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गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

कोमल घरौंदे रेत के वो, टूटकर बिखरे रहे-हरिगीतिका

नौका समय की जब बनी वो, अनवरत बहने लगी |
मासूम बचपन की कहानी, प्यार से कहने लगी ||
कोमल घरौंदे रेत के वो, टूटकर बिखरे रहे |
हम तो वहीं पर आस बनकर, पुष्प में निखरे रहे ||1||

तरुणी परी बन खिलखिलाई, चूड़ियों में आ बसी |
अनुराग की वो प्रीत बनकर, रागिनी में जा बसी ||
वो बंसरी में बंदिनी थी, कृष्ण की राधा बनी |
नक्षत्र सत्रह में मिली वो, रात अनुराधा बनी ||2||

सजनी सजन को भा रहा अब, श्रावणी पावन पवन |
दौलत बना है तर्जनी में, वो अँगूठी का रतन ||
बुलबुल बनी पीहर गई वो, डाल पींगें झूलती |
‘’मेरा बसेरा है कहाँ अब’’, टीस को वो भूलती ||3||

नानी बनी, आया बुढ़ापा, लौट आया बचपना |
बढ़ती लकीरों में सजाई, नित नई अभिकल्पना ||
गुड़िया बना गुझिया पिरोती, और कहती थी कथा |
संसार में अनमोल बनना, ना झगड़ना अन्यथा ||4||
-ऋता शेखर ‘मधु’

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-12-2017) को
    "रंग जिंदगी के" (चर्चा अंक-2818)

    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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