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शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

बेतार संदेश-लघुकथा

बेतार संदेश

'' कहने को तो आठ दरवाजे हैं इस फ्लोर पर किन्तु सारे ही बन्द रहते हैं| किसी से किसी को कोई मतलब नहीं| किसी को अभी तक पहचानती भी नहीं| इससे अच्छा हमारा छोटा सा शहर था जहाँ नए पड़ोसी के आते ही सभी उनकी जरूरतें पूछने आते हैं| एक घर में मरीज हो और पथ्य दूसरे के घर से आए, ऐसी संवेदना यहाँ कहाँ| टोकरी न रखो तो दूधवाला दूध का पैकेट रखे बिना ही चला जाता है| बेल बजाकर कारण जानने की भी जरूरत महसूस नहीं करता| कचरा वाला एक बार बेल बजाता है| दरवाजा खोलकर कचरे दूँ या न दूँ, उसे फर्क नहीं पड़ता| सिर्फ ऊँची ऊँची इमारतें , सड़कों पर आदमी से अधिक गाड़ियाँ| लिफ्ट खराब हो जाए तो पन्दहवें तल्ले से नीचे कैसे जाऊँगी|अभी मेरी तबियत खराब हो जाए तो मैं क्या करूँगी...''

रात के नौ बज रहे थे| दूर तक रौशनी ही रौशनी| अपने अँधेरे बालकनी में खड़ी खड़ी सत्तर वर्षीया तुलिका देवी सोच के सागर में डूबी थीं| उन्होंने जिस सहजता और निडरता से बेटे को विदेश जाने की अनुमति दी थीं उसका कायान्तरण भयावह सोच के रूप में हो रहा था|

जाते जाते बेटे ने कहा था,''मैं अफ्रीका के जिस ग्रामीण इलाके क्षेत्र में जा रहा हूँ वहाँ से शायद फोन भी न कर पाऊँ| माँ, आपको वृद्धाश्रम मे छोड़ दूँ उतने दिनों ले लिए?''
''नहीं , मैं रह लूँगी'', दृढ़ता से कह दिया था उन्होंने|
फिर यह भय क्यों...रह रह कर उनकी बूढ़ी हडँडियाँ कँपकँपा जाती|
तभी डोर बेल बजी|
इतनी रात को कौन हो सकता है...कहीं किसी को पता तो नहीं चल गया कि घर में बुढ़िया अकेली है| दरवाजे पर लगी लेंस से भी धुँधला दिखता है|
डरते डरते उन्होंने दरवाजा खोला|
''आंटी, मैं इसी फ्लोर पर रहती हूँ| मुझे पता है कि अभी कुछ महीने आप अकेली रहेंगी| कुछ जरूरत हो तो बता दीजिएगा|''
''मगर कैसे, यदि आधी रात में जरूरत हुई तो...'' मन का भय छुप न पाया|
''आंटी, आप यह रिमोट रखिए| इसकी घंटी मेरे पास रहेगी| आपको जब भी जरूरत हो, बिना संकोच के रिमोट दबा दीजिएगा| मैं आ जाऊँगी|''
''ओह, मैंने सोचा , मैं बिल्कुल अकेली हूँ| हमेशा खुश रहो बेटी|''
कुछ देर बाद रिमोट को सीने से दबाए तुलिका देवी खर्राटें भर रही थीं|
--ऋता शेखर 'मधु'

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