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सोमवार, 28 अगस्त 2017

भूख का पलड़ा-लघुकथा

भूख का पलड़ा

तीन माले वाले मकान की ऊपरी छत पर मालिक- मालकिन से लेकर नौकर- चाकर सब जमा थे| चार दिन हो चुके थे बस्ती को बाढ़ की चपेट में आए हुए| पहले दो दिन तो वही बिस्किट और चूड़ा चलता रहा जो लेकर वे चढ़ पाए थे|तीसरा दिन फाँके में बीता| 

आज चौथे दिन अचानक एक हेलीकॉप्टर छत पर आया और राहत सामग्री के रूप में कुछ खाने के पैकेट गिरा कर चला गया| पैकेट लेने सब दौड़ पड़े|  भूख के आगे नौकर और मालिक का भेद मिट चुका था| जिसे जो मिला वही खाने लगा|कौशल्या देवी छत के कोने में बिछी दरी पर चुपचाप बैठी थीं|उन्होंने कुछ नहीं उठाया था|
"मालकिन, आपहुँ कुछ खा लेव '', घर की सबसे पुरानी दासी ने कौशल्या देवी की ओर बिस्किट का पैकेट बढ़ाया|
''ना री, तू ही खा ले| भूख नहीं है।'
''अइसे कइसे, जब तक अपने ना खाइब, हम भी ना खइबे|''
'' देख रामपीरितिया, जिद ना कर और खा ले|''
''भूख के मरम हम जानत रहीं मालकिन| केकरो सामने हाथ पसारे के मरम हम जानत रहीं| जी मार के रहे के मरम हम जानत रहीं। आप भी केतना दिन भुखले रहीं| पेट भरल में सब इज्जत-बेइज्जती सोचे के चाहीं| भुख्खल पेट के तो खाली खाना चाहीं|''
इस बार खाने का पैकेट दासी के हाथ मे था और उसे लेने के लिए कौशल्या देवी के हाथ धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे।
-ऋता शेखर 'मधु'

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