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शनिवार, 5 नवंबर 2016

प्रतिकार-लघुकथा

प्रतिकार
चिता पर पत्नी के शव के अंतिम संस्कार के लिए शिवशंकर बाबू के हाथों में अग्नि थमाई जा चुकी थी| अचानक तेज आँधी आई| बगल की चिता से चिंगारी उड़ी और शिवशंकर बाबू की पत्नी की चिता से जा लगी| धू धू कर जलने लगी चिता और अग्नि को हाथ में पकड़े पति को दग्ध करने लगी|
 “आज उस मौन बर्फ ने आपकी अग्नि को नकार दिया जीजा| जो काम वह जीते जी नहीं कर सकी, मरकर कर दिया उसने,” रोष फूट पड़ा भाई संजीव का|
 अवाक् खड़ी अपनों की भीड़ की ओर मुखातिब होकर संजीव कहने लगा, “ तीन बेटियों के लिए जीजा और उनके घरवालों से प्रताड़ित होती रही थी हमारी बहन| बाद में बेटे की चाह में अबॉर्शन पर अबॉर्शन ने उसके शरीर को खोखला कर दिया| क्षीण कमजोर शरीर पर लकवा का प्रकोप हुआ| उसकी शिथिल आँखें भाई को देखते ही बह जाने को आतुर दिखती थी| हम चाह कर भी कुछ न कर सके क्योंकि वह रोक देती थी हमें| ”
 संजीव ने अपनी बात जारी रखी, “ उसकी तीनों बेटियों को खरोंच भी आई तो देख लेना आप| संस्कारों का हवाला देकर हमें रोकने वाली बहन जा चुकी है| ”
 “उफ्फ, सज्जन दिखने वाले इस इंसान की इतनी क्रूर मानसिकता कि प्रकृति भी मरने वाली के मौन चीत्कार को अनदेखा न कर सकी,”भीड़ में से आई आवाज ने एकबारगी सबको दहला दिया|

--ऋता शेखर ‘मधु’

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