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शुक्रवार, 6 मार्च 2020

क्या जाता है- होलियाना मूड

आशावादी बात लिखो
लिखने में क्या जाता है

सुन्दर सेल्फ़ी चेंप दो
दिखने में क्या जाता है

गेहूँ की एक घून ही है
पिसने में क्या जाता है

तवा चढ़ी जो रोटियाँ
सिंकने में क्या जाता है

जमीर जमीर मत करो
बिकने में क्या जाता है

बहती है जब गर्म हवा
तपने में क्या जाता है


अक्षर अक्षर मंजरी
छपने में क्या जाता है

चाहे हो घर किराये का
टिकने में क्या जाता है

वादा है पाषाण नहीं
डिगने में क्या जाता है

हर सूरत को सुन्दर बोलो
कहने में क्या जाता है

हम तो पीले पात हुए
झरने में क्या जाता है

बात उतरी नहीं गले से
पढ़ने में क्या जाता है

चुटकुले बेकार हों
हँसने में क्या जाता है

रोजी रोटी चलने दो
थकने में क्या जाता है

फल पर पड़े रसायन हैं
पकने में क्या जाता है

बुढ्ढे हैं पर आँख भी है
तकने में क्या जाता है

तरुवर पर हैं फल लदे
झुकने में क्या जाता है

मैं अदना से दीपक हूँ
बुझने में क्या जाता है

कदम कदम पर बाड़ है
रुकने में क्या जाता है

हर सु नई उमंग है
रमने में क्या जाता है

मोजे बहुत पुराने हैं
फटने में क्या जाता है

नफरत हो या प्यार हो
बसने में क्या जाता है

----ऋता

होलियाना मूड में पढ़िए और मुस्कुरा दीजिये 😄

मंगलवार, 3 मार्च 2020

ओ मधुरमास

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ओ मधुरमास
आओ ढूँढने चलें
प्यारे बसंत को

पवन सुहानी मन भायी
मिली नहीं फूलों की बगिया
स्वर कोयल के कर्ण बसे
छुपी रही खटमिट्ठी अमिया
यादों के पट खोल सखे
ले उतार खुशियाँ अनंत को

ओ कृष्ण-रास
ता-थइया करवाओ
नर्तक बसंत को

मन देहरी पर जा सजी
भरी अँजुरी प्रीत रंगोली
मिलन विरह की तान लिए
प्रिय गीत में बसी है होली
कह सरसों से ले आएँ
तप में बैठे पीत संत को

ओ फाग- मास
सुर-सरित में बहाओ
गायक बसंत को

अँगना में जब दीप जले
पायल छनकाती भोर जगे
हँसी पाश में लिपट गयी
बोल भी बने हैं प्रेम पगे
कँगन परदे की ओट से
पुकार उठी है प्रिय कंत को

ओ नेह- आस
चतुर्दिक सुषमा भरो
प्रेमिल बसंत को

न तो बैर की झाड़ बढ़े
न नागफनी के अहाते हों
टपके छत रामदीन की
दूजे कर उसको छाते हों
रोप बीज सुविचारों के
करो सुवासित दिग्दिगंत को

ओ आम- खास
भरपूर रस से भरो
मीठे बसंत को
ऋता शेखर 'मधु'
यह रचना ख्यातिप्राप्त ई-पत्रिका अनुभूति पर प्रकाशित है|
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रविवार, 1 मार्च 2020

देसी आम - लघुकथा

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देसी आम

"आज मन बहुत उदास है प्रिया| अपना देश छोड़ तो आए, पर लग रहा कि कितना कुछ पीछे छूट गया, " प्रियम ने कोरों पर छलक आए आँसुओं को छुपाने का असफल प्रयास करते हुए कहा|


"देखो भाई, इतने दुखी मत हो| जीवन हमें गति का पाठ पढ़ाती है| गतिशिलता में कुछ पाते हैं और कुछ खोते भी हैं| जब तुम अपने पूरे परिवार के साथ आए हो, पापा मम्मी भी साथ हैं तो फिर क्या छूट गया,"प्रिया ने भाई को सहज करने का प्रयास करते हुए कहा|

"सिर्फ अपना परिवार ही सब कुछ नहीं होता प्रिया| हम अपनी उस मिट्टी को छोड़ कर आए है जिसने हमारा पालन पोषण किया| उन साथियों को छोड़ आए हैं जो हमारी खुशी में खुश होते थे और जरूरत पड़ने पर हमारे आसपास होते थे| हम उस देश को छोड़ आए हैं जिसने हमें बेहतर जीवनयापन की डिग्रियाँ दीं|"

"भाई, हम अब भी जुड़े हैं|"

"वह कैसे|"

"बस देखते जाओ हमारा कमाल", कहती हुई प्रिया चली गई|

थोडी देर बाद फेसबुक पर एक नया समूह अवतरित हुआ|

" 'धरती विदेश की- भाषा स्वदेश की', मित्रों , यह एक साहित्यिक समूह है| यहाँ आप हिन्दी में अपने विचार प्रकट कर सकते हैं| विधा आपके पसंद की, जुड़ाव हमारे दिलों का|' "

देखते ही देखते सैकड़ों लोग जुड़ गये|

"कैसा लग रहा भाई"

"प्रिया! मेरी साहित्यकार बहन, ऐसा लग रहा जैसे हम हिन्दी की कश्ती पर सवार वापस अपनी माटी का तिलक लगा रहे|"

उस दिना डाइनिंग टेबल पर बैठा प्रियम देसी अंदाज में आम खा रहा था...अँगुलियों और होंठों के किनारों पर आम का रस लपेटे हुए|


ऋता शेखर 'मधु'