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शनिवार, 7 जनवरी 2012

६.अहिल्या की श्राप-मुक्ति- ऋता की कविता में


आज मैं श्रीरामकथा की छठी कविता लेकर प्रस्तुत हूँ| आपकी छोटी से छोटी प्रतिक्रिया भी मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं और मुझमें नए उत्साह का संचार करती है|
अहिल्या की श्राप-मुक्ति
मान रखा मुनि विश्वामित्र का, यज्ञ पूर्ण करवाए दोऊ भाई|
सूर्यवंशी कुल की मर्यादा रखी, क्षत्रिय धर्म उन्होंने निभाई||

सर्व कार्य जब हो गए पूर्ण, विप्र  आनन्दित  हुए बहुत|
वापस आए निज आश्रम को, राम और लक्ष्मण सहित||

ऋषि नित पौराणिक कथा सुनाते, राम मन ही मन मुस्काते|
अन्तर्यामी  प्रभु   की लीला, विश्वामित्र  भी समझ न पाते||

सुअवसर देख एक दिन ऋषि ने, जनकपुरी का नाम लिया|
धनुष यज्ञ का वृतांत सुना, राजकुमारों  को  मोह  लिया||

चले  दशरथनंदन  संग  गुरू  के, पथ में मिला आश्रम सुनसान|
न खग, न हिरण, न कोई जन्तु, बस वहाँ पड़ा था एक पाषाण||

राम बहुत अचंभित हो गए, गुरू से प्रकट की अपनी जिज्ञासा|
उस पाषाण की कथा सुना, गुरू  बताए  शिला  की अभिलाषा||

एक  थे  ऋषि  गौतम, परिणीता अहिल्या थी मानिनी|
पतिव्रता थी, साथ ही थी अनुपम सौन्दर्य की स्वामिनी||

इन्द्रदेव की नजर फिसली, सुन्दरता पर हो गए मोहित|
अभिलाषा हुई उन्हें पाने की, सोच न पाए हित-अनहित||

एक   प्रातः गौतम  गए, करने  को  स्नान|
मित्र ही धोखा दे देंगे, इसका नहीं था भान||

गौतम का रूप धरा इन्द्र ने, ऋषि-पत्नी पहचान नहीं पाई|
विश्वासघात  किया  देवराज  ने, पतिव्रता ने धोखा खाई||

वापस लौटते हुए गौतम ने, निज रूप में देखा इन्द्र को|
पहचान कर विस्मित हुए, आखिर गए थे ये किधर को||

आश्रम में जो पग रखा, बात समझ में आ गई|
क्षुब्ध वह हुए बहुत, क्रोध ने  चरम सीमा पाई||

क्रोधित ऋषि ने आपा खोया, शिला बनने का दे दिया श्राप|
अहिल्या रोई,  गिड़गिड़ाई,  मुक्ति का मार्ग भी बताएँ आप||

क्रोध उतरा ऋषि पछताए, पर बचा नहीं था उपाय|
मुक्ति तो तभी मिलेगी, जब श्रीराम चरण-रज पाय||

गुरू ने राम को बतलाया, अहिल्या से हुई अनजाने इक भूल|
कृपा करें शापित शिला पर, दें स्व चरणों  की  पवित्र  धूल||

श्रीराम के शिला-स्पर्श से, हुई प्रकट तेजोमयी नारी|
पाकर रघुनाथ को सामने, मुँह  के  बोल  वह हारी||

नेत्रों से बह चली धार अश्रु की, रह न पाई वह खड़ी|
खुद को भाग्यवती माना, श्रीराम चरणों में गिर पड़ी||

धर धीर, जगतस्वामी को पहचाना, जिनकी दया से मुक्त हुई|
उनकी  कृपा  और  भक्ति  पाकर, मन ही मन वह तृप्त हुई||

कर जोड़ विमल वाणी में बोली,  हूँ तो मैं स्त्री अपवित्र|
प्रभु हैं सुखदाता, कृपानिधान, करते जग को सदा पवित्र||

भव को भयमुक्त कराने वाले, पड़ी हूँ मैं आपके चरण|
मेरी भी रक्षा करें, आ गई हूँ प्रभु, सिर्फ आपके शरण||

शाप दिया ऋषि गौतम ने , उसका  ही  तो  लाभ मिला|
उनके परम अनुग्रह से ही, प्रभु दर्शन कर मन मेरा खिला||

मैं बुद्धि से हूँ भोली, बस कृपा इतनी सी कीजिए|
मेरा मन रूपी भ्रमर
आपके चरण-रज रस-पान करे, वर यही तो दीजिए||

आई पवित्र गंगा प्रभु-चरण से, शिव  ने  मस्तक  पर  धार लिया|
ब्रह्मा भी पूजें चरण जिनके, उन चरणों के स्पर्श का सौभाग्य मिला||

परम आनन्द से पूरित होकर, अहिल्या स्वर्गलोक को गई|
श्राप वरदान साबित हुआ, बात यह  सिद्ध  कर गई||

ऋता शेखर मधु

12 टिप्‍पणियां:

  1. वाह बहुत सुन्दरता से प्रसंग का वर्णन किया………आनन्द आ गया।

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  2. सुअवसर देख एक दिन ऋषि ने, जनकपुरी का नाम लिया|
    धनुष यज्ञ का वृतांत सुना, राजकुमारों को मोह लिया||...एक सुन्दर दृश्य आँखों के आगे आ गया

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  3. बहुत सुन्दर आध्यात्मिक भक्ति रचना !

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  4. बहुत सशक्त अध्यात्मिक प्रस्तुति,मन की भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति
    भाव् भक्ति मय रचना ......
    WELCOME to--जिन्दगीं--

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  5. मधु जी समर्थक बन रहा हूँ आपभी बने खुशी होगी,...

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  6. पावन रामकथा की भक्तिमय अभिव्यक्ति।

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  7. aapto ek maha kavya likhne vali hain itna sunder prasang uthaya aur usko pyare pyare shbdon me likha sunder
    rachana

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  8. एक पावन और मन-भावन श्रृंखला संग्रहणीय रहेगी.

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