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शुक्रवार, 15 मई 2015

धरा संपदा (गीत)



धरा संपदा (गीत)
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आज ब्रम्हांड है देख रहा 
अपनी ही तस्वीर
उमड़ घुमड़ कर आए बादल
गगन है बे-नजीर
वसुधा के आँचल में बिखरी
हरियाली अनमोल
यही बसे हैं प्राण हमारे
मनुज समझ ले मोल
नहीं रौंद तू अपनी धरती
बना न इसे हकीर
सुखदायी है पवन झकोरे
झूमे डाली पात
ले कुल्हाड़ी क्यूँ जाता है
करने को आघात
नहीं यहाँ कुछ तेरा मेरा
बनना नहीं अधीर
पर्वत के अंतस से फूटी
पावन गंगा धार
गंदला जो करने चला तू
भव कैसे हो पार
ये है अनुपम धरा संपदा
समझो इसकी पीर
रक्षा कर लें हम जो इसकी
बन जाए जागीर
*ऋता शेखर 'मधु'*

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-05-2015) को "झुकी पलकें...हिन्दी-चीनी भाई-भाई" {चर्चा अंक - 1977} पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

    जवाब देंहटाएं

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