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सोमवार, 13 जून 2016

नया दरवाजा-लघुकथा

 नया दरवाजा--

तिरंगे में लिपटे शहीद पति के शव के पास वह पथराई आँखों से खड़ी थी|
'' अभी हाथों की मेंहदी भी न छूटी और ये दिन देखने पड़े|''
''पहाड़ सी जिन्दगी अकेले कैसे काटेगी |''
''इसका दूसरा ब्याह कर देना चाहिए|''
''देखो तो, एक बूँद आँसू भी नहीं है आँखों में|''
''किस्मत की बुलंद होती तो यूँ न विधवा हो जाती|''
''अब सासरे में खटते हुए जीवन काटेगी बेचारी|''
''मायके चले जाना चाहिए|''
''नहीं, चार दिनों की आवभगत के बाद बोझ लगेगी|''
यह सब बातें उसे कहीं दूर से आती महसूस हो रही थीं क्योंकि उस वक्त उसका मस्तिष्क चुपचाप कुछ निर्णय ले रहा था| 
अग्नि संस्कार के बाद वह धीरे धीरे चलकर सेना के उच्च पदाधिकारी के पास अपने चूड़ी विहीन हाथों को जोड़कर खड़ी हो गई|
''सर, मुझे फौज में भरती होना है|''
उस सख्त जाँबाज ऑफिसर की नम आँखें उसके सम्मान में झुक गईं|
एक क्षण को नवविवाहिता विधवा ने महसूस किया कि उसका बहादुर पति कानों में कह रहा था - 
''समाज द्वारा तय किए गए सारे दरवाजे को बंद करके नया दरवाजा खोला है तुमने| मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं|''
ऋता शेखर 'मधु'

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