पृष्ठ

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

जमाना हर किसी को तोलता है


शराफ़त से सभी को जोड़ता है
किसी खुदग़र्ज से वो भी अड़ा है

न कोई बच सका है आइने से
जमाना हर किसी को तोलता है

नदी को बाँध लेते हैं किनारे
यही तहज़ीब की परिकल्पना है

बिखरती पत्तियाँ भी पतझरों में
दुखों के सिलसिले में क्या नया है

नजरअंदाज ना करना कभी भी
बड़ों में अनुभवों का मशवरा है

दिलों में है नहीं बाकी मुहब्बत
*कोई आहट न कोई बोलता है*

--ऋता शेखर 'मधु'

1222/ 1222/ 122

काफ़िया- आ

रदीफ़-है

1 टिप्पणी:

आपकी टिप्पणियाँ उत्साहवर्धन करती है...कृपया इससे वंचित न करें...आभार !!!