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सोमवार, 7 मई 2012

कहानी-चिता की आग




शाम गहराने लगी थी.रजनी अपने कमरे में खड़ी खिड़की से दूर आकाश ताक रही थी.परिंदे अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे.उसने कमरे की बत्ती भी नहीं जलाई थी.शायद जलाना नहीं चाहती थी.मन की आँखें अँधेरे में ज्यादा स्पष्ट देख पाती हैं.जब से उसने पूर्णिमा से बातें की थी उसका मन किसी भी काम में नहीं लग रहा था.पूर्णिमा उसकी स्कूल की सहेली थी.दोनों के घर अगल बगल थे इसलिए एक दूसरे के घरों में भी आना जाना था.समय पर उनकी शादियाँ हुईं.विवाह के बाद कुछ दिनों तक चिट्ठियों से उनका सम्पर्क बना रहा.फिर वे अपनी गृहस्थियों में उलझ गईं और धीरे धीरे चिट्ठियों के आदान प्रदान कम होते गए.पिछले पंद्रह सालों से कोई सम्पर्क स्थापित नहीं हो पा रहा था क्योंकि उनके ठिकाने बदल चुके थे.

बच्चे बड़े हो चुके थे.रजनी की व्यस्तता कम हो गई थी.खाली समय का सदुपयोग करने के लिए उसने कंप्यूटर का सहारा लिया .नेट पर आते ही उसने फेसबुक पर सबसे पहले अपनी सहेली पूर्णिमा को खोजा.उसकी कोशिश कामयाब हुई और इस आधुनिक तकनीक के जरिए दोनों बिछुड़ी हुई सहेलियाँ मिलीं.एक दूसरे के मोबाइल नम्बर लिए गए.आज दोनों सहेलियों की जमकर बातें हुई थीं...अपने घर परिवार और बच्चों के बारे में ढेर सारी बातें.बातों के दौरान रजनी ने पूर्णिमा से उसकी बूआ के बारे में पूछा.पूर्णिमा एकदम से चुप हो गई.रजनी को यूँ लगा कि यह बात पूछकर उसने कोई बहुत बड़ी गल्ती कर दी हो.चूँकि वह पूर्णिमा के घर जाती थी और पूरे परिवार से उसे बहुत स्नेह मिलता था इसलिए उसने पूछा था.सबसे ज्यादा वह पूर्णिमा की बूआ को पसंद करती थी.बहुत ही हँसमुख और प्यार करने वाली थीं वह.

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने जो कुछ भी बताया वह अकल्पनीय था.बूआ की शादी रजनी के सामने ही हो चुकी थी.साँवली पर तीखे नैन नक्श वाली बूआ दुल्हन के रूप में बहुत आकर्षक लग रही थीं.हँसमुख चेहरे की शोभा देखते ही बन रही थी.बारात दरवाजे लगी तो दूल्हे का रूप भी खूब निखर रहा था.सब बूआ की किस्मत सराहने लगे.सब कुछ हँसी-खुशी सम्पन्न हो गया.डोली चढ़कर दुल्हन ससुराल चली गई अपना नया घर बसाने.ससुराल में नई दुल्हन का खूब स्वागत हुआ.सारे रस्मो-रिवाज़ निभाने के बाद बारी आई फूफाजी के दोस्तों से मिलने की.पूरा कमरा दोस्तों से भरा था.इतने सारे दोस्त...बूआ के तो हाथ पैर फूलने लगे.मित्तभाषी बूआ के लिए यह परीक्षा की घड़ी थी.उन्होंने एक बार नज़र उठाकर देखा,मित्रमंडली में महिला मित्र भी शामिल थीं.एक एक करके सबसे परिचय हुआ. देर रात तक हँसी ठहाकों का दौर चलता रहा.बूआ अपने आप में सिमटी रहीं.यह सीधी सादी भारतीय लड़की शायद फूफा जी को बहुत पसंद नहीं आई थी.धीरे धीरे सब विदा हो चुके थे.अब कमरे में सिर्फ एक मित्र बची थी.फूफाजी ने उससे बूआ का खास परिचय करवाया.उस लड़की मिताली ने फूफाजी को बाहर जाने का आदेश दिया.फिर वह हँस हँसकर बातें करने लगी.अपनी बातों से उसने बूआ का दिल जीत लिया था.उस वक्त निष्कपट बूआ को कहीं से भी यह आभास नहीं हुआ कि वह आसतीन का साँप बनने की तैयारी में थी.इस तरह बूआ को अपने विश्वास में लेकर आराम से घर में आने जाने लगी.घर की शांति भंग न हो इसलिए घरवाले चुप थे.घर में उसकी पसंद मायने रखती थी.सभी शौपिंग में वह बूआ के साथ होती थी.
जब पूर्णिमा यह सब बता रही थी तब रजनी के मन में एक स्वभाविक प्रश्न आया.उसने पूछा, तब दादी और तेरी माँ क्या कर रही थीं.पूर्णिमा ने बताया कि दादी और माँ ने बूआ को समझाने की कोशिश की थी लेकिन पता नहीं किस  कारण से वह चुप थीं.शायद असुरक्षा की भावना थी.या हो सकता है फूफाजी ने कुछ कहकर धमका दिया हो जो वह कहना नहीं चाहती थीं. उन्हे लगता था कि जब फूफाजी उसके साथ खुश हैं तो वह क्यों टाँग अड़ाए.उनकी हरकतें कहीं से भी अशोभनीय नहीं थीं.इसी तरह दिन बीत बीत रहे थे.समय के साथ साथ उनके माँ बनने के बारे में कानाफूसी शुरू हो गई थी.चार साल बीतने पर भी उनकी गोद खाली थी.मायके वालों ने डाक्टर से दिखाना शुरू किया.जाँच मे हर कुछ सही पाया गया.फिर शुरु हुआ तानों और अत्याचारों का सिलसिला.बूआ सब कुछ मौन रहकर सहने लगी.उन्हें मालूम था कि यदि सच बता दिया तो भूचाल आ जाएगा.फूफाजी ने उन्हें धोखे से वह दवा खिला दिया था जिससे वह सात आठ सालों तक वह माँ नहीं बन सकती थीं.और इस साजिश में वह मिताली शामिल थी...यह बात उन्हें बाद में पता चली.मायके वालों को वह दुखी नहीं करना चाहती थीं...वहाँ पर फूफा जी ने अपनी साफ सुथरी छवि बना के रखा थी.

यह सिर्फ एक नमूना है...जितनी बातें पूर्णिमा ने बताईं वह बातें लिखी जाएँ तो पढ़ने वालों के रोंगटे खड़े हो जाएँ,जिस पर बीती उसकी स्थिति तो सोच से भी परे है.

बूआ ने मुँह से कुछ नहीं कहा पर उनका शरीर दिन प्रतिदिन दुर्बल होता गया और एक दिन वे इस दुनिया के कड़वे अनुभवों को समेट कर विदा हो गईं.उस दिन हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी...श्मशान घाट पर फूफाजी को ही मुखाग्नि देनी थी.सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं.अचानक बगल की जलती चिता से एक चिंगारी उड़ी और बूआ की चिता की ओर बढ़ी. चिता धू धू कर जल उठी...फूफा जी देखते ही रह गए.
''इस तरह से बूआ ने मरने के बाद मुखाग्नि को अस्वीकार कर अपना मौन बदला ले लिया था...''यह कहते कहते पूर्णिमा इतनी जोर से रो उठी कि रजनी कुछ नहीं कह पाई.अभी भी वही बात और वही रुलाई उसके कानों में गूंज रही थी.

ऋता शेखर 'मधु'

14 टिप्‍पणियां:

  1. दिल भर आया......................

    बहुत सशक्त अंत है कहानी का....

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  2. मार्मिक ... बहुत ही प्रभावी है कहानी ... दिल में उतरती हुयी ...

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  3. सशक्त और मन को उद्वेलित कर गई ।

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  4. बहुत मार्मिक. और सशक्त कहानी...अंत बहुत ही प्रभावशाली है... बहुत सुन्दर.... ...

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  5. जाने कितनी चिताएं अस्वीकृति में जलती हैं .... आँखें भी शुष्क हो जाती हैं

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  6. अपनी इस सुन्दर रचना की चर्चा मंगलवार ८/५/१२/ को चर्चाकारा राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर देखिये आभार

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  7. मन से लिखी गयी गहरे भावों वाली कहानी बहुत अच्छी लगी, लिखी रहो.

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  8. बहुत मार्मिक .... मौन बदला .... अच्छी प्रस्तुति

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  9. बुआ इस कथा में एक प्रतीक है परम्परा में लिपटी औरत का सहते पिटते मिटते जाना गनीमत है आज की औरत अब बदलने लगी है .सहना माने जुरम को बढ़ावा देना है शह देना है . समय के साथ तलछट छट जाता है सत रह जाता है परिवर्तन ही शाश्वत है .कहानी अपने लघु कलेवर में एक बड़ी टीस छोड़ जाती है कोसती हुई परम्परा को .. .कृपया यहाँ भी पधारें -http://veerubhai1947.blogspot.in/
    मंगलवार, 8 मई 2012
    गोली को मार गोली पियो अनार का रोजाना जूस

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  10. ''इस तरह से बूआ ने मरने के बाद मुखाग्नि को अस्वीकार कर अपना मौन बदला ले लिया था...''
    इस कहानी ने मन को झकझोर कर रख दिया|गलत को किसी न किसी विधि हारना ही प‌‌ड़ता है|

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