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सोमवार, 10 सितंबर 2018

अनकहा हो दर्द तब लावा पिघलता है


रजनी छंद गीतिका

इस जगत में जो सभी से प्रेम करता है
वह तपिश में चाँदनी बनकर उतरता है

ईश से जो भी मिले स्वीकार कर लेना
आसरा के साथ ही विश्वास रहता है

कोंपलें उगती वहीं झरते जहाँ पत्ते
रात के ही गर्भ से सूरज निकलता है

हो समर्पण भाव हरसिंगार के जैसा
देखना कैसे वहाँ पर प्यार पलता है

शांत हो, एकाग्र हो, कहते यहाँ सारे
अनकहा हो दर्द तब लावा पिघलता है

मन बसे हैं भाव दोनों राम या रावण
राम को जो जीतता पल पल निखरता है

-ऋता शेखर मधु

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (12-09-2018) को "क्या हो गया है" (चर्चा अंक-3092 ) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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