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बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

क्षितिज पे धरा ही है, फ़लक को झुका रही-अनुष्टुप छंद



किसी की बेबसी का तो,  मजाक न उड़ाइए|
न आप भी विधाता के,  निशाना बन जाइए|१|

सोच समझ के ही तो, उंगलियाँ उठाइए|
आपकी ओर भी हैं ये, इसे न भूल जाइए|२|

है उपदेश आसान,  सबने हँस के  दिए|
जो बात खुद पे आई, समंदर बहा दिए|३|

ज्ञान की ही पिपासा थी, कहनी कुछ बात थी|
'इटरनेट' देखा तो,   साहित्य का दरिया था|४|

लदे वृक्ष फलों से जो,   सदा ही वे झुके रहे||
क्षितिज पे धरा ही है, फ़लक को झुका रही|५|

ऋता शेखर 'मधु'

12 टिप्‍पणियां:

  1. सोच समझ के ही तो, उंगलियाँ उठाइए|
    आपकी ओर भी हैं ये, इसे न भूल जाइए|२|

    जी हाँ, गहरी बात लिए पंक्तियाँ

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  2. है उपदेश आसान, सबने हँस के दिए|
    जो बात खुद पे आई, समंदर बहा दिए|... आसान है बोलना , चलना तो कठिन हो जाता है :) थक जाता है आदमी !

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  3. है उपदेश आसान, सबने हँस के दिए|
    जो बात खुद पे आई, समंदर बहा दिए|३|………………सत्य कहती सार्थक प्रस्तुति।

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति,बेहतरीन रचना,...

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  5. सोच समझ के ही तो, उंगलियाँ उठाइए|
    आपकी ओर भी हैं ये, इसे न भूल जाइए|२|

    ....बिलकुल सच...बहुत गहन और सटीक प्रस्तुति..

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  6. गहरी बात कह दी... बहुत अच्छी प्रस्तुति,

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  7. सोच समझ के ही तो, उंगलियाँ उठाइए|
    आपकी ओर भी हैं ये, इसे न भूल जाइए|२|
    -यही समझ में आ जाय तो क्या बात है !

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  8. क्षितिज पे धरा ही है, फ़लक को झुका रही|५|

    बहुत सुंदर ।

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