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गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

तुम सृष्टि...


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तुम सृष्टि...

नम्रता से झुकती हुई
प्यार का सहारा लिए

मौली सी पावन
धरा से धैर्य लेकर
सतत बढ़ने का संदेश
अक्षर में मौलिमणि
ऊँ का तत्व लिए
वक्त की बंजारन
सौन्दर्य का दुलार लेकर
गुलमोहर जैसी जिजीविषा में
धरती पर
'मै' और 'आप' से परे
दुआओं के मनुहार में
तन्हा सागर की
आह और गम के साथ
अपार संवेदना और
मनुष्यता का
संतोष लिए
मानवता से जिओ|
खुशी के अवगुंठन में
विरह भी चमकेगा
और एक दिन तुम
जरूर कंचन बन
निखर उठोगे

ठूँठ का भ्रम
मन का स्वच्छंद गुंजन
आशा का मंतव्य समझ
रुहानी धड़कन में
लावणय से भरी
शरारत का स्पर्श
सच की ख्वाहिश से
मंजिल की ओर बढ़ती
हिमालय सी प्रखर
सदा वात्सल्य से पूरित
हमेशा प्रेममयी रहो
तुम सृष्टि
ऋता शेखर 'मधु''


फेसबुक पर आ० रश्मिप्रभा दी द्वारा एकत्रित शब्दों से रचित कविता...आभार रश्मि दी|

3 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (21-02-2015) को "ब्लागर होने का प्रमाणपत्र" (चर्चा अंक-1896) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह!! बहुत सुन्दर कविता है दीदी!

    जवाब देंहटाएं

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