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मंगलवार, 27 अक्टूबर 2015

रोग दिल का न यूँ तुम बढ़ाओ कभी

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चल के सपने कहीं तो सजाओ कभी

आसमाँ में परिंदे उड़ाओ कभी


आज है ये जमाना कहाँ से कहाँ

पाँव छूने की रस्में निभाओ कभी


बेटियों के जनम से होते हो दुखी

उनको भी तो गले से लगाओ कभी


अश्क आँखों में रखते दिखाते नहीं

रोग दिल का न यूँ तुम बढ़ाओ कभी


जान हाजिर है अपने वतन के लिए

सरहदों पर इसे आजमाओ कभी

*ऋता शेखर मधु*

शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2015

जीजिविषा-

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जीजिविषा--
घर में आनेजाने वालों का और साथ ही फोन पर बधाई देने वालों का ताँता लगा था| शशांक ने इंजीनियरिंग के लिए आइ आइ टी की परीक्षा में अच्छे रैंक लाए थे| घर में उत्सव सा माहौल था|
दो दिनों बाद बारहवीं का परिणाम घोषित होना था| समय पर परिणाम निकला|
मगर यह क्या! शशांक का नाम कहीं नहीं था| सबके पैरों तले की जमीन खिसक गई| तुरंत स्कूल में फोन लगाया गया| पता चला कि भोतिकी में उसे उत्तीर्णांक से कम थे|
एकाएक माहौल गमगीन हो गया| शशांक गुमसुम अपने कमरे में बैठ गया| सबने कहा था, पहले बारहवीं पर ध्यान दो|
उस परिश्रमी बालक की मनःस्थिति कल्पनीय थी| अब न उसे पढ़ने में रुचि थी, न खेलने मे, न कहीं बाहर जाने , और न ही ढंग से खाना खाता|
स्वाति , उसकी बड़ी बहन समझाकर थक गई कि वह अगले साल के लिए जमकर तैयारी करे| मगर उसका निराश मन बड़ा ही मायूस था|
एक दिन शाम को घर के कंक्रीट अहाते में टहलते हुए स्वाति को कुछ दिखा| वह दौड़कर भाई को बाहर घसीट लाई| चिकने चुपड़े साफ कंक्रीट रास्ते पर हल्की दरार से एक नन्हा सा कोंपल झाँक रहा था| उसकी गुलाबी कोमल पत्तियाँ बड़ी सुहावनी थी|
शशांक गौर से उसे देख रहा था|इधर स्वाति भी बड़े गौर से भाई का मन टटोलने की कोशिश कर रही थी |
कुछ देर रुककर स्वाति ने कहा-"भाई, इसे काट देते हैं| नाहक ही यह बढ़ता जाएगा|"
"नही, इसे मत काटो| बहुत मेहनत से इसने ऊपर आने का रास्ता बनाया है|" शशांक ने दृढ़ता से कहा|
इसके बाद वह दौड़कर अपने कमरे में गया और अपनी सारी किताबें व्यवस्थित करने लगा| स्वाति भी पीछे पीछे गई| वापस आकर संतुष्टि से कोमल पत्तियों को सहलाने लगी|
दोनो भाई बहन ने पौधे का नाम रखा, 'जीजिविषा"
*ऋता शेखर 'मधु'*

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

गुलामी-लघुकथा

गुलामी-
''मैम, जल जमाव के कारण हमारे इलाके की स्थिति बहुत खराब है| गाड़ी निकल नहीं सकती और पैदल चलकर आऊँ तो कमर जितने पानी में चलना होगा|''
एक मिनट की चुप्पी के पश्चात प्राचार्या ने कहा," आप डूबकर आएँ, तैर कर आएँ इससे हमे कोई मतलब नहीं|आना है तो आना है| यदि आप झंडोत्तोलन के दिन नहीं आईं तो आपकी गिनती देशद्रोही में की जाएगी|"
यह कहकर उन्होंने फोन काट दिया|
आजादी वाले दिन अपनी गुलामी पर नेहा रो दी| 
किसी तरह  नुक्कड़ पर पहुँची जहाँ से प्रतिदिन रिक्शा लिया करती थी| वहाँ लगभग सभी रिक्शावाले उसे पहचानते थे|
सभी अपने अपने रिक्शे में ताला लगाकर बैठे थे| एक बूढ़े रिक्शावाले ने कहा-'' आप मेरे रिक्शे में बैठ जाएँ, मैं पहुँचा दूँगा|''
उस कमजोर से रिक्शे वाले के रिक्शा पर बैठते हुए नेहा का दिल रो दिया| मगर वह करती भी क्या|
पन्द्रह रुपया और दस मिनट की दूरी वाले विद्यालय की दूरी अचानक बहुत बड़ी लगने लगी|
चारो तरफ पानी ही पानी और रिक्शावाला किसी तरह पूरे दमखम के साथ रिक्शा खींच रहा था| पूरे पैंतालीस मिनट लगे गंतव्य पर पहुँचने में|
उसने सौ रुपए बढ़ाए उस गरीब की ओर| मगर उसने अपने लिए पन्द्रह रुपए रखकर बाकी पैसे लौटा दिए| नेहा का दिल भर आया| उसने वहीं से देखा कि विद्यालय के बरामदे में खड़ी प्राचार्या मुस्कुरा रही थी|

*ऋता शेखर 'मधु'*

गुरुवार, 8 अक्टूबर 2015

बंदगी जब की खुदा की हौसले मिलते गए

मतला--
दो दिनों की जिंदगी है आदमी के सामने
जान है क्या चीज बोलो दोस्ती के सामने

हुस्ने मतला--

आँधियाँ भी जा रुकी हैं हिमगिरी के सामने
चाल भी बेजार बनती सादगी के सामने

अशआर--

बेटियाँ हों ना अगर तो बहु मिलेगी फिर कहाँ
कौन सी दौलत बड़ी है इस परी के सामने

बंदगी जब की खुदा की हौसले मिलते गए
झुक न पाया सिर मिरा फिर तो किसी के सामने

नारियाँ सहमी दबी सी ठोकरों में जी रहीं
हर खुशी बेकार है उनकी नमी के सामने

हो अमीरी या गरीबी रख रही इक सी नजर
रौशनी की बात क्या है कौमुदी के सामने

फूल भी खिलते रहे हैं कंटकों के बीच में
खुश्बुएँ बिखरी रही हैं हर किसी  के सामने

*ऋता शेखर 'मधु'*

बह्र -- 2122 2122 2122 212
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
काफिया -- ई (स्वर)
रदीफ़ -- के सामने

सोमवार, 5 अक्टूबर 2015

सिलसिला आज तो जुड़ा कोई

2122 1212 22
काफ़िया-आ
रदीफ़-कोई

सिलसिला आज तो जुड़ा कोई
नफ़रतें छोड़ कर मिला कोई

आसरो से बँधा रहा जीवन
मोगरा डाल पर खिला कोई

नज़्म धड़कन बनी रही हरदम
ख्वाब ऐसा जगा गया कोई

देश मेरा सदा रहे कायम
फाँसियों में इसे लिखा कोई

मुल्क में चैन हो अमन भी हो
लाठियाँ भाँज कर कहा कोई

*ऋता शेखर 'मधु'*