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मंगलवार, 7 नवंबर 2017

पत्ते और फूल

पत्ते और फूल

दोनों संस्कारी थे। दोनों पढ़े लिखे थे। दोनो अपने घर के बुजुर्गों के लिए समर्पित थे।दोनो बच्चों की भलाई के लिए उन्हें पर्याप्त समय देते थे। दोनो अपने अपने कार्यस्थल के कुशल अधिकारी थे। मानव स्वभाव के एक पहलू का अतिरेक उनकी अच्छाइयों के ऊपर काली कम्बल डाल देता। अपनी अपनी बातों के ऊपर डटे रहने की उनकी आदत कई बार भीषण बहस का रूप धारण कर लेती जिस कारण माहौल सहम जाता घर का। घर के बुजुर्ग और बच्चे मौन होकर दुबके हुए से दिखाई देते।
उस दिन उनकी छुट्टी थी। किसी बात पर बहस जारी थी।अचानक जोर की आँधी चलने लगी। गरिमा ने घर की खिड़कियाँ बंद कर दीं किन्तु आंधियों का शोर तब भी दरवाजों को बेधकर अंदर आ रहा था। विवेक भी अपने कमरे की खिड़की से आंधियों का जायजा ले रहे थे।
जब आँधियाँ थम गईं तो गरिमा ने चाय बनाई। एक कप विवेक को थमा कर खुद बालकनी में खड़ी हो गई।
विवेक भी कप लिए वहीं पर आ गए।
पीछे छठी क्लास में पढ़ने वाली छोटी बबली भी आ गई।
" ममा, ये आँधियाँ शोर क्यों करती हैं।"
" जब हवाएँ खुद पर काबू नहीं रख पातीं तो उनके आवेग शोर का रूप धारण कर लेते हैं। "
विवेक ने बबली के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
" हाँ, पापा, मैंने भी देखा कि पेड़ की डालें एक दूसरे से खूब टकरा रही थी", बबली ने बालसुलभ बात कही।
" हाँ, अब देखो, दोनो डालें धीरे धीरे हिलकर कितनी अच्छी हवा दे रही," इस बार गरिमा ने उत्तर दिया।
"किन्तु उनके टकराने से पुराने पत्ते और फूल जमीन पर गिर गए न।"
इसका जवाब दोनो में किसी ने नहीं दिया।
-ऋता शेखर मधु

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