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शनिवार, 14 अप्रैल 2018

उधम की परिणति

उधम की परिणति
शाम हो चली थी| हल्के अँधेरे अपने पाँव धीरे धीरे पसार रहे थे| मैं ऑफिस से लौट कर अपार्टमेंट की ओर बढ़ रहा था| पार्क में खेलता हुआ मेरा छह वर्षीय बेटा मुझे देखते ही मेरे पास आ गया| हम आगे बढ़ते जा रहे थे तभी रोने की आवाज़ आई| कौन रो रहा, यह देखने के लिए हम इमली के पेड़ वाले पार्क की ओर बढ़े| वहाँ बहुत बड़ा लोहे का पिंजरा था जिसके अन्दर तीन बड़े और दो नन्हें बन्दर कैद थे| वे ही बन्दर रो रहे थे और बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे| मुझे याद आया कि अपार्टमेंट की ओर से सुबह ही नोटिस आ चुका था कि अपने छोटे बच्चों को इमली पार्क में न जाने दें|
“पापा, इन बन्दरों को पिंजरे में क्यों बंद किया है|”

“ये सबको तंग करते थे बेटा| तुमने देखा था न कि गृह प्रवेश के दिन ये खिड़की से घुसकर पूजा के सारे केले उठाकर ले गए थे|”

“दादी ने कहा था कि हनुमान जी स्वयं आकर प्रसाद ग्रहण किये| तो ये तो भगवान हैं न |” बालमन बन्दरों को कैद में देखकर छटपटा रहा था| ”ये बन्दर शाम को यहाँ घूमते थे तो कितना अच्छा लगता था|”

“पर अब यहाँ हम मनुष्य रहेंगे तो वे कैसे रह सकते हैं,” मैंने बेटे की गाल थपथपाते हुए कहा|

“हम मनुष्य बहुत गंदे हैं पापा| उनके रहने के पेड़ काटकर अपना घर बना लिया| उनसे उनका घर छीन लिया| वे अपना घर खोजने आते हैं,” बेटे की बात मुझे भी आहत कर रही थी|

“उधम मचाएँगे तो यही होगा”, बात टालने के इरादे से मैंने कह दिया|

“दादी कहती हैं कि बच्चे भगवान का रूप होते हैं| मैं भी तो उधम मचाता हूँ तो क्या मुझे भी...”उसने अपना मुँह मेरे कंधे में छुपा लिया|

हर दिन सोने से पहले बिस्तर पर उधम मचाने वाला मेरा मासूम बेटा उस दिन चुपचाप सो गया और मैं शांत बिस्तर पर जाग रहा था|

-ऋता शेखर ‘मधु’
14/04/18
मौलिक, अप्रकाशित

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