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गुरुवार, 6 सितंबर 2012

दूजा धन लागे भला,खरच किया बिन मोह-दोहा ग़ज़ल




माता-पिता वृद्ध हुए, पुत्र समंदर-पार
बना आज दस्तूर यही, छिन जाता आधार|

बरगद की छाया बने, छौने पर दिन-रात
कुलाँचे भर भाग चला, भूला ममता-प्यार|

बूढ़ी काया है विकल, लगी द्वार पर आँख
कुल-दीपक के वास्ते, देखे पंथ निहार|

दूजा धन लागे भला, खरच किया बिन मोह
निज- धन पर गाँठ सत्तर, माया मोह अपार|

तन्हा राहों पर मिले, चन्द कदम का साथ
बिन अहं के साथ चलो, यह जीवन का सार|

ऋता शेखर मधु

13 टिप्‍पणियां:

  1. तन्हा राहों पर मिले, चन्द कदम का साथ
    बिन अहं के साथ चलो, यह जीवन का सार|

    बहुत सुंदर पंक्तियाँ रची हैं.....

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  2. बहुत सुन्दर ऋता जी....
    आत्मसात कर लिए सभी दोहे..

    सस्नेह
    अनु

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  3. तन्हा राहों पर मिले, चन्द कदम का साथ
    बिन अहं के साथ चलो, यह जीवन का सार|
    बहुत ही बढिया ।

    जवाब देंहटाएं
  4. मर्म स्पर्शी -
    जैसे मेरे लिए है -

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (08-09-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

    जवाब देंहटाएं
  6. तन्हा राहों पर मिले, चन्द कदम का साथ
    बिन अहं के साथ चलो, यह जीवन का सार|
    सही कहा आपने..
    बहुत बढ़िया रचना,...
    :-)

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  7. बूढ़ी काया है विकल, लगी द्वार पर आँख
    कुल-दीपक के वास्ते, देखे पंथ निहार|
    नै प्रयोग भूमि खंगाली है ,दोहा गजल रुदाली है .

    शुक्रवार, 7 सितम्बर 2012
    शब्दार्थ ,व्याप्ति और विस्तार :काइरोप्रेक्टिक

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  8. बहुत सुंदर !
    बिन अहं के साथ चलना
    कितना मुश्किल हो जाता है
    चारों और अहं का झंडा
    जब लहराता है
    खुदद का सोया अहं ऎसे
    में उठ के जाग जाता है !

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  9. बूढ़ी काया है विकल, लगी द्वार पर आँख
    कुल-दीपक के वास्ते, देखे पंथ निहार..

    सच है ... ऑंखें तो माँ बाप की द्वार पे ही लगी रहती हैं ... पर कई बार कुल दीपक मद में भूल जाते हैं ... सार्थक लेखन ...

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