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मंगलवार, 25 जुलाई 2017

फ्रेंडशिप बैंड-लघुकथा

प्रेरणा

डोर बेल बजते ही आशा ने दरवाजा खोला|
''हैप्पी फ्रेंडशिप डे" कहती हुई छह सात महिलाएँ अन्दर आ चुकी थीं||
''अरे यार, यूँ आँखें फाड़ फाड़ कर क्या देख रही है आशु डियर| माना कि हम तीस सालों के बाद मिल रहे किन्तु इतने तो न बदल गए कि एक दूसरे को पहचान ही न सकें''|
आशु डियर...ये कहने वाली तो उसकी एक ही दोस्त थी मंजरी जो उसे हमेशा आशा के बजाय आशु ही कहा करती थी| चश्मे के भीतर से झाँकती उसकी आँखों ने सिर्फ मंजरी को ही नहीं बल्कि स्कूल की सभी सहेलियों को पहचान लिया जो आई थीं| उसकी इच्छा हुई कि वह सबके गले से लग जाए और स्कूल के दिनों वाली चुलबुली आशा बन जाए किन्तु वह ऐसा नहीं कर सकी|  उसके उदासीन चेहरे को लखती हुई मंजरी ने सबसे कहा, ''अरे, तुम सब खड़ी क्यों हो, फ्रेंडशिपबैंड बाँधो उसे|"
हाँ हाँ कहती हुई सभी ने उसका हाथ खींचकर बैंड से भर दिया| आशा अचानक उनके गले लगकर फूटफूटकर रोने लगी| मंजरी ने इशारे से सबको चुप रहने को कहा और कुछ देर तक आशा को रोने दिया| थोड़ी देर बाद जब वह शांत हुई तो उसने पूछा, ''तुमलोगों को मेरी खबर कैसे मिली"
मंजरी ने शांति से बताया,'' समय के झंझावात में हम सभी खो गए थे| जब फेसबुक पर आई तो सभी सहेलियों को ढूँढना शुरू किया| रोमा, नेहा, पूजा, अनामिका, पुतुल, उर्मिला सभी मिल गईं, एक तू न मिली| एक दिन फेसबुक पर मैंने तेरे भाई वीरेंद्र को देखा| उनसे ही पूछा तेरे बारे में|शादी होते की पति की मृत्यु होने से ससुराल वाले तुझे कितना भी मनहूस कहें , तू तो हम सबकी वही प्यारी चहकने वाली आशू है न| खुद को दुनिया से काटकर तू सबको कितना दुखी कर रही यह मैंने तब जाना जब तेरे भाई के आँसूओं में देखा| आशू, चल न, वीरेन्द्र और भाभी, बच्चे तेरा इंन्तेजार कर रहे| सबसे पहले एक अच्छे से होटल में चलते हैं, फिर थोड़ी शॉपिंग करेंगे | '' स्कूल के दिनों में दोनों फास्ट फ्रेंड हुआ करती थीं | मंजरी का मन रखने के लिए आशा तैयार होने लगी| मंजरी ने उसे पर्स में चुपके से एक राखी रखते देख लिया|
''एक बात और है आशु, ये सफेद साड़ी क्यों|''
''एक विधवा...'' इसके आगे आशा कुछ कहती तभी मंजरी ने उसके मुख पर हाथ रख दिया|
''ना, ऐसे नहीं बोलते| औरतें ईश्वर की अनुपम कृति हैं| एक विधवा भी बेटी, बहन और माँ होती है| उनके लिए अपनी वेशभूषा बदल दे''|
''अभी आई'' कहकर आशा अन्दर गई| जब वापस लौटी तो उसने आसमानी रंग की सिल्क की साड़ी पहनी थी| माथे पर छोटी सी बिंदी और हाथों में साड़ी से मेल खाती दो दो चूड़ियाँ थीं|
''ये हुई न बात, जल्दी चल|''
ज्योंहि दोनो बाहर निकलीं भाई वीरेन्द्र को देखकर रुक गईं| वीरेंद्र की आँखों में मंजरी के लिए कृतज्ञता झलक रही थी|
--ऋता शेखर 'मधु'

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