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शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ !!



करती समर्पित काव्य उनको, देश हित में जो डटे|
वे वेदना सहते विरह की, संगिनी से हैं कटे ||


दिल में बसा के प्रेम तेरा, हर घड़ी वह राह तके|
लाली अरुण या अस्त की हो, नैन उसके नहिं थके||

जब देश की सीमा पुकारे, दूर हो सरहद कहीं|
इतना समझ लो प्यार उसका, राह का बाधक नहीं||

तुम हो बहादुर, ओ सिपाही, याद उसकी ले चलो|
संबल वही है जिंदगी का, साथ में फूलो फलो||

आशा, कवच बन कर रहेगी, बात यह बांधो गिरह|
तुम लौट आना एक दिन तब, भूल जाएगी विरह|

फिर मांग में भर के सितारे, वह सजी तेरे लिए|
अर्पण करेगी प्रीत अपना, आँख में भर के दिए||

ले लो दुआएँ इस जहाँ की, भूल जाओ पीर को|
आबाद हो संसार तेरा, अंक भर लो हीर को||

जब जब तिरंगा आसमाँ में, शान की गाथा लिखे|
हम सब नमन करते रहेंगे, वीर, तुम मन में दिखे ||
....................ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

आत्मबोध जागृत रहे, कर में हो संघर्ष--दोहे

जब छाए मन व्योम पर, पीर घटा घनघोर|
समझो लेखन बढ़ चला, इंद्रधनुष की ओर||

दिशा हवा की मोड़ते, हिम से भरे पहाड़।
हिम्मत की तलवार से, कटते बाधा बाड़।।

खुशी शोक की रागिनी, खूब दिखाते प्रीत।
जीवन के सुर ताल पर, गाये जा तू गीत।।

शब्द शब्द के मोल हैं, शब्द शब्द के बोल।
मधुरिम बात विचार से, शब्द हुए अनमोल||

नफऱत कभी न कीजिये, ना कीजे अभिमान।
घुन समान खोखल करे, मन के सारे ज्ञान।।

हरे भरे मन खेत पर, उगे ज्ञान का धान।
छल के खरपतवार से, कुंठित होता मान।।

जग के माया मोह में, आते खाली हाथ।
सखा बना लो पुण्य को, वही चलेंगे साथ।।

आत्मबोध जागृत रहे, कर में हो संघर्ष|
आत्मशक्ति लिखती रही, जीवन का उत्कर्ष||

भाई है इक छोर पर, बहना दूजी ओर|
ये मीलों की दूरियाँ, पाटें रेशम डोर||

लिखने को तो सब लिखें, रचते हैं कुछ चंद।
छोड़े गहरी छाप जो, वही है प्रेमचंद।।

ज्ञानी ध्यानी नम्र हो, फिर भी करना शोध।
छीने आधी बुद्धि को, तेरा अपना क्रोध ।।

बात बात पर दे रहे, फूलों की सौगंध।
बगिया मुरझाने लगी, खोकर अपनी गंध।

बहु रंगों को धारता, कृष्ण मयूरी पंख।
श्याम दरस की आस से , विकल बजावे शंख।।

अफ़रातफ़री से कहाँ,होते अच्छे काम।
सही समय पर ही लगे,मीठे मीठे आम||
--ऋता शेखर 'मधु'

रविवार, 14 जनवरी 2018

बिसात जीवन की














देखो बंधु बाँधवों,
जिंदगी ने बिछायी है
बिसात शतरंज की
बिखरायी है उसने
मोहरें भाव-पुंज की
श्वेत-श्याम खानों के संग
दिख जाते सुख-दुःख के रंग
प्यादे बनते सोच हमारी
सीधी राह पर चलते हुए
सरल मना को किश्ती प्यारी
तीव्र चतुर दलबदलू ही
करते हैं घोड़ों की सवारी
व्यंग्य वाण में माहिर की
तिरछी चाल विशप कटारी
समयानुकूल वजीर बने जो
चाणक्य नीति के वो पिटारी
सबकी चालें सहता हुआ
बादशाह है हृदय बेचारा
नाप रहा उल्फ़त से पग
कैसे  विजय मिले दोबारा
विषयासक्त अनुरागी को
यह टकराव बना रहेगा
कुछ भी कर लो जेहनवालों
अज्ञानी से ठना रहेगा
पूर्वाग्रह के पिंजरे में बैठे
अजनबी  क्षितिज पर दिखते
हल्की सी भी ठेस लगे तो
यातना के नज़्म लिखते
ऐ जिंदगी,
छलिया बन तूने
हम सबको है नाच नचाया
बाँध के धागे भाव पगे
तूने सबसे रास रचाया
पर समझ लेना यह बात
मात हमें न दे पाएगी
मनु के अंतर्मन की शक्ति
तेरा हर घात सह जाएगी|
चालें चाहे हों जितनी शतरंजी
बस एक निवेदन करती हूँ
उनकी खुशियाँ खोने न देना
जिन रिश्तों पर मरती हूँ|
-ऋता शेखर ‘मधु’

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

स्वप्नलोक


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स्वप्नलोक....


बचपन का वह स्वप्नलोक अब विस्मृत होता जाता है
जलपरियाँ जादुई समंदर सन्नाटे में खोता जाता है

सीप वहाँ थे रंग बिरंगे मीन का नटखट खेल था
सजा सजीला राज भवन जहाँ तिलस्म का मेल था

सजा सजीला एक कुँवर बेमिसाल इक राजकुमारी
प्रीत कँवल खिलते चुपके से छाती दोनो पर खुमारी

हस्तक दे दे हँसते थे वो इक दूजे की करें प्रतिष्ठा
प्रेम भरी आँखों में, दिखती रहती सच्ची निष्ठा

दूर कहीं से देखा करता सींगों वाला दैत्य भयानक
अशांति का दूत बड़ा वह बन जाता था खलनायक

एक दिवस ऐसा भी आया विपत्ति बन वह मँडराया
शहजादा बनकर आया और परी कुमारी को भरमाया

पल भर बीते तभी वहाँ पर राजकुमार की आई सवारी
विस्मित रह गई भोली परियाँ, थी अवाक वह राजकुमारी
*
ओह, जुदा होकर कैसे जीएँगे, नींद में वह धीरे से बोली
कौन जुदा होता है मुनिया, पूछी रही सखियों की टोली

झट उठ बैठी बिस्तर पर, अपनी बोझिल पलकें खोली
रब ऐसे सपने न देना जिसमें कोई, किसी की तोड़े डोली

इस प्रलाप से जन्म ले रही थी, कहीं पर एक कहानी
जब पुरातन वह हो जाएगी, इसे कहेगी बनकर नानी

ऋता शेखर ‘मधु’

बुधवार, 10 जनवरी 2018

संक्रांति की सौगात

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संक्रांति की सौगात
मकर संक्रांति के दिन सुषमा ने नहा धोकर तिलवा और गुड़ चढ़ाकर विष्णु पूजन किया| सास, ससुर, देवर, ननद पति,जेठ, जेठानी सबको प्रसाद दे आई| यह सब करते हुए वह अनमयस्क सी लग रही थी| सास की अनुभवी आँखों ने समझ लिया था उसकी उदासी का कारण| कल जबसे बड़ी बहु के मैके से मकर संक्राति की सौगात आई थी तब से सुषमा के चेहरे पर एक उदासी तिर गई थी| अभी चार महीने पहले ही उसकी माँ का स्वर्गवास हुआ था| पहले सुषमा के घर से भी मकर संक्रांति के उपहार आते थे| उसके शादीशुदा भाई को बहनों से कोई खास लगाव नहीं था इसलिए किसी सौगात की उम्मीद भी न थी|

‘सुषमा, खाना के बाद हमलोग छत पर पतंग उड़ाने जाएँगे| तुम भी तैयार हो जाना उस समय, पतंग खूब ऊँचे तक उड़ा लेती हो तुम’, सास की आवाज़ आई|

‘मगर माँजी, मेरी तबियत ठीक नहीं लग रही| शायद तैयार न हो पाऊँ’, सुषमा ने धीमे से कहा|

‘मन ठीक हो जाए तो आ जाना,’ कहकर सासू माँ अपने कमरे में चली गईं और जाते जाते सुषमा के पति को भी आने को कहा|

दोपहर कीं नींद सुषमा की आँखों को बोझिल बना रही थी| तभी डोरबेल बजी| कुछ पल सुषमा ने इन्तेज़ार किया कि कोई खोलेगा किन्तु शायद सब सो गए थे| सुषमा ने दरवाजा खोला| दरवाजे पर कोई पार्सल लेकर आया था| सुषमा ने देखा कि पैकेट पर उसका ही नाम था| उसे आश्चर्य हुआ तो जल्दी से उसने भेजने वाले का नाम देखा|

‘महेश वर्मा’ खुशी से लगभग चीख पड़ी सुषमा| पार्सल रिसीव किया और पैकेट खोलने लगी| तब तक सास और पति वहाँ आ गए थे|

‘ये क्या है, किसने भेजा’ लगभग एक साथ सास और पति पूछ बैठे|

‘भइया ने संक्रांति गिफ़्ट भेजा है’ चहकती हुई वह बोली,मैं पतंग उड़ाने छत पर अवश्य जाऊँगी|’’

सास और पति एक दूसरे की ओर देखकर मुस्कुरा दिए|


आधे घंटे बाद सब लोग तैयार हो चुके थे| तभी फिर से डोरबेल बजी|

“कौन होगा”, ये सोचती हुई सुषमा देवाजे पर गई| दरवाजा खोलते ही उसकी आँखें विस्फरित रह गईं|

‘भइया-भाभी, आप दोनो” अविश्वास से उसने कहा|

“और नहीं तो क्या, संक्रांति की सौगात ननद रानी को देना था न” कहते हुए भाभी ने सुषमा के हाथों में पैकेट पकड़ाया|

‘तो अभी जो पार्सल आया वो किसने भेजा’ सोचती हुई सुषमा भाई भाभी के साथ कमरे की ओर बढ़ी|

वहाँ सास और पति अर्थपूर्ण ढ़ग से मुस्कुरा रहे थे|

‘अच्छा, तो ये माँ-बेटे की मिलीभगत थी ’ सोचती हुई वह भी मुस्कुरा दी|

--ऋता शेखर ‘मधु’

बुधवार, 3 जनवरी 2018

नए साल पर....


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नए साल पर....
फिर से रमिया चलो गाँव में

लेकर अपनी टोली
छोड़ चलो अब महानगर की
चिकनी चुपड़ी बोली

नए साल पर हम लीपेंगे
चौखट गोबर वाली
अँगना में खटिया के ऊपर
छाँव तरेंगन वाली
श्रीचरणों की छाप लगाकर
काढ़ेंगे रंगोली

फिर से रमिया चलो गाँव में
लेकर अपनी टोली
बरगद की दाढ़ी पर चढ़कर
फिर झूला झूलेंगे
पनघट पर जब घट भर लेंगे
हर झगड़ा भूलेंगे
बीच दोपहर में खेलेंगे
गिल्ली डंडा गोली

फिर से रमिया चलो गाँव में
लेकर अपनी टोली

दिन भर मोबाइल को लेकर
कोई नहीं हिलता है
हर सुविधा के बीच कहें सब
समय नहीं मिलता हैं
धींगामस्ती को जी चाहे
सखियों संग ठिठोली

फिर से रमिया चलो गाँव में
लेकर अपनी टोली

अब गाँव में सभी वर्जना
हम मिलकर तोड़ेंगे
शिक्षा की नव ज्योत जलाकर
हर नारी को जोड़ेंगे
सुता जन्म पर हम डालेंगे
सबके माथे रोली

फिर से रमिया चलो गाँव में
लेकर अपनी टोली
_ऋता शेखर ‘मधु’