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शनिवार, 9 नवंबर 2013

कटीली बेड़ियाँ


कई कटीली बेड़ियाँ हैं धर्म की और जात की
जीवन के शतरंज पर शह की और मात की
खिलखिलाते बहार पर निर्दयी तुषारपात की
भोले भाले मेमनों पर शेर के आघात की
इर्ष्या के भाव से जुटे हुए प्रतिघात की
सिसकियों में डूबी बेबस से हालात की
कोख में दम तोड़ती निरीह कन्या जात की
धन और मेधा में हो रहे पक्षपात की
कुर्सियों की होड़ में हो रही मुलाकात की
तेरी मेरी, मेरी तेरी के झगड़ों जैसी बात की

तोड़ना है बेड़ियों को सुकर्मों की तलवार से
खेना है देश की नइया सुविचारों की पतवार से
परवाह कभी करें नहीं पग लहुलुहान जो हो जाएँ
अविचल अडिग चाल से पुष्प राहों पे बो जाएँ |
....................ऋता

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर विचार .
    अति सुन्दर रचना....
    :-)

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  2. बिलकुल सच है कितनी ही बेड़ियाँ हैं इन सब से मुक्त होना ही होगा |

    जवाब देंहटाएं
  3. तोड़ना है बेड़ियों को सुकर्मों की तलवार से
    खेना है देश की नइया सुविचारों की पतवार से
    परवाह कभी करें नहीं पग लहुलुहान जो हो जाएँ
    अविचल अडिग चाल से पुष्प राहों पे बो जाएँ |
    sunder likha hai aur sach bhi
    rachana

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