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शुक्रवार, 30 जून 2017

आ, अब लौट चलें...

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कहते हैं जीवन में कभी न कभी हम सब उन सभी चीजों से आकर्षित हो जाते हैं जो सहज उपलब्ध हो| जहाँ वाहवाही मिले वहाँ बार बार जाने की इच्छा होती है| त्वरित मिली प्रतिक्रियाएँ लुभाने लगती हैं और हम भूल जाते हैं उस पुश्तैनी मकान को जहाँ हमने बचपन गुजारा था| कुछ दिनों की चमक दमक के बाद पुराने संगी साथी याद आने लगते हैं और दिल बार बार कहने लगता है...आ , अब लौट चलें...या फिर...ओ साथी रे, तेरे बिना भी क्या जीना...
ऐसा ही कुछ हुआ हम सभी ब्लॉगर्स के साथ...जब नेट की दुनिया में हमने कदम रखा तो मन के भीतर उमड़ते घुमड़ते विचारों को लिखने के लिए एक डायरी मिल गई ब्लॉग के रूप में| ब्लॉग पर एक सुविधा थी फौलोवर बनने की...तो जिनकी पोस्ट पसंद आने लगी उस ब्लॉग को फौलो करने लगे| जब भी उस ब्लॉग पर नई पोस्ट आती हमें सूचना मिल जाती और हम वहाँ टहल आते| एकाध कमेंट भी डाल देते और फिर जाकर देखते कि उन ब्लॉगर महोदय/ महोदया ने रेस्पॉंस दिया या नहीं| हमारे ब्लॉग पर भी लोग आने लगे और हम खुद को लेखिका समझने की भूल कर बैठेः)
कुछ ब्लॉग, एग्रीगेटर का काम करते और हमलोगों की जो पोस्ट उन्हें अच्छी लगती उसका लिंक एक स्थान पर इकट्ठा कर के पाठकों तक पहुँचाते| उनमें "चर्चा मंच" और "हलचल" उन दिनों प्रमुख हुआ करते थे| इससे page view भी बढ़ता और रचनाएँ ज्यादा से ज्यादा लोगों तक चली जातीं| उस समय अच्छा से अच्छा लिखने की तीव्र लालसा रहती और सच कहें तो उस समय जो लिखी वह फिर नहीं लिख पाई| हम, बच्चों को अक्सर यह कहते हैं कि किसी भी चीज की लत बुरी होती है| पर जब बात खुद पर आई तो फेसबुक की लत लगने लगी और चाह कर भी हम उस लालसा को छोड़ नहीं पाए और रोजाना अपना कीमती वक्त फेसबुक को देने लगे इससे रचनकर्म पर बहुत प्रभाव पड़ा| जो भी विचार मन में आया वह मन की कोठरी में कैद न रहकर फेसबुक स्टेटस बनने लगा| जब हमने फेसबुक अकाउंट खोला तो जिन ब्लॉगर मित्रों को जानते थे उन्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दिया| छोटी कविताएँ पोस्ट करने लगे| फिर मित्रता अनुरोध आने लगे तो फटाफट स्वीकार भी की| लेकिन क्षेत्र कोई भी हो, कुछ खट्टे मीठे अनुभव भी हुए जिसे इग्नोर किया| व्हाट्स एप ने रही सही कसर पूरी की और सभी उसकी गिरफ्त में आने लगे| सबके पास मोबाइल और सोशल मिडिया का जुड़ाव बढ़ा| जहाँ पहले ब्लॉगर्स महीने में ज्यादा से ज्यादा पोस्ट डालने के लिए श्रम करते वहाँ अब महीनों तक इधर झाँकना भी बन्द कर दिया सबने| ब्लॉगर साथी फेसबुक पर दिखने लगे और हमारा ब्लॉग भूतबँगला बनने लगा |
एक दिन बुद्धत्व जैसा कुछ ज्ञान मिला तब लगा कि फेसबुक चौराहा है और ब्लॉग सुरक्षित घर जैसा| इधर कुछ महीने पहले से हमने पोस्ट फिर से डालना शुरु किया| तीन चार पोस्ट आकर शिड्यूल कर जाते जो समय समय पर स्वयम् प्रकाशित हो जाते| पहले जो एग्रीगेटर हमारी पोस्ट ले जाते उन्हे धन्यवाद देने जरूर जाते| बाद में उसमें भी सुस्ती होने लगी|
तो दोस्तो, फेसबुक के द्वारा मित्रता कायम रखें पर ब्लॉगिंग की ओर भी ध्यान दें| सार्थक बाते यहीं मिलेंगी|
पोस्ट लिखें...दूसरों की पोस्ट पर भी जाएँ...यहाँ लाइक का ऑप्शन तो नहीं है पर टिप्पणी तो कर ही सकते|
ब्लॉग पोस्ट को मनचाहा सजाएँ और लगाएँ| एक आह्वान था कि 1 जुलाई से सबके कदम पुनः ब्लॉग की ओर मुड़ें| इस आह्वान का मैं तहेदिल से स्वागत करती हूँ और समय प्रबंधन भी करना होगा कि कोई भी स्थान छूटे नहीं|
ब्लॉगर ऋता

गुरुवार, 22 जून 2017

यादें हरसिंगार हों

दोहे 
 1
दादी अम्मी टोकते, टोकें अब्बूजान
लगा सोलवां साल अब, आफत में है जान
2
महँगाई की मार से बिलख रहा इंसान
जीवनयापन के लिए आफत में है जान

 3
इधर उधर क्या ढूँढता, सब कुछ तेरे पास
नारियल के बीच बसी, मीठी मीठी प्यास

 4
यादें हरसिंगार हों, वादे गेंदा फूल
आस बने सूरजमुखी, कहाँ टिके फिर शूल
5
कड़ी धूप की लालिमा दिल में है आबाद
गर्मी में आती सदा गुलमोहर की याद
6
चुप रहना अद्भुत कला, जान न पाये आप
मनमोहन से सीख कर, मन में ही करिये जाप ऋता
7
 हृदय पुष्प को खोलकर, बोले अपना हाल
बिन गुलाल के मैं सखी, हुई शर्म से लाल
8 गुणीजनों के साथ हों, जब अच्छे संवाद
समझो माटी को मिला, उर्वरता का खाद
9
 नित प्रातः हरि नाम से, दिन को मिले मिठास
थाली को ज्यों गुड़ मिले, भोजन बनता खास
10
 कहो कौन किसके लिए जग में रोता यार
अपने अपने स्वार्थ में जीता है संसार
11
निज गुण के जो हैं धनी, झेलें नहीं अभाव
खुद से वह रखते परे, दूसरों का प्रभाव
-ऋता
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कुण्डलिया ...

सावन आया झूमकर, नाचे है मन मोर
नभ में बादल घूमते, खूब मचाते शोर
खूब मचाते शोर, गीत खुशियों के गाते
तितली भँवरे बाग़, हृदय को हैं हुलसाते
मीठे झरनों का राग, लगे है सुन्दर पावन
नाचे है मन मोर, झूमकर आया सावन
-ऋता

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 हाइकु-

वृक्ष सम्पदा
हर मनु के नाम
एक हो वृक्ष

अश्व लेखनी
सरकारी कागज
दौड़ते अश्व
ऋता शेखर 'मधु'


रविवार, 18 जून 2017

प्रतिबिम्ब--कुछ भाव कुछ क्षणिकाएँ

बँधे हाथ

अपने वतन के वास्ते
गुलमोहर सा प्यार तुम्हारा
अनुशासन के कदम ताल पर
केसरिया श्रृंगार तुम्हारा
 

पत्थर बाजों की बस्ती में
जीना है दुश्वार तुम्हारा
चोट सहो तुम सीने पर
पर कचनारी हो वार तुम्हारा

हा! कैसा है सन्देश देश का
चुप रहकर शोले पी लेना
उन आतंकी की खातिर तुम
अपमानित होकर जी लेना।

अच्छी नहीं सहिष्णुता इतनी भी
रामलला को याद करो
कोमल मन की बगिया में
कंटक वन आबाद करो
-ऋता
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बुद्धत्व

मंजिल पर शून्य है
रे मन, सफ़र में ही रहा कर

संसार में
रोग क्यों है
शोक क्यों है
बुढ़ापा क्यों है
मृत्यु क्यों है
इस शाश्वत सत्य की खोज में
सिद्धार्थ को बुद्धत्व प्राप्त हुआ।
क्यों है...इसका उत्तर सहज नहीं
और यदि ये सब है ही
तो सहज स्वीकार्यता ही
संसार में बुद्धत्व पाने का सरल मार्ग है
ये मार्ग सरल होते हुए भी सहज नहीं
जीवन में हर मनुष्य इनकी खोज में है
मन का बूद्ध हो जाना भी
शाश्वत सत्य है।
-ऋता

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प्रतिबिम्ब
 
सागर भी है
तलैया भी
गगन का प्रतिबिम्ब
दोनों में समाया
अशांत लहरो में
गगन भी अशांत सा
तलैये के मौन में
महफूज़ चाँद सितारे
-ऋता
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एक सवाल

मनु,
तू कौन है, क्या है?
एक आकार
एक आत्मा
एक भाव
एक सोच
एक मन
एक यात्री
एक रास्ता
एक मंजिल
एक नागरिक
एक धर्म
एक मानवता
एक मोह
एक त्याग
एक अभिलाषा
एक लिप्सा
एक क्रोध
एक भाषा
एक जनक
एक सार
एक तत्व
एक प्रेम
एक विरह
एक भोग
एक विलास
एक क्रिया
एक प्रक्रिया
एक प्रशंसा
एक आलोचना
एक सत्यवादी
एक चापलूस
एक वक्ता
एक श्रोता
एक अभिव्यक्ति
एक पीर
एक हास्य
एक गंभीर

मनु: सुन ले
तू एक व्यक्तित्व हूँ
उपरोक्त सारे गुणों से लबरेज
प्रभु की अनुपम कृति है।

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उम्मीदें

उम्मीदें तो बीज हैं
उनकी अवस्था
सुसुप्त नहीं होती
बार बार अंकुरण
बार बार आघात
फिर भी कोंपल
झाँकने को आतुर
मुरझाने का सिलसिला
जाने कब तक चले
अंकुरण की प्रक्रिया
जारी रहती है
अनवरत
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 ये जरूरी नहीं कि हमारे शुभचिंतक सिर्फ हमारे अपने रिश्तेदार या मित्र ही हों...कई शुभचिंतक वो भी होते है जो राह चलते मिल जाते है...
जैसे जब आप ट्रेन में हो और गंतव्य के पास से गाडी धीरे धीरे गुजर रही हो तब उतरने की चेष्टा करते हुए किसी का टोक देना...
जब फ्लाइट में थोड़े हेवी सामन के साथ आप अकेले हों तब किसी का हाथ बढाकर आपका बैग उतार देना...
जब आप बेध्यानी में पटरी क्रॉस करके प्लेटफॉर्म पर आते हुए उधर से आ रही ट्रेन न देख पाएं हो तो पब्लिक का एक साथ चिल्ला देना...
जब आधे किलोमीटर की दूरी तय करवाकर ऑटो वाले का पैसा न लेना...
और भी बहुत कुछ जो याद रह जाता है और उन अजनबियों को मन बार बार धन्यवाद के साथ दुआएँ भी देता है। यदि आप किसी की मदद के लिए हाथ बढ़ाते है तो बदले में बहुत कुछ अर्जित कर लेते है।

आज उन सभी को धन्यवाद।

 


शुक्रवार, 16 जून 2017

संस्कारहीन

संस्कारहीन

' देखिए जी, लेन देन पर हम थोड़ा बात कर लें, फिर बात पक्की ही समझें| आपकी बेटी बहुत संस्कारी है और हमें ऐसी ही लड़की की जरूरत है,' लड़के के पिता ने रोब लेते हुए कहा|

'जी, आप जैसा कहैं हम अपनी हैसियत के अनुसार देने के लिए तैयार हैं,' मद्धिम आवाज थी लड़की के पिता की|

'समान तो जो आप अपनी लड़की को गृहस्थी जमाने के लिए देंगे वो तो देंगे ही| हमें कैश के रूप में दस लाख दे दें, बस| बारातियों का स्वागत तो आप अच्छे से करेंगे ही| हमारा घर भी बहुत संस्कारी है, बिटिया को कोई तकलीफ न होगी' लड़के के पिता की आवाज थी|

'अंकल' अचानक लड़की बोल पड़ी, 'आप जो दस लाख लेंगे उसमें से मेरे लिएआठ लाख के जेवर तो बनवाएँगे ही जो संस्कारी घर में चलता है|'

'संस्कारहीन लड़की, लेन देन की बात करती है' लड़के के पिता भड़क गए|

'अब मैं क्या बोलूँ संस्कारहीनता पर...'लड़की ने मुस्कुराकर कहा और कमरे से बाहर निकल गई|

--ऋता