परिधान
सभ्यता उन्नत हुई, तब आया परिधान।
पहनावा भी है नियत, है इनका भी स्थान।।
लहँगा चुन्नी साड़ियाँ, दुल्हन का परिधान।
मंडप पर होता नहीं, जींस टॉप में दान।।
पूजाघर में सोच लो, बिकनी का क्या काम।
सूट साड़ी ओढ़नी, लेती उसको थाम।।
स्वीमिंग पूल में कहाँ, साड़ी बाँधें आप।
सोचो ट्रैक सूट बिना, छोड़ें कैसे छाप।।
सेना वर्दी में रहें, तब होती पहचान।
स्कूल ड्रेस जब से बनी, बच्चे हुए एक समान।।
धोतियाँ शेरवानियाँ, लड़के पहनें सूट।
कश्मीरी जूता सहित, भाते उनको बूट।।
वस्त्रों से माहौल भी, पा जाता है भेद।
मातम में अक्सर मनुज, भाता रहा सफेद।।
ऋता शेखर
क्यों दिखलाते अंग को, कैसी है अब सोच।
गरिमा तन की भूलकर, दिखलाते हैं लोच।।
कितनी फूहड़ सी लगें, आधे वस्त्रों में नार।
उल्टे सीधे तर्क में, छोड़ें सद्व्यवहार।।
सादर धन्यवाद श्वेता जी।
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आ0 सुशील जी।!
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