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शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

मन के भीतर धैर्य हो, अधरों पर मुस्कान-कुंडलिया

जीवन यात्रा अनवरत, चली सांस के साथ |
मध्यम या फिर तीव्र गति, स्वप्न उठाती माथ ||
स्वप्न उठाती माथ, कभी रोती या हँसती |
करती जाती यत्न, राह से कभी न हटती|
पढ़ कर हर पग पाठ,'ऋता'' बनती है छात्रा|
चुक जाएगी सा़ंस, रुकेगी जीवन यात्रा||

जिनके हिय में हरि बसे, वे हैं साधु समान|
परहित को तत्पर रहें, लेकर के संज्ञान|| 
लेकर के संज्ञान, स्वयं आगे आ जाते |
भेदभाव को छोड़, सबको गले लगाते |
' मधु डूबी मझधार, सहारा बनते तिनके|
होते साधु समान, हृदय में हरि हैं जिनके ||'

ममता की जो खान है, घर की है वह जान |
बिन बोले सब कुछ सहे, त्यागे निज अरमान ||
त्यागे निज अरमान, उसे कहते हैं नारी |
बेलन, शिक्षा के साथ, जीतती दुनिया सारी ||
'मधु'को होता गर्व, देखकर उनकी क्षमता |
मन की वह मज़बूत, जोड़ती जाती ममता ||

माना जीवन -पथ नहीं, होता है आसान।
मन के भीतर धैर्य हो, अधरों पर मुस्कान।।
अधरों पर मुस्कान, राह को सरल बनाती,
खग -गुंजन के साथ, ऋचा वेदों की आती।।
भोर-निशा का राज, प्रकृति से हमने जाना।
पतझर संग बसन्त,राह जीवन की माना।

-ऋता शेखर 'मधु'





2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (08-12-2018) को "शहनाई का दर्द" (चर्चा अंक-3179) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत सुन्दर कुण्डलियाँ ऋता जी !

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