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बुधवार, 27 सितंबर 2017

बेटी दिवस पर

बेटियों,
तुम पिता का प्यार हो
माँ के गले का हार हो
तुमसे ही तो राखियाँ हैं
तुम खुशी का आधार हो|

तुम आई तो कली मुस्काई
कभी समझो न खुद को पराई
दिल में रहती हो तुम भी हमारे
जैसे वहाँ रहता है भाई|

तुम अपरिमित संभावना हो
लेखनी की परिभावना हो
तुम से है रौशन सारा जहाँ ये
तुम एक मीठी सी भावना हो|

अब आँखों में आँसू न लाना
विद्या से जीत लेना जमाना
खुद में संचार करो शक्ति का
आततायियों को सबक है सिखाना|

जूही बन कर महका करो
चिड़ियों सी तुम चहका करो
अब धूप में कुम्हलाना नहीं
पलाश बन के दहका करो|

छल से भरा अब ये जगत है
तालाब पर बगुला भगत है
तुम भोली मछली न बनना
मगरमच्छ भी मध्यगत है|
--ऋता शेखर “मधु”

मंगलवार, 19 सितंबर 2017

तुस्सी ग्रेट हो

तुस्सी ग्रेट हो

सिख सम्प्रदाय की वह लड़की दीपा अब हिन्दु धर्म के घर की प्यारी बहु थी| उसे जब पता चला था कि नानी सास के पुण्यतिथि में जाना है तो अपने हिसाब से उसने हल्के रंग के कपड़े रख लिए थे| नानी सास का स्वर्गवास पहले ही हो चुका था और उसने उन्हें देखा नहीं था|
तरह तरह के पकवान बन रहे थे| वह सब कुछ समझने की कोशिश कर रही थी|
उसने हवन के लिए सासू माँ को तैयार देखकर पूछा,''मम्मी जी, पुणयतिथि में तो सफेद या हल्के कपड़े पहनने चाहिए न| आपने तो रंगीन सजीली साड़ी पहनी है|''
''बेटा, नानी को हल्के रंग पसंद नहीं थे| इसलिए उनकी पसंद का पहना|''
दूसरे कमरे में मासी ने भी रंगीन कपड़े पहने थे| दीपा ने वही बात मासी से भी कही|
''बेटा, आज नानी की पसंद के हिसाब से खाना बनेगा और हम उनकी पसंद के अनुसार कपड़े भी पहनेंगे| वे हमेशा से चाहती थीं कि उनकी बेटी-बहु सजधज कर रहे|''
तभी मामी जी भी वहाँ पर आ गईं| उनकी तो सजधज ही निराली थी|
जब मामी अकेली पड़ी तो दीपा ने फिर से अपनी बाद दोहरा दी|
''दीपा, नानी ने हमेशा हमलोगों को सजाकर रखा| आज हम उदास कपडों में उनके लिए हवन करेंगे तो शायद वे स्वीकार न करें|''
अब दीपा के मस्तिष्क में घूमने लगा,''सासू माँ और मासी तो नानी की बेटियाँ हैं इसलिए एक सी बात दोनों ने कही| जब मामी ने भी वही कहा तो इसका अर्थ है कि नानी ने कभी बेटी-बहु में अन्तर नहीं समझा|''
अब वह भी रंगीन कपड़े पहन हवन के लिए बैठी|
प्रथम स्वाहा में उसने मन ही मन नानी सास से संवाद करते हुए कहा,''नानी, तुस्सी ग्रेट हो|''
उसे लगा, हवन कुंड से होकर गुजरती हवा ने उसके बाल हौले से सहला दिए हों|
-ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

बताओ तो-लघुकथा

बताओ तो

पगडंडी के किनारे नन्हीं हरी दूर्वा और बेल का एक पेड़ आपस में बातें कर रहे थे|
''तुम्हें कितनी निर्दयता से रौंद रौंद कर ये मनुष्य रास्ते बना लेते हैं'', बेल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा|
''गाँव से निकलने का रास्ता भी तो यही है भाई,'' अपने दर्द को अन्तस में छुपाती हुई दूर्वा बोल उठी,''तुम तो बड़े हो, तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता|''
''हाँ, यह तो है| मनुष्य को जब छाया चाहिए तो मेरे पास ही आते हैं,'' कुछ दर्प भी झलक रहा था बेल की बातों में,'' देखो, मेरे फल भी मीठे हैं| मेरी पत्तियाँ शिव का श्रृंगार करती हैं|''
''मैं अपनी सहेली ओस के साथ खेलती हूँ | मुझपर चलकर लोग तलवों में ठंढक पाते हैं और आँखों की रोशनी भी बढ़ाते है,'' कुछ सोचते हुए दूर्वा बोली,''मैं भी तो गणपति को प्रिय हूँ|''
''आज के जमाने में सजा देना भी आना चाहिए, नहीं तो हमेशा रौंदी जाती रहोगी|''
''नहीं भाई, नम्रता से बड़ी कोई चीज नहीं| मगर तुम सजा कैसे दे सकते हो|''
''वो देखो, उधर से दो मनुष्य आ रहे हैं| अब देखना क्या करता हूँ|''
दूर्वा साँस रोककर देखने लगी| ज्योंहि वे पेड़ के नीचे से गुजरने लगे , पेड़ ने एक बेल उसके सिर पर टपका दिया|
''आह" कहता हुआ वह मनुष्य अपने साथी से बोला, ''यह पेड़ तो बड़ा खतरनाक है| इसे काटना पड़ेगा वरना आगे भी कष्ट देता रहेगा|''
दूर्वा को यह सुनकर अच्छा नहीं लगा| वह उदास स्वर में बोली,'' तुम्हारी छाया और मीठे फल को ये स्वार्थी मनुष्य भूल गए|''
''नहीं बहन, आघात सौ गुणो को एक झटके में खत्म कर देता है| नम्रता हर हाल में अच्छी होती है| मैं तो कट जाऊँगा पर तुम सदा नम्र रहना|''
''भाई बताओ तो, क्या खुद को हमेशा पाँव तले रखना ही नम्रता कहलाती है?''
''मैं नहीं जानता| वह देखो, वे आरियाँ लेकर आ रहे हैं| अलविदा बहन''
-ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

क्षमा प्रार्थना

।। अथ अपराधक्षमापणस्तोत्रम् ।।

ॐ अपराधसहस्त्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि।।१।।

आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि।।२।।

मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।।३।।

अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत् ।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादयः सुराः ।। ४।।

सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके ।
इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरु ।। ५।।

अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रोन्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम् ।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि ।। ६।।

कामेश्वरि जगन्मातः सच्चिदानन्दविग्रहे ।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि ।। ७।।

गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसात्सुरेश्वरि।।८।।

।। इति अपराधक्षमापणस्तोत्रं समाप्तम्।।

रविवार, 10 सितंबर 2017

माँ दुर्गा की तीन आरतियाँ


आरती-1
जगजननी जय! जय!! मा! जगजननी जय! जय!
भयहारिणि, भवतारिणि, भवभामिनि जय जय॥-टेक॥
तू ही सत-चित-सुखमय शुद्ध ब्रह्मारूपा।
सत्य सनातन सुन्दर पर-शिव सुर-भूपा॥-१॥-जग०
आदि अनादि अनामय अविचल अविनाशी।
अमल अनन्त अगोचर अज आनँदराशी॥-२॥-जग०
अविकारी, अघहारी, अकल, कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर सँहारकारी॥-३॥-जग०
तू विधि वधू, रमा, तू उमा, महामाया।
मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी, जाया॥-४॥-जग०
राम, कृष्णतू, सीता, व्रजरानी राधा।
तू वाञ्छाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा॥-५॥-जग०
दश विद्या, नव दुर्गा, नाना शस्त्रकरा।
अष्टस्न्मातृका, योगिनि, नव-नव-रूप-धरा॥-६॥-जग०
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डव-लासिनि तू॥-७॥-जग०
सुर-मुनि-मोहिनि सौया तू शोभाधारा।
विवसन विकट-सरूपा, प्रलयमयी धारा॥-८॥-जग०
तू ही स्नेहसुधामयि, तू अति गरलमना।
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि-तना॥-९॥-जग०
मूलाधारनिवासिनि, इह-पर-सिद्धिप्रदे।
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥-१०॥-जग०
शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी।
भेदप्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥-११॥-जग०
हम अति दीन दुखी माँ! विपत-जाल घेरे।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥-१२॥-जग०
निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
करुणा कर करुणामयि! चरण-शरण दीजै॥-१३॥-जग०
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आरती-2

जय अंबे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी ।
तुमको निशदिन ध्यावत, हरि ब्रह्मा शिवरी ॥ ॐ जय…

मांग सिंदूर विराजत, टीको मृगमद को ।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चंद्रवदन नीको ॥ ॐ जय…

कनक समान कलेवर, रक्तांबर राजै ।
रक्तपुष्प गल माला, कंठन पर साजै ॥ ॐ जय…

केहरि वाहन राजत, खड्ग खप्पर धारी ।
सुर-नर-मुनिजन सेवत, तिनके दुखहारी ॥ ॐ जय…

कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती ।
कोटिक चंद्र दिवाकर, राजत सम ज्योती ॥ ॐ जय…

शुंभ-निशुंभ बिदारे, महिषासुर घाती ।
धूम्र विलोचन नैना, निशदिन मदमाती ॥ॐ जय…

चण्ड-मुण्ड संहारे, शोणित बीज हरे ।
मधु-कैटभ दोउ मारे, सुर भय दूर करे ॥ॐ जय…

ब्रह्माणी, रूद्राणी, तुम कमला रानी ।
आगम निगम बखानी, तुम शिव पटरानी ॥ॐ जय…

चौंसठ योगिनी गावत, नृत्य करत भैंरू ।
बाजत ताल मृदंगा, अरू बाजत डमरू ॥ॐ जय…

तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता ।
भक्तन की दुख हरता, सुख संपति करता ॥ॐ जय…

भुजा चार अति शोभित, वरमुद्रा धारी ।
मनवांछित फल पावत, सेवत नर नारी ॥ॐ जय…

कंचन थाल विराजत, अगर कपूर बाती ।
श्रीमालकेतु में राजत, कोटि रतन ज्योती ॥ॐ जय…

श्री अंबेजी की आरति, जो कोइ नर गावे ।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख-संपति पावे ॥ॐ जय…
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आरती||3||
अम्बे तू है जगदम्बे काली,
जय दुर्गे खप्पर वाली,
तेर ही गुण गायें भारती,
ओ मैया हम सब उतारे तेरी आरती ।

तेर भक्त जानो पर मैया भीड़ पड़ी है भारी,
दानव दल पर टूट पड़ो माँ कर के सिंह सवारी ।
सो सो सिंघो से है बलशाली,
है दस भुजाओं वाली,
दुखिओं के दुखड़े निवारती ।

माँ बेटे की है इस जग में बड़ा ही निर्मल नाता,
पूत कपूत सुने है पर ना माता सुनी कुमाता ।
सबपे करुना बरसाने वाली,
अमृत बरसाने वाली,
दुखिओं के दुखड़े निवारती ।

नहीं मांगते धन और दौलत ना चांदी ना सोना,
हम तो मांगे माँ तेरे मन में एक छोटा सा कोना ।
सब की बिगड़ी बनाने वाली,
लाज बचाने वाली,
सतिओं के सत को सवारती ।

सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्रम् -दुर्गा चालीसा -विन्ध्येश्वरी स्तोत्रम्

नवरात्र में यदि आपके पास समय कम हो तो सिर्फ सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्रम्...दुर्गा चालीसा...और विन्ध्येश्वरी श्लोक पढ़ लें|

सर्वप्रथम हाथ में पुष्प, जल, अक्षत लेकर निम्नलिखित संकल्प लें|
ॐ अस्य श्री दुर्गा सप्तश्लोकी स्तोत्र मंत्रस्यनारायण ऋषि: अनुष्टुप् छ्न्द:श्री महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वत्यो देवता: श्री दुर्गा प्रीत्यर्थे सप्तश्लोकी दुर्गा पाठे विनियोग: । 

सप्तश्लोकी दुर्गा  स्तोत्रम्

ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।१।।

दुर्गेस्मृता हरसिभीतिमशेष जन्तो:स्वस्थै: स्मृता मति मतीव शुभां ददासि
दारिद्र्य दु:ख भय हारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदार्द्र चित्ताचिति २।।

सर्व मङ्गल माङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणि नमोऽस्तुते ।।३।।

शरणागत दीनार्त परित्राण परायणे
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते ।।४।।

सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्व शक्ति समन्विते
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते ।।५।।

रोगान शेषान पहंसि तुष्टारुष्टा तु कामान् सकलान भीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्या श्रयतां प्रयान्ति ।।६।।

सर्वा बाधा प्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि
एकमेव त्वया कार्यमस्य द्वैरि विनाशनं ।।७।।

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दुर्गा चालीसा
नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो दुर्गे दुःख हरनी॥१॥
निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥२॥
शशि ललाट मुख महाविशाला। नेत्र लाल भृकुटि विकराला॥३॥
रूप मातु को अधिक सुहावे। दरश करत जन अति सुख पावे॥४॥
तुम संसार शक्ति लै कीना। पालन हेतु अन्न धन दीना॥५॥
अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥६॥
प्रलयकाल सब नाशन हारी। तुम गौरी शिवशंकर प्यारी॥७॥
शिव योगी तुम्हरे गुण गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥८॥
रूप सरस्वती को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन उबारा॥९॥
धरयो रूप नरसिंह को अम्बा। परगट भई फाड़कर खम्बा॥१०॥
रक्षा करि प्रह्लाद बचायो। हिरण्याक्ष को स्वर्ग पठायो॥११॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥१२॥
क्षीरसिन्धु में करत विलासा। दयासिन्धु दीजै मन आसा॥१३॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जात बखानी॥१४॥
मातंगी अरु धूमावति माता। भुवनेश्वरी बगला सुख दाता॥१५॥
श्री भैरव तारा जग तारिणी। छिन्न भाल भव दुःख निवारिणी॥१६॥
केहरि वाहन सोह भवानी। लांगुर वीर चलत अगवानी॥१७॥
कर में खप्पर खड्ग विराजै। जाको देख काल डर भाजै॥१८॥
सोहै अस्त्र और त्रिशूला। जाते उठत शत्रु हिय शूला॥१९॥
नगरकोट में तुम्हीं विराजत। तिहुँलोक में डंका बाजत॥२०॥
शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्तबीज शंखन संहारे॥२१॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥२२॥
रूप कराल कालिका धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥२३॥
परी गाढ़ सन्तन पर जब जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥२४॥
अमरपुरी अरु बासव लोका। तब महिमा सब रहें अशोका॥२५॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नर-नारी॥२६॥
प्रेम भक्ति से जो यश गावें। दुःख दारिद्र निकट नहिं आवें॥२७॥
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म-मरण ताकौ छुटि जाई॥२८॥
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी।योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥२९॥
शंकर आचारज तप कीनो। काम अरु क्रोध जीति सब लीनो॥३०॥
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को। काहु काल नहिं सुमिरो तुमको॥३१॥
शक्ति रूप का मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥३२॥
शरणागत हुई कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदम्ब भवानी॥३३॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा। दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा॥३४॥
मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरै दुःख मेरो॥३५॥
आशा तृष्णा निपट सतावें। मोह मदादिक सब बिनशावें॥३६॥
शत्रु नाश कीजै महारानी। सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी॥३७॥
करो कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला।३८॥
जब लगि जिऊँ दया फल पाऊँ। तुम्हरो यश मैं सदा सुनाऊँ॥३९॥
श्री दुर्गा चालीसा जो कोई गावै। सब सुख भोग परमपद पावै॥४०॥

देवीदास शरण निज जानी। करहु कृपा जगदम्ब भवानी॥

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विन्ध्येश्‍वरी स्तोत्र

निशुम्भ शुम्भ गर्जनी, प्रचण्ड मुण्ड खण्डिनी।
बनेरणे प्रकाशिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥
त्रिशूल मुण्ड धारिणी, धरा विघात हारिणी। 
गृहे-गृहे निवासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥
दरिद्र दुःख हारिणी, सदा विभूति कारिणी। 
वियोग शोक हारिणी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥
लसत्सुलोल लोचनं, लतासनं वरप्रदं। 
कपाल-शूल धारिणी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥
कराब्जदानदाधरां, शिवाशिवां प्रदायिनी। 
वरा-वराननां शुभां भजामि विन्ध्यवासिनी॥
कपीन्द्न जामिनीप्रदां, त्रिधा स्वरूप धारिणी।
जले-थले निवासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥
विशिष्ट शिष्ट कारिणी, विशाल रूप धारिणी। 
महोदरे विलासिनी, भजामि विन्ध्यवासिनी॥
पुंरदरादि सेवितां, पुरादिवंशखण्डितम्‌। 
विशुद्ध बुद्धिकारिणीं, भजामि विन्ध्यवासिनीं॥

॥ इति श्री विन्ध्येश्वरी स्तोत्र सम्पूर्ण ॥

शनिवार, 9 सितंबर 2017

दुर्गा कवच (संस्कृत और हिन्दी में) एवं देवीसूक्तम्‌

दुर्गा कवच
माँ दुर्गा का कवच अदभुत कल्याणकारी है। दुर्गा कवच मार्कंडेय पुराण से ली गई विशेष श्लोकों का एक संग्रह है और दुर्गा सप्तशी का हिस्सा है। नवरात्र के दौरान दुर्गा कवच का जाप देवी दुर्गा के भक्तों द्वारा शुभ माना जाता है।

ॐ नमश्चण्डिकायै।

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम्। 
यन्न कस्य चिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह॥१॥
॥ब्रह्मोवाच॥
अस्ति गुह्यतमं विप्रा सर्वभूतोपकारकम्।
दिव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्वा महामुने॥२॥
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। 
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥३॥
पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च 
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥
नवमं सिद्धिदात्री च नव दुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥
अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे। 
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥
न तेषां जायते किञ्चिदशुभं रणसङ्कटे। 
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न ही॥७॥
यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते। 
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥
प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना। 
ऐन्द्री गजसमारूढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥
माहेश्वरी वृषारूढा कौमारी शिखिवाहना। 
लक्ष्मी: पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥
श्वेतरूपधारा देवी ईश्वरी वृषवाहना। 
ब्राह्मी हंससमारूढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥
इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः। 
नानाभरणशोभाढया नानारत्नोपशोभिता:॥१२॥
दृश्यन्ते रथमारूढा देव्याः क्रोधसमाकुला:।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥
खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च। 
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥
दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च। 
धारयन्त्यायुद्धानीथं देवानां च हिताय वै॥१५॥
नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे। 
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥
त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि। 
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्रि आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥
दक्षिणेऽवतु वाराही नैऋत्यां खङ्गधारिणी। 
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥
उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी। 
ऊर्ध्वं ब्रह्माणी में रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥
एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहाना। 
जाया मे चाग्रतः पातु: विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥
अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता। 
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥
मालाधारी ललाटे च भ्रुवो रक्षेद् यशस्विनी। 
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥
शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी। 
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शङ्करी ॥२३॥
नासिकायां सुगन्‍धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका। 
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥
दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका। 
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके॥२५॥
कामाक्षी चिबुकं रक्षेद्‍ वाचं मे सर्वमङ्गला। 
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धारी॥२६॥
नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी। 
स्कन्धयोः खङ्गिनी रक्षेद्‍ बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥
हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चान्गुलीषु च। 
नखाञ्छूलेश्वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्वरी॥२८॥
स्तनौ रक्षेन्‍महादेवी मनः शोकविनाशिनी। 
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥
नाभौ च कामिनी रक्षेद्‍ गुह्यं गुह्येश्वरी तथा। 
पूतना कामिका मेढ्रं गुडे महिषवाहिनी॥३०॥
कट्यां भगवतीं रक्षेज्जानूनी विन्ध्यवासिनी। 
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी॥३१॥
गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी। 
पादाङ्गुलीषु श्रीरक्षेत्पादाध:स्तलवासिनी॥३२॥
नखान् दंष्ट्रा कराली च केशांशचैवोर्ध्वकेशिनी। 
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्वरी तथा॥३३॥
रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती। 
अन्त्राणि कालरात्रिश्च पित्तं च मुकुटेश्वरी॥३४॥
पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा। 
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसन्धिषु॥३५॥
शुक्रं ब्रह्माणी मे रक्षेच्छायां छत्रेश्वरी तथा। 
अहङ्कारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥
प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्। 
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥
रसे रूपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी। 
सत्वं रजस्तमश्चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥
आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी। 
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥
इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें। चण्डिके! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे।|४०||
पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा। 
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु। 
तत्सर्वं रक्ष मे देवी जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥
पदमेकं न गच्छेतु यदिच्छेच्छुभमात्मनः। 
कवचेनावृतो नित्यं यात्र यत्रैव गच्छति॥४३॥
तत्र तत्रार्थलाभश्च विजयः सर्वकामिकः। 
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्चितम्।
परमैश्वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥
निर्भयो जायते मर्त्यः सङ्ग्रमेष्वपराजितः। 
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥
इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम्। 
य: पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥
दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः। 
जीवेद् वर्षशतं साग्रामपमृत्युविवर्जितः॥४७॥
नश्यन्ति टयाधय: सर्वे लूताविस्फोटकादयः। 
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥
अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले। 
भूचराः खेचराशचैव जलजाश्चोपदेशिकाः॥४९॥
सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा। 
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्च महाबला॥५०॥
ग्रहभूतपिशाचाश्च यक्षगन्धर्वराक्षसा:। 
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः॥५१॥
नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते। 
मानोन्नतिर्भावेद्राज्यं तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥
यशसा वद्धते सोऽपी कीर्तिमण्डितभूतले। 
जपेत्सप्तशतीं चणण्डीं कृत्वा तु कवचं पूरा॥५३॥
यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्। 
तावत्तिष्ठति मेदिनयां सन्ततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥
देहान्ते परमं स्थानं यात्सुरैरपि दुर्लभम्। 
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥
लभते परमं रूपं शिवेन सह मोदते ॥ॐ॥ ॥५६॥

।। इति देव्या: कवचं सम्पूर्णम् ।।||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||||

दुर्गा कवच-हिन्दी में

ॐ नमश्चण्डिकायै।

परमशक्ति देवी दुर्गा को नमस्कार है|
1 मार्कण्डेय जी ने कहा– पितामह! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये।
2ब्रह्मन्! ऐसा साधन तो एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है। महामुने! उसे श्रवण करो।
3प्रथम नाम शैलपुत्री है, दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी है। तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नामसे प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति को कूष्माण्डा कहते हैं।
4 पाँचवीं दुर्गा का नाम स्कन्दमाता है। देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं। सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है।
5 नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्री है। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं|
6 जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता।
7 युद्ध समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखाई देती। उनके शोक, दु:ख और भय की प्राप्ति नहीं होती।
8 जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है। देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो।
9 चामुण्डादेवी प्रेत पर आरूढ़ होती हैं। वाराही भैंसे पर सवारी करती हैं। ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है। वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं।
10 माहेश्वरी वृषभ पर आरूढ़ होती हैं। कौमारी का मयूर है। भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमल के आसन पर विराजमान हैं,और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं।
11 वृषभ पर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है। ब्राह्मी देवी हंस पर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूिषत हैं।
12 इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से सम्पन्न हैं। इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं।
13,14,15 ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिए रथ पर बैठी दिखाई देती हैं। ये शङ्ख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मूसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त औ त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथ में धारण करती हैं। दैत्यों के शरीर का नाश करना,भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना यही उनके शस्त्र-धारण का उद्देश्य है।
16 महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साह वाली देवी तुम महान् भय का नाश करने वाली हो,तुम्हें नमस्कार है
17,18 तुम्हारी और देखना भी कठिन है। शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली जगदम्बिक मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री इन्द्रशक्ति)मेरी रक्षा करे। अग्निकोण में अग्निशक्ति,दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारिणी मेरी रक्षा करे। पश्चिम दिशा में वारुणी और वायव्यकोण में मृग पर सवारी करने वाली देवी मेरी रक्षा करे।
19 उत्तर दिशा में कौमारी और ईशानकोण में शूलधारिणी देवी रक्षा करे। ब्रह्माणि!तुम ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे ।
20 इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करे। जया आगे से और विजया पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे।
21 वामभाग में अजिता और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करे। उद्योतिनी शिखा की रक्षा करे। उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे।
22 ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे।
23 शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी। कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शङ्करी ॥२३॥
24 नासिका में सुगन्धा और ऊपर के ओंठ में चर्चिका देवी रक्षा करे। नीचे के ओंठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती रक्षा करे।
25 कौमारी दाँतों की और चण्डिका कण्ठप्रदेश की रक्षा करे। चित्रघण्टा गले की घाँटी और महामाया तालु में रहकर रक्षा करे।
26 कामाक्षी ठोढी की और सर्वमङ्गला मेरी वाणी की रक्षा करे। भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड)में रहकर रक्षा करे।
27 कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी रक्षा करे। दोनों कंधों में खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करे।
28 दोनों हाथों में दण्डिनी और उँगलियों में अम्बिका रक्षा करे। शूलेश्वरी नखों की रक्षा करे। कुलेश्वरी कुक्षि पेट)में रहकर रक्षा करे।
29 महादेवी दोनों स्तनों की और शोकविनाशिनी देवी मन की रक्षा करे। ललिता देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर रक्षा करे।
30,31 नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वरी रक्षा करे। पूतना और कामिका लिङ्ग की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे। भगवती कटि भाग में और विन्ध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करे। सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियों की रक्षा करे।
32 नारसिंही दोनों घुट्ठियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठभाग की रक्षा करे। श्रीदेवी पैरों की उँगलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे।
33 अपनी दाढों के कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशिनी देवी केशों की रक्षा करे। रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करे।
34,35 पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, माँस, हड्डी और मेद की रक्षा करे। आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करे। मूलाधार आदि कमल-कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूड़ामणि देवी स्थित होकर रक्षा करे। नख के तेज की ज्वालामुखी रक्षा करे। जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे।
36 ब्रह्माणी!आप मेरे वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्मधारिणी देवी मेरे अहंकार,मन और बुद्धि की रक्षा करे।
37 हाथ में वज्र धारण करने वाली वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायु की रक्षा करे। कल्याण से शोभित होने वाली भगवती कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे।
38 रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करे तथा सत्त्वगुण,रजोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी करे।
39 वाराही आयु की रक्षा करे। वैष्णवी धर्म की रक्षा करे तथा चक्रिणी चक्र धारण करने वाली)देवी यश,कीर्ति,लक्ष्मी,धन तथा विद्या की रक्षा करे।
40 इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें। चण्डिके! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे।
41 मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी रक्षा करे। राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करे।
42 देवी! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है,अतएव रक्षा से रहित है,वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो;क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो।
43,44 यदि अपने शरीर का भला चाहे तो मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी न जाय कवच का पाठ करके ही यात्रा करे। कवच के द्वारा सब ओर से सुरक्षित मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता है,वहाँ-वहाँ उसे धन-लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह जिस-जिस अभीष्ट वस्तु का चिन्तन करता है, उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। वह पुरुष इस पृथ्वी पर तुलना रहित महान् ऐश्वर्य का भागी होता है।
45 कवच से सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है। युद्ध में उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में पूजनीय होता है।
46,47 देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओं के समय श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है,उसे दैवी कला प्राप्त होती है। तथा वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपमृत्यु रहित हो, सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है।
48मकरी, चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। कनेर,भाँग,अफीम,धतूरे आदि का स्थावर विष,साँप और बिच्छू आदि के काटने से चढ़ा हुआ जङ्गम विष तथा अहिफेन और तेल के संयोग आदि से बनने वाला कृत्रिम विष-ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं,उनका कोई असर नहीं होता।
49,50,51,52 इस पृथ्वी पर मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के मन्त्र-यन्त्र होते हैं, वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेने पर उस मनुष्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं। ये ही नहीं,पृथ्वी पर विचरने वाले ग्राम देवता,आकाशचारी देव विशेष,जल के सम्बन्ध से प्रकट होने वाले गण,उपदेश मात्र से सिद्ध होने वाले निम्नकोटि के देवता,अपने जन्म से साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, माला (कण्ठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्ष में विचरनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ,ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी हृदय में कवच धारण किए रहने पर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं। कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान वृद्धि प्राप्ति होती है। यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला और उत्तम है।
53,54 कवच का पाठ करने वाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश से साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होता है। जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है, उसकी जब तक वन, पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहती है।
55,56 देह का अन्त होने पर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से नित्य परमपद को प्राप्त होता है, जो देवतोओं के लिए भी दुर्लभ है। वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याण शिव के साथ आनन्द का भागी होता है।
।। इति देव्या: कवचं सम्पूर्णम् ।।

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देवी सूक्तम्

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता स्मरताम। ॥1॥
 रौद्रायै नमो नित्ययै गौर्य धात्र्यै नमो नमः।
ज्योत्यस्त्रायै चेन्दुरुपिण्यै सुखायै सततं नमः ॥2॥
कल्याण्यै प्रणतां वृद्धयै सिद्धयै कुर्मो नमो नमः।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः ॥3॥
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः ॥4॥
अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।

नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै नमो नमः ॥5॥  
या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥6॥
 या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥7॥  
या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरुपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥8॥
 या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥9॥
 या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥10॥  
या देवी सर्वभूतेषुच्छायारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥11॥
 या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥12॥
 या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥13॥
 या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥14॥  
या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥15॥
या देवी सर्वभूतेषु लज्जारुपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥16॥  
 या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥17॥
 या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥18॥  
या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥19॥
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥20॥  
या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥21॥
 या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥22॥  
या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥23॥
 या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥24॥  
या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥25॥
 या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥26॥  
इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदैव्यै नमो नमः ॥27॥
 चित्तिरूपेण या कृत्स्त्रमेतद्व्याप्त स्थिता जगत्‌।

नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः ॥28॥  
स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रया -त्तथा सुरेन्द्रेणु दिनेषु सेविता॥
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्र्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः ॥29॥
 या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितै -रस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः ॥30॥  

॥ इति तन्त्रोक्तं देवीसूक्तम्‌ सम्पूर्णम्‌ ॥  


देवी अर्गलास्तोत्रं


हाथ में अक्षत, जल और पुष्प लेकर संकल्प लें....
अस्यश्री अर्गला स्तोत्र मंत्रस्य विष्णुः ऋषि:। अनुष्टुप्छन्द:। श्री महालक्ष्मीर्देवता, श्री जगदम्बा प्रीत्यर्थे सप्तशती पठां गत्वेन|

श्रीचण्डिकाध्यानम्
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ॐ बन्धूककुसुमाभासां पञ्चमुण्डाधिवासिनीम् .

स्फुरच्चन्द्रकलारत्नमुकुटां मुण्डमालिनीम् ..

त्रिनेत्रां रक्तवसनां पीनोन्नतघटस्तनीम् .

पुस्तकं चाक्षमालां च वरं चाभयकं क्रमात् ..

दधतीं संस्मरेन्नित्यमुत्तराम्नायमानिताम् .

अथवा

या चण्डी मधुकैटभादिदैत्यदलनी या माहिषोन्मूलिनी

या धूम्रेक्षणचण्डमुण्डमथनी या रक्तबीजाशनी .

शक्तिः शुम्भनिशुम्भदैत्यदलनी या सिद्धिदात्री परा

सा देवी नवकोटिमूर्तिसहिता मां पातु विश्वेश्वरी ..
अथ अर्गलास्तोत्रम्

ॐ नमश्चण्काडिकायै

मार्कण्डेय उवाच .

ॐ जय त्वं देवि चामुण्डे जय भूतापहारिणि .

जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोऽस्तु ते .. 1..
 जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी .

दुर्गा शिवा क्षमा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते .. 2..

मधुकैटभविध्वंसि विधातृवरदे नमः .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 3..

महिषासुरनिर्नाशि भक्तानां सुखदे नमः .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 4..

धूम्रनेत्रवधे देवि धर्मकामार्थदायिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 5..

रक्तबीजवधे देवि चण्डमुण्डविनाशिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 6..

निशुम्भशुम्भनिर्नाशि त्रिलोक्यशुभदे नमः .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 7..

वन्दिताङ्घ्रियुगे देवि सर्वसौभाग्यदायिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 8..

अचिन्त्यरूपचरिते सर्वशत्रुविनाशिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 9..

नतेभ्यः सर्वदा भक्त्या चापर्णे दुरितापहे .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 10..

स्तुवद्भ्यो भक्तिपूर्वं त्वां चण्डिके व्याधिनाशिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 11..

चण्डिके सततं युद्धे जयन्ति पापनाशिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 12..

देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि देवि परं सुखम् .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 13..

विधेहि देवि कल्याणं विधेहि विपुलां श्रियम् .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 14..

विधेहि द्विषतां नाशं विधेहि बलमुच्चकैः .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 15..

सुरासुरशिरोरत्ननिघृष्टचरणेऽम्बिके .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 16..

विद्यावन्तं यशस्वन्तं लक्ष्मीवन्तञ्च मां कुरु .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 17..

देवि प्रचण्डदोर्दण्डदैत्यदर्पनिषूदिनि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 18..

प्रचण्डदैत्यदर्पघ्ने चण्डिके प्रणताय मे .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 19..

चतुर्भुजे चतुर्वक्त्रसं
स्तुते परमेश्वरि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 20..

कृष्णेन संस्तुते देवि शश्वद्भक्त्या सदाम्बिके .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 21..

हिमाचलसुतानाथसंस्तुते परमेश्वरि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 22..

इन्द्राणीपतिसद्भावपूजिते परमेश्वरि .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 23..

देवि भक्तजनोद्दामदत्तानन्दोदयेऽम्बिके .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 24..

भार्यां मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 25..

तारिणि दुर्गसंसारसागरस्याचलोद्भवे .

रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि .. 26..

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु महास्तोत्रं पठेन्नरः .

सप्तशतीं समाराध्य वरमाप्नोति दुर्लभम् .. 27..

.. इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे अर्गलास्तोत्रं समाप्तम् ..

शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

दुर्गा द्वात्रिशनाम माला-दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं


दुर्गा द्वात्रिशनाम माला


गूगल से साभार
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दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं

शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने।

यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती॥१॥

ॐ सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी।

आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी॥२॥

पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपा:।

मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चिति:॥३॥

सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी।

अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागति:॥४॥

शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्‍‌नप्रिया सदा।

सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी॥५॥

अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती।

पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी॥६॥

अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी।

वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता॥७॥

ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा।

चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृति:॥८॥

विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा।

बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना॥९॥

निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी।

मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी॥१०॥

सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी।

सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा॥११॥

अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी।

कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यति:॥१२॥

अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा।

महोदरी मुक्त केशी घोररूपा महाबला॥१३॥

अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी।

नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी॥१४॥

शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी।

कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी॥१५॥

य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्।

नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति॥१६॥

धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च।

चतुर्वर्ग तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम्॥१७॥

कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्।

पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम्॥१८॥

तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वै: सुरवरैरपि।

राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवापनुयात्॥१९॥

गोरोचनालक्त ककुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण।

विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारि:॥२०॥

भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते।

विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम्॥२१॥

॥ इति श्रीविश्वसारतन्त्रे दुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रं समाप्तम्॥
अर्थ
शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं-कमलानने! अब मैं अष्टोत्तरशत (108) नाम का वर्णन करता हूँ, सुनो; जिसके प्रसाद (पाठ या श्रवण) मात्र से परम साध्वी भगवती दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं॥१॥



ॐ सती, साध्वी, भवप्रीता (भगवान् शिव पर प्रीति रखनेवाली), भवानी, भवमोचनी (संसारबन्धन से मुक्त करनेवाली), आर्या, दुर्गा, जया, आद्या, त्रिनेत्रा, शूलधारिणी, पिनाकधारिणी, चित्रा, चण्डघण्टा (प्रचण्ड स्वर से घण्टानाद करनेवाली), महातपा: (भारी तपस्या करनेवाली), मन: (मनन-शक्ति), बुद्धि: (बोधशक्ति), अहंकारा (अहंता का आश्रय), चित्तरूपा, चिता, चिति: (चेतना), सर्वमन्त्रमयी, सत्ता (सत्-स्वरूपा), सत्यानन्दस्वरूपिणी, अनन्ता (जिनके स्वरूप का कहीं अन्त नहीं), भाविनी (सबको उत्पन्न करनेवाली), भाव्या (भावना एवं ध्यान करने योग्य), भव्या (कल्याणरूपा), अभव्या (जिससे बढकर भव्य कहीं है नहीं), सदागति, शाम्भवी (शिवप्रिया), देवमाता, चिन्ता, रत्‍‌नप्रिया, सर्वविद्या, दक्षकन्या, दक्षयज्ञविनाशिनी, अपर्णा (तपस्या के समय पत्ते को भी न खानेवाली), अनेकवर्णा (अनेक रंगोंवाली), पाटला (लाल रंगवाली), पाटलावती (गुलाब के फूल या लाल फूल धारण करनेवाली), पट्टाम्बरपरीधाना (रेशमी वस्त्र पहननेवाली), कलमञ्जररञ्जिनी (मधुर ध्वनि करनेवाले मञ्जीर को धारण करके प्रसन्न रहनेवाली), अमेयविक्रमा (असीम पराक्रमवाली), क्रूरा (दैत्यों के प्रति कठोर), सुन्दरी, सुरसुन्दरी, वनदुर्गा, मातङ्गी, मतङ्गमुनिपूजिता, ब्राह्मी, माहेश्वरी, ऐन्द्री, कौमारी, वैष्णवी, चामुण्डा, वाराही, लक्ष्मी:, पुरुषाकृति:, विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, नित्या, बुद्धिदा, बहुला, बहुलप्रेमा, सर्ववाहनवाहना, सर्वासुरविनाशा, सर्वदानवघातिनी, सर्वशास्त्रमयी, सत्या, सर्वास्त्रधारिणी, अनेकशस्त्रहस्ता, अनेकास्त्रधारिणी, कुमारी, एककन्या, कैशोरी, युवती, यति, अप्रौढा, प्रौढा, वृद्धमाता, बलप्रदा, महोदरी, मुक्त केशी, घोररूपा, महाबला, अग्निज्वाला, रौद्रमुखी, कालरात्रि:, तपस्विनी, नारायणी, भद्रकाली, विष्णुमाया, जलोदरी, शिवदूती, करली, अनन्ता (विनाशरहिता), परमेश्वरी, कात्यायनी, सावित्री, प्रत्यक्षा, ब्रह्मवादिनी॥२-१५॥

माँ दुर्गा के नव-रूप के श्लोक





देवी दुर्गा के नौ रूप होते हैं।
नवरात्र-पूजन में हर रूप के लिए इनकी की पूजा और उपासना के मंत्र---


1.शैलपुत्री- मां दुर्गा का प्रथम रूप देवी शैलपुत्री 



वन्दे वांच्छितलाभाय चंद्रार्धकृतशेखराम्‌।
वृषारूढ़ां शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम्‌ ॥

2. ब्रह्मचारिणी : मां दुर्गा का दूसरा स्वरूप



दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

3.चंद्रघंटा : मां दुर्गा का तीसरा स्वरूप



पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकेर्युता। 
प्रसादं तनुते मह्यं चंद्रघण्टेति विश्रुता॥

4. कुष्मांडा : मां दुर्गा का चौथा स्वरूप




सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च।
दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे।

5. स्कंदमाता : मां दुर्गा का पांचवा स्वरूप



सिंहसनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कंदमाता यशस्विनी॥

6. कात्यायनी : मां दुर्गा का छठवां स्वरूप




चंद्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥

7. कालरात्रि मां : दुर्गा का सातवां स्वरूप




एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टकभूषणा।
वर्धनमूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥

8. महागौरी : मां दुर्गा का आठवां स्वरूप



श्वेते वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बरधरा शुचिः।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोदया॥

9.सिद्धिदात्री : मां दुर्गा का नौवां रूप





सिद्धगंधर्वयक्षादौर सुरैरमरै रवि।
सेव्यमाना सदाभूयात सिद्धिदा सिद्धिदायनी॥

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माँ दुर्गा के सभी चित्र गूगल से साभार लिये गए हैं|
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प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रहमचारणी

तृतीयं चंद्रघंटेति कुष्मांनडेति चतुर्थकम

पंचमं स्कन्दमातेती षष्ठम कात्यायनीति च

सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम

नवमं सिद्धि दात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः

दुर्गा के नौ रूपों की विवेचना सरल, सहज सन्दर्भ में---इन रूपों की आध्यात्मिक कथा अलग है|
1शैलपुत्री- सम्पूर्ण जड़ पदार्थ भगवती का पहिला स्वरूप हैं पत्थर मिटटी जल वायु अग्नि आकाश सब शैल पुत्री का प्रथम रूप हैं। इस पूजन का अर्थ है प्रत्येक जड़ पदार्थ में परमात्मा को महसूस करना.

2.ब्रह्मचारिणी- जड़ में ज्ञान का प्रस्फुरण, चेतना का संचार भगवती के दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। जड़ चेतन का संयोग है। प्रत्येक अंकुरण में इसे देख सकते हैं।

3.चंद्रघंटा-भगवती का तीसरा रूप है यहाँ जीव में वाणी प्रकट होती है जिसकी अंतिम परिणिति मनुष्य में बैखरी (वाणी) है।

4.कुष्मांडा- अर्थात अंडे को धारण करने वाली; स्त्री ओर पुरुष की गर्भधारण, गर्भाधान शक्ति है जो भगवती की ही शक्ति है, जिसे समस्त प्राणीमात्र में देखा जा सकता है।

5.स्कन्दमाता- पुत्रवती माता-पिता का स्वरूप है अथवा प्रत्येक पुत्रवान माता-पिता स्कन्द माता के रूप हैं। 6.कात्यायनी- के रूप में वही भगवती कन्या की माता-पिता हैं। यह देवी का छटा स्वरुप है।

7.कालरात्रि- देवी भगवती का सातवां रूप है जिससे सब जड़ चेतन मृत्यु को प्राप्त होते हैं ओर मृत्यु के समय सब प्राणियों को इस स्वरूप का अनुभव होता है। भगवती के इन सात स्वरूपों के दर्शन सबको प्रत्यक्ष सुलभ होते हैं| आठवां ओर नौवां स्वरूप सुलभ नहीं है।

8.महागौरी-- का आठवां स्वरूप गौर वर्ण है। यह ज्ञान अथवा बोध का प्रतीक है, जिसे जन्म जन्मांतर की साधना से पाया जा सकता है।

9. सिद्धिदात्री--इसे प्राप्त कर साधक परम सिद्ध हो जाता है। इसलिए इसे सिद्धिदात्री कहा है।
सन्दर्भ -प्रो बसंत प्रभात जोशी के आलेख से

अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व आठ सिद्धियां होती हैं। इसलिए इस देवी की सच्चे मन से विधि विधान से उपासना-आराधना करने से यह सभी सिद्धियां प्राप्त की जा सकती हैं|

बेतार संदेश-लघुकथा

बेतार संदेश

'' कहने को तो आठ दरवाजे हैं इस फ्लोर पर किन्तु सारे ही बन्द रहते हैं| किसी से किसी को कोई मतलब नहीं| किसी को अभी तक पहचानती भी नहीं| इससे अच्छा हमारा छोटा सा शहर था जहाँ नए पड़ोसी के आते ही सभी उनकी जरूरतें पूछने आते हैं| एक घर में मरीज हो और पथ्य दूसरे के घर से आए, ऐसी संवेदना यहाँ कहाँ| टोकरी न रखो तो दूधवाला दूध का पैकेट रखे बिना ही चला जाता है| बेल बजाकर कारण जानने की भी जरूरत महसूस नहीं करता| कचरा वाला एक बार बेल बजाता है| दरवाजा खोलकर कचरे दूँ या न दूँ, उसे फर्क नहीं पड़ता| सिर्फ ऊँची ऊँची इमारतें , सड़कों पर आदमी से अधिक गाड़ियाँ| लिफ्ट खराब हो जाए तो पन्दहवें तल्ले से नीचे कैसे जाऊँगी|अभी मेरी तबियत खराब हो जाए तो मैं क्या करूँगी...''

रात के नौ बज रहे थे| दूर तक रौशनी ही रौशनी| अपने अँधेरे बालकनी में खड़ी खड़ी सत्तर वर्षीया तुलिका देवी सोच के सागर में डूबी थीं| उन्होंने जिस सहजता और निडरता से बेटे को विदेश जाने की अनुमति दी थीं उसका कायान्तरण भयावह सोच के रूप में हो रहा था|

जाते जाते बेटे ने कहा था,''मैं अफ्रीका के जिस ग्रामीण इलाके क्षेत्र में जा रहा हूँ वहाँ से शायद फोन भी न कर पाऊँ| माँ, आपको वृद्धाश्रम मे छोड़ दूँ उतने दिनों ले लिए?''
''नहीं , मैं रह लूँगी'', दृढ़ता से कह दिया था उन्होंने|
फिर यह भय क्यों...रह रह कर उनकी बूढ़ी हडँडियाँ कँपकँपा जाती|
तभी डोर बेल बजी|
इतनी रात को कौन हो सकता है...कहीं किसी को पता तो नहीं चल गया कि घर में बुढ़िया अकेली है| दरवाजे पर लगी लेंस से भी धुँधला दिखता है|
डरते डरते उन्होंने दरवाजा खोला|
''आंटी, मैं इसी फ्लोर पर रहती हूँ| मुझे पता है कि अभी कुछ महीने आप अकेली रहेंगी| कुछ जरूरत हो तो बता दीजिएगा|''
''मगर कैसे, यदि आधी रात में जरूरत हुई तो...'' मन का भय छुप न पाया|
''आंटी, आप यह रिमोट रखिए| इसकी घंटी मेरे पास रहेगी| आपको जब भी जरूरत हो, बिना संकोच के रिमोट दबा दीजिएगा| मैं आ जाऊँगी|''
''ओह, मैंने सोचा , मैं बिल्कुल अकेली हूँ| हमेशा खुश रहो बेटी|''
कुछ देर बाद रिमोट को सीने से दबाए तुलिका देवी खर्राटें भर रही थीं|
--ऋता शेखर 'मधु'

शनिवार, 2 सितंबर 2017

सोच के बादल-लघुकथा

सोच के बादल

आज गणेश चतुर्थी के कारण ड्राइवर और मेड छुट्टी पर थे| अमृता और सरस पूजा की तैयारी में व्यस्त थे|
अचानक सरस को इमर्जेंसी कॉल आ गया | कोई ऊँची इमारत से गिर गया था और तुरंत इलाज की जरूरत थी|
''यार अमृता, जल्दी निकलना पड़ेगा| मैं शावर के लिए जा रहा हूँ| मेरी एक ड्रेस निकालकर प्रेस कर देना|''
''ठीक है'', अमृता ने कहा किन्तु वह भूल गई|
बाथरूम से निकलने पर सरस को कपड़े नहीं मिले तो वह चिल्ला पड़ा| हड़बड़ाई सी अमृता ने आकर कपड़े निकालने चाहे तो सरस ने उसका हाथ झटकते हुए कहा,''रहने दो, मैं कर लूँगा|''
सरस का ऐसा रूप अमृता ने पहले नहीं देखा था| रुआँसी होकर वह किचेन में गई और चाय बिस्किट ले आई|
''रहने दो, ऐसे ही जाऊँगा| जो कहा वह तो किया नहीं अब ये क्या है'', कहता हुआ दरवाजा खोल वह बाहर निकल गया|
आज कोर्ट में अमृता के वो क्लाइंट आने वाले थे जिन्होंने दो महीने पहले तलाक की अर्जी दी थी और अमृता ने उन्हें समझाते हुए दो महीने और साथ रहने को कहा था| उसका मन यह जानने को उत्सुक था कि दोनों ने क्या सोचा है|
किन्तु अब उसका मन कोर्ट जाने का नहीं हो रहा था| उसने मन ही मन कुछ निर्णय लिया| अपने जरूरत का सामान रखकर अमृता ने सूटकेस की जिप लगाई और दरवाजे से सटी दीवार के पास रख दिया| किचेन में जाकर चाय बनाई और कप लेकर बालकनी में खड़ी हो गई| आज आसमान मेघाच्छादित था| बादलों ने सूर्य को पूरी तरह से ढक रखा था| क्षण भर को उनकी गिरफ़्त से सूर्य निकल आता किंतु बादलों के झुँड उसे पुनः दबोच लेते| अमृता के दिमाग में विचारों की आवाजाही तेजी से चल रही थी|
''कोई इतनी बुरी तरह किसी को कैसे डाँट सकता है| मुझे भी तो कोर्ट जाने की जल्दी थी| जल्दी पूजा करके निकलना था|''
उसे सहेलियों का मजाक में यह कहना याद आ रहा था,''अमृता वकालत पढ़ेगी और जब उसका पति उसे डाँटेगा तो न जाने उसपर कौन सी धारा ठोक देगी...च्च्च बेचारा पति'' फिर खिलखिला पड़तीं सब के सब|
''और नहीं तो क्या, हम नारियाँ होने वाले अत्याचार के लिए खुद दोषी हैं,''वह भी कहाँ चुप रहती थी|
चाय पीते पीते वह वह ड्राइंग रूम के उस कोने में जा पहुँची जहाँ सरस की दादी माँ की तस्वीर लगी थी| ध्यान से वह तस्वीर देखने लगी| चंदन की माला के पीछे से दादी की स्नेहिल मुस्कान छलक रही थी| उसे लगा कि वह आज फिर से कह रही हैं'' बेटा , सरस में तुमने अभी प्रेमी का रूप देखा है| जब उसके गुस्से को झेल लोगी तब सही मायने में उसकी प्रेमिका बनोगी| मैं जानती हूँ कि तुम झेल लोगी''
ओह, दादी जानती थीं कि उनका पोता बहुत गुस्सैल है| किन्तु उन्होंने मुझमें भी तो विश्वास दिखाया था|
''उफ्फ, क्या करूँ'' अपने ही विचारों से आँखमिचौनी खेलती हुई अमृता बेचैनी से टहल रही थी| तभी फोन की घंटी बज उठी|
''मैम, हम दोनो को तलाक की अर्जी वापस लेनी है, आप जल्दी आइए''
''पर यह चमत्कार कैसे''
''आपके कहे अनुसार इन दो महीनों में हमने सिर्फ एक दूसरे की अच्छाइयों पर ही बातें कीं|
''अरे वाह! आती हूँ'', कहकर सूटकेस वापस कमरे में ले आई| सारे सामान जगह पर रखे |
तब तक आसमान में सूर्य भी बादलों की पकड़ से छूटकर पूर्ण प्रकाश के साथ चमक रहा था|
-ऋता शेखर 'मधु'
31/08/17