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शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

पतझर


मनहरण घनाक्षरी...
पत्र विहीन पेड़ की उजड़ी हुई डाल को
दया भाव से कभी भी मन में न आँकिए
यहीं पर के नीड़ में अवतरित पंख हैं
उड़ रहे परिंदों में किरन भी टाँकिए
इसने भी तो जिया है हरे पात फूल फल
आज अस्त मौन बीच चुपके से झाँकिये
फिर बसंत आएगा किसलय भी फूटेंगे
पतझर में भले ही रेत सूखे फाँकिये

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रस्तुति ।

    मेरी २००वीं पोस्ट में पधारें-

    "माँ सरस्वती"

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13-02-2016) को "माँ सरस्वती-नैसर्गिक शृंगार" (चर्चा अंक-2251) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    बसन्त पंञ्चमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. फिर बसंत आएगा किसलय भी फूटेंगे
    पतझर में भले ही रेत सूखे फाँकिये।... बहुत अच्छी। वाह!
    मेरे ब्लॉग पर पधारें..
    अब खून भी बहता नहीं, पर जख्म भी बढते गये,
    और दर्द शायरी में , उतरता चला गया .........click on http://manishpratapmpsy.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  4. उजड गये पंक्षीयो के आशियाने 'वागो मे पतझड़ आया ।
    Seetamni. blogspot. in

    जवाब देंहटाएं

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