

विज्ञानी देवता





विज्ञानी देवता

पितामही बोली-सुन पोते
कुछ तो धर्म किया करो
संग हमारे बैठकर
आरती गाया करो|
पितामही की बातें सुन
पोता दिया मुस्कुरा
चल दादी,तू शुरु कर
मैं अभी आया|
पितामही ने
आरती किया शुरु
भूल गई बीच में
चुप रही खड़ी|
अचानक मीठे स्वर में
आरती हुई शुरु
पितामही ने
खुश होकर लगाई
आशीर्वादों की झरी|

माता बोली, सुन पुत्र
कुछ तो काम किया करो
मेरी एक चिट्ठी है
पत्र-पेटी में जाकर डालो|
माता की बात सुन
पुत्र दिया मुस्कुरा
माते, इमेल खाता खुलवाओ
अभी पोस्ट कर देता हूँ|

अर्द्धांगिनी बोली, सुन स्वामी
सीरियल खत्म हुआ नहीं
खाना मैंने बनाया नहीं|
अर्द्धांगिनी की बातें सुन
स्वामी दिया मुस्कुरा
प्रियतमे, तुम रसोई में जाओ
सीरियल नहीं छूटेगा
यू ट्यूब पर
मनपसंद एपीसोड दिखाऊँगा|

चाचा बोला, सुन भतीजे
मेरा काम कर आओ
अख़बार में वधु चाहिए का
इश्तहार दे आओ|
चाचा की बातें सुन
भतीजा दिया मुस्कुरा
चाचू, अपनी पसंद बताओ
शादी डॉट कॉम पर जाओ|

पुत्री बोली, सुनो पापा
घर में मैं बोर हो गई
मुझे दोस्तों से मिलवाओ|
पुत्री की बातें सुन
पापा दिया मुस्कुरा
चलो पुत्री फ़ेसबुक पर
तुम्हें दोस्तों से चैट कराऊँ|

मुनिया बोली, पापू पापू
कोई गेम लाकर दो न
मैं चाहती हूँ खेलना|
मुनिया की बातें सुन
पापू दिया मुस्कुरा
चल बिटिया, गेम साइट पर
तरह-तरह के गेम खेलाऊँ|

बहना बोली, सुन भइया
रक्षाबंधन निकट आ रहा
अच्छी सी गिफ़्ट है लेना|
बहना की बातें सुन
भइया दिया मुस्कुरा
चल बहना, शॉपिंग साइट पर
मनपसन्द गिफ़्ट ऑर्डर करवाऊँ|

पिता बोले, सुनो बेटे
मुझे प्राचीन भारत की
भाषा, लिपि है जानना
मुझे पुस्तकालय ले जाओ|
पिता की बातें सुन
बेटा दिया मुस्कुरा
चलिए पिता जी विकिपिडिया पर  
जो जी चाहे जानिए|

जीजा बोले, सुनो साले साहब
तुम्हारी बहन को घुमाना है
सारे टिकट कटाकर लाओ|
जीजा की बातें सुन
साला दिया मुस्कुरा
जीजू, दिन और जगह बताओ
ट्रैवल साइट पर अभी
इ-टिकट बुक कर देता हूँ|

पितामही ने दिनभर
देखा सारा तमाशा
अचंभित स्वर में पोते से पूछा,
तू तो कहीं नहीं गया
फिर सारे काम कैसे निपटाया|
सुबह सवेरे मीठे स्वर में
आरती किसने गाया|

अब पोता हँस दिया ठठाकर
चल दादी, मैं तुझे दिखाऊँ
यह छोटा प्यारा सा चौकोर
कम्प्यूटर है कहलाता|
नए युग का यह नया है देवता
विन्डोज़ लीनक्स की भाषा समझता
गूगल सर्च पर सब कुछ बताता
हर क्षेत्र का है यह ज्ञाता
घर बैठे सबकुछ निपटाता|
विज्ञान के इस अद्भुत तोहफे ने
दिया है बहुत आराम
इसके आने से अब
जीना हुआ बहुत आसान|
 
पितामही गई पूजागृह में
सामग्री सजा लाई थाल में
कम्प्यूटर को टीका लगाया
मिठाई बादाम का भोग चढ़ाया
बड़े भक्ति से धूप दिखाया
सुरीले स्वर में आरती गाया
जय विज्ञानी देवा
जय जय हे कम्प्यूटर देवा,
तू है बड़ा दयालु
तू सबकी सुनता,
तू सर्वधर्म देवा
तू सर्वज्ञान देवा
तू सर्ववय देवा
तू सर्वव्यापी देवा,
सर्वजन प्रश्नों से भरे
तू क्षण में उत्तर टरे
जय विज्ञानी देवा
जय जय हे कम्प्यूटर देवा|

ऋता शेखर मधु