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शनिवार, 22 दिसंबर 2012

मेरी न्यायपालिका




जीवन के कुरुक्षेत्र में
दुविधा के क्षणों में
जब पार्थ बन जाती हूँ
कोई भी होता नहीं
ज्ञान कोई देता नहीं
कृष्ण कोई बनता नहीं
तब अपने मानस पटल पर
अपनी गीता खुद लिखती हूँ|

जब लम्हे विरोधी बन जाते
विशाल सागर में
लहरों पर डूबती उतराती
मरुस्थल की गर्म रेत पर चलती
क्रोध इर्ष्या खुशी गम
मस्तिष्क की परतों पर सोई
सभी संवेदनाओं को महसूसती
आज्ञाकारिणी बनी
किसी का सहारा
किसी का संबल बनती
खुद के लिए वनवास चुनती
अपनी रामायण रचती हूँ|

कभी निर्दोष होकर भी
कठघरे में अपराथी बनी
अपने ही तर्क-वितर्क से
अपनी वकील बनी
अंतरात्मा को जज बनाती हूँ
और उसके किए हर फैसले को
दिल से स्वीकार करती
अपनी न्यायपालिका
खुद बनती हूँ|

ऋता शेखर मधु

7 टिप्‍पणियां:

  1. अंतरआत्मा की बात ही सही होगी...
    कोमल भाव लिए रचना...

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  2. कृष्ण कोई बनता नहीं
    तब अपने मानस पटल पर
    अपनी गीता खुद लिखती हूँ|

    बहुत खूब

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  3. बहुत सुन्‍दर अभिव्‍यक्‍त किया है आपने सामयिक चिंतन को, धन्‍यवाद.

    आरंभ : चोर ले मोटरा उतियइल

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  4. अपने आप से ही लड़ना पड़ता है ... बहस ओर न्याय भी अपने आप ही करना है आज के कुरुक्षेत्र में ... उद्वेलित करती रचना ...

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  5. गीता खुद लिखी जाये तो ही उस सार से कृष्ण की छवि उभरती है ....

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  6. अंतरात्मा को जज बनाती हूँ
    और उसके किए हर फैसले को
    दिल से स्वीकार करती
    अपनी न्यायपालिका
    खुद बनती हूँ|
    सशक्‍त भाव संयोजित किये हैं आपने ... इस अभिव्‍यक्ति में
    सादर

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