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बुधवार, 30 मई 2012

एक कहानी यह भी...




एक कहानी यह भी...
हिन्दी दैनिकआजके शिक्षानामा से साभार(२८ मई-१२)
लेखक- डॉ लक्ष्मीकांत सजल
वरिष्ठ पत्रकार एवं शिक्षा प्रतिनिधि
हिन्दी दैनिकआज,पटना |

उस दिन कम्पीटीशन था मेढकों के बीच.सो बड़ी संख्या में मेढक पहुँचे थे.पास- पड़ोस के गढ्ढे तालाब से.और दूर दराज के गढ्ढे- तालाबों से भी. फुदक फुदक कर चलते हुए.उनमें भाँति- भाँति के मेढक थे.छोटे- छोटे मेढक, मद्धम कद के मेढक और ढाबुस भी.सभी मेढक जमा हुए पहाड़ी के नीचे तलहटी में.कुछ तो कम्पीटीशन में हिस्सा लेने पहुँचे थे, बाकी दर्शक बन तमाशा देखने. कम्पीटीशन शुरू होने में देरी थी इसलिए सभी उछल-कूद कर रहे थे.बच्चे उधम मचा रहे थे टर्र-टर्र कर. टर्र-टर्र तो बुजुर्ग भी कर रहे थे लेकिन बच्चों को शांत करने के लिए.कम्पीटीशन में हिस्सा लेने वालों की टरटराहट अलग किस्म की थी इसलिए कि वे काफी जोश में थे.मेढकों की टरटराहट से ऐसा लग रहा था जैसे वे बारिश के इन्तेज़ार में हों.लेकिन उन्हें बारिश का इन्तेज़ार थोड़े ही था.उन्हें तो कम्पीटीशन शुरु होने का इन्तेज़ार था.मेढकों के पहाड़ पर चढ़ने का कम्पीटीशन, पहाड़ की चोटी पर पहुँचने का कम्पीटीशन .
खैर,नियत समय पर कम्पीटीशन शुरु हुआ.कम्पीटीशन में हिस्सा लेने वाले मेढक पहाड़ पर चढ़ने लगे फुदकते हुए.अब बाकी मेढक साँस रोकर कर उन्हे देख रहे थे,फुदक-फुदक कर पहाड़ की ऊँचाइयाँ तय करते हुए.कुछ तो चढ़ने के साथ ही लुढ़क कर नीचे आ गिरे.जो चढ़ते जा रहे थे, उन्हें नीचे से शाबाशियाँ मिल रही थीं.प्रशंसा के स्वर मिल रहे थे.जहाँ किसी और गढ्ढे या तालाब का मेढक आगे निकलता, नीचे जमा दूसरे गढ्ढे या तालाब के मेढक उदास हो जाते.समय गुजरता गया और मेढक नीचे गिरते गए.धीरे-धीरे तमाम मेढक नीचे आ गिरे.अब सिर्फ एक मेढक बचा था.वह फुदक-फुदक कर आगे बढ़ा जा रहा था,ऊँचाइयाँ तय करते हुए.उसके सामने उसका लक्ष्य था.नीचे जमा तमाम मेढक टकटकी लगाए उसे ही देख रहे थे, यह देखने के लिए कि वह कि वह अपने लक्ष्य तक पहुँचता है या नहीं.नीचे से सभी उसका उत्साह बढ़ा रहे थे.आखिरकार उसने अपने लक्ष्य को छू ही लिया.पहाड़ की चोटी पर पहुँचते ही उसने दोनों हाथ हिलाए, विजेता की मुद्रा में.नीचे जमा सभी मेढक खुशी के मारे उछल पड़े.
वह नीचे उतरा तो उसे फूलमालाओं से लाद दिया गया.हर गढ्ढे तालाब के मेढक उसे बधाई देने लगे.जो छोटी नदियों से आए थे वे भी बधाई देने लगे.लेकिन वह तो निर्विकार था.इस तरह कि जैसे सुन ही नहीं रहा हो.बाद में पता चला कि वह मेढक बहरा था.
यह कहानी संपादक जी ने तब सुनाई जब उनकी पुस्तक रिलीज हो रही थी.सो कहानी का सार यह है कि अगर वह मेढक बहरा नहीं होता तो अपने लक्ष्य तक नहीं पहुँच पाता.बाकी मेढकों की तरह वह भी नीचे आ गिरा होता, अपने साथियों से आलोचना या प्रशंसा के स्वर सुनकर.लक्ष्य को वही हासिल कर सकता है जिसे आलोचना या प्रशंसा की चिंता न हो. उसे चिन्ता हो तो सिर्फ अपने लक्ष्य की.  


प्रस्तुति- ऋता शेखर 'मधु'

8 टिप्‍पणियां:

  1. लक्ष्य को वही हासिल कर सकता है जिसे आलोचना या प्रशंसा की चिंता न हो. उसे चिन्ता हो तो सिर्फ अपने लक्ष्य की... बिल्कुल सही निष्कर्ष

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  2. जिसे आलोचना या प्रशंसा की चिंता न हो. चिन्ता हो तो सिर्फ अपने लक्ष्य की,,,,,, प्रेरक सुंदर प्रस्तुति,,,,,

    RECENT POST ,,,,, काव्यान्जलि ,,,,, ऐ हवा महक ले आ,,,,,

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  3. प्रेरणात्‍मक प्रस्‍तुति ... आभार ।

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  4. अच्छी सीख देती प्रेरक प्रस्तुति...

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  5. अच्छी सीख देती प्रेरक प्रस्तुति...

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