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गुरुवार, 31 अगस्त 2017

आकलन-लघुकथा

आकलन
स्कूल जाने के लिए रेवा बस स्टॉप पर पहुँच चुकी थी| वहाँ पहुँच कर पता चला कि उस दिन बस हड़ताल थी| अब क्या करे रेवा| तभी अत्याधुनिक कपड़ों मे स्कूटी चलाकर जाती हुई एक महिला दिखी| उसने लिफ्ट के लिए हाथ दिया| स्कूटी वहाँ पर रुकी|
''क्या आप मुझे जीरो माइल तक लिफ्ट देंगी| मैं वहाँ से पैदल ही स्कूल चली जाऊँगी| आज स्कूल में एक महत्वपूर्ण आयोजन है और जाना जरूरी है| ''
वह रेवा के ढीले ढाले सलवार समीज को देखकर उसके स्तर का अंदाज लगा रही थी| फिर ''समय नहीं'' कहती हुई फर्राटे से निकल गई|
अभी रेवा ने दूसरी सवारी की ओर देखना शुरु ही किया था कि धम से आवाज सुनाई दी | रेवा ने पलट कर देखा|
''अरे , यह तो वही है'' सोचती हुई वह उस तरफ बढ़ी| सड़क पर बड़ा सा पत्थर था और स्कूटी शायद उसी से टकरा गई थी| उसे सिर पर जोर से चोट लगी थी इसलिए थोड़ी बेहोशी थी शायद| रेवा ने अपने बैग से पानी का बॉटल निकाला और उसे पिलाया| चेहरे पर पानी के छींटे भी दिए| धीरे धीरे उसने आँखें खोली|
''चलिए, आपको घर छोड़ दूँ,''रेवा ने उसे सहारा देते हुए उठाया|
''मैं चली जाऊँगी''
''नहीं, आप स्कूटी पर बैठें , मैं चलाकर ले जाऊँगी' 'रेवा ने सख्ती से कहा|
वह पीछे बैठ गई|
''मेरी स्कूटी खराब थी इसलिए...'' उसकी प्रश्न भरी नजरों को समझ कर रेवा ने मुसकुरा कर स्वयं ही कह दिया|
-ऋता शेखर 'मधु'

सोमवार, 28 अगस्त 2017

भूख का पलड़ा-लघुकथा

भूख का पलड़ा

तीन माले वाले मकान की ऊपरी छत पर मालिक- मालकिन से लेकर नौकर- चाकर सब जमा थे| चार दिन हो चुके थे बस्ती को बाढ़ की चपेट में आए हुए| पहले दो दिन तो वही बिस्किट और चूड़ा चलता रहा जो लेकर वे चढ़ पाए थे|तीसरा दिन फाँके में बीता| 

आज चौथे दिन अचानक एक हेलीकॉप्टर छत पर आया और राहत सामग्री के रूप में कुछ खाने के पैकेट गिरा कर चला गया| पैकेट लेने सब दौड़ पड़े|  भूख के आगे नौकर और मालिक का भेद मिट चुका था| जिसे जो मिला वही खाने लगा|कौशल्या देवी छत के कोने में बिछी दरी पर चुपचाप बैठी थीं|उन्होंने कुछ नहीं उठाया था|
"मालकिन, आपहुँ कुछ खा लेव '', घर की सबसे पुरानी दासी ने कौशल्या देवी की ओर बिस्किट का पैकेट बढ़ाया|
''ना री, तू ही खा ले| भूख नहीं है।'
''अइसे कइसे, जब तक अपने ना खाइब, हम भी ना खइबे|''
'' देख रामपीरितिया, जिद ना कर और खा ले|''
''भूख के मरम हम जानत रहीं मालकिन| केकरो सामने हाथ पसारे के मरम हम जानत रहीं| जी मार के रहे के मरम हम जानत रहीं। आप भी केतना दिन भुखले रहीं| पेट भरल में सब इज्जत-बेइज्जती सोचे के चाहीं| भुख्खल पेट के तो खाली खाना चाहीं|''
इस बार खाने का पैकेट दासी के हाथ मे था और उसे लेने के लिए कौशल्या देवी के हाथ धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे।
-ऋता शेखर 'मधु'

गुरुवार, 24 अगस्त 2017

पुनर्घटित-लघुकथा

पुनर्घटित
''माँ, भइया, देखिए, मेरा निफ़्ट का रिज़ल्ट आ गया है| मैं टॉप टेन में हूँ| मुझे मनचाही जगह मिल जाएगी| मुझे बताइए आपलोग कि कहाँ एडमिशन लूँ?'' निम्मी ने चहकते हुए आवाज दी|
''कोई जरूरत नहीं कहीं भी जाने की| यहीं से ग्रेजुएशन करो चुपचाप'', अचानक भाई निखिल की आवाज आई|
''क्यों जरूरत नहीं, मेरी एक फ्रेंड का भी हुआ है, वो कोलकाता जाएगी|'' ''उसे जाने दो, तुम्हें कहीं नहीं जाना|''
''भइया..." निम्मी रोकर पैर पटकती हुई कमरे में चली गई|
पापा का नहीं रहना आज से पहले उसे नहीं खला था|
तब तक माँ आ गई थी| उन्हें लगा जैसे निम्मी की जगह वह खड़ी हैं और निखिल की जगह उनका भाई जो उच्च स्वर में कह रहा हो,''मेरे दोस्त का छोटा भाई उच्च पद पर है| रुनी के लिए इससे अच्छा वर नहीं मिलेगा| माँ, इस वर्ष इसकी परीक्षा छुड़वा दीजिए और उसकी शादी कीजिए| बाकी पढ़ाई शादी के बाद भी कर सकती है,'' और माँ कुछ न बोली| एक मलाल लिए रुक्मणि ससुराल चली गई |
आज वह भी उसी जगह खड़ी थी किन्तु वह अपनी माँ की तरह चुप नहीं रहना चाहती थी|
''वह जाएगी, अभी उसकी माँ जिन्दा है|''
बेटे की बात का कभी विरोध न करने वाली माँ आज अचानक भाई-बहन के बीच ढाल बनकर खड़ी हो गई|
-ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 22 अगस्त 2017

अमरत्व-लघुकथा

अमरत्व

भारत में कम्पनी स्थापित करने के इरादे से अमरीका से मिस्टर हैरी की अगुआई में एक टीम भारत आई थी| वे महानगर के आसपास की पर्यावरणीय स्थिति का अवलोकन करना चाहते थे इसलिए उन्हें बंगलोर के निकटस्थ जंगल में लाया गया था| वहाँ लगे आम्रकुँज, जामुन , पीपल, बरगद और चीर के समूह से वे बहुत प्रभावित हो रहे थे| जंगल के बीचोबीच एक स्मारक था जहाँ लिखा था-

'' लोग जंगल काटकर इमारत बनाते हैं| मैं इमारत ढाहकर जंगल बसा रही हूँ| अगली पीढ़ी के लिए मैं विरासत में हरियाली और ऑक्सीजन की दौलत छोड़े जा रही हूँ| मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन मेरा पोता यहाँ जरूर आएगा| उस वक्त इन पेड़ों की हवाएँ उसे सहलाएँगी और वह मुझे याद करेगा| कोयल और पपीहों की आवाज में उसे मेरी लोरी सुनाई देगी| फूलों की खुश्बू में वह अगबत्ती की सुगंध महसूस करेगा| आओगे न हरीश...
तुम्हारी दादी-मालती स्वामी "
''मैं आ गया हूँ दादी, तुम्हारा हरीश आ गया,'' नम आँखों से अचानक मिस्टर हैरी स्मारक से लिपट गए|
उनके मस्तिष्क में चलचित्र की भाँति एक धुँधला सीन चल रहा था|
''माँ, ये इमारत बेच दीजिए और हमारे साथ अमरीका चलिए| मैं हरीश को भारत में नहीं रखना चाहता| अमरीका की उच्च जीवन शैली में उसे उच्च शिक्षा दूँगा|''
''नहीं , मैं अपना देश छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगी| इमारत भी नहीं बेचनी है| यहाँ मैं जंगल बसाऊँगी,''दस वर्ष की उम्र में सुनी हुई दादी की दृढ़ आवाज आज फिर हरीश के कानों में गूँज गई|
''मिस्टर हैरी, दिस लोकेशन इज़ ब्यूटिफ़ुल| वी शुड एस्टैब्लिश आवर कम्पनी हियर| व्हाट इज़ योर ओपिनियन,'' साथ आए मिस्टर डिसूजा ने पूछा|
''इस जंगल को मैं नहीं काट सकता| यहाँ मेरी ग्रैंडमॉम रहती है|''
कहते हुए मिस्टर हैरी दूसरे स्थान के अवलोकन के लिए बढ़ गए|
--ऋता शेखर 'मधु'

रविवार, 20 अगस्त 2017

हर घर में पल रहा है इक साथी नवाब का--ग़ज़ल

आज एक ग़ज़ल

मजमून ही न पढ़ पाए दिल की किताब का
क्या फ़ायदा मिला उसे फिर आफ़ताब का

हर पल बसी निगाह में सूरत जो आपकी
फिर रायगाँ है रखना रुख पर हिजाब का

इस ख़ल्क की खूबसूरती होती रही बयाँ
हर बाग में दिखे है नजारा गुलाब का

हाथों में थाम कर के वो रखते रिमोट को
हर घर में पल रहा है इक साथी नवाब का

हल्की हुई गुलाब की लाली जो धूप से
देखा न जाए हमसे उतरना शबाब का

लिखती रही है मधु सदा जोश-ए-जुनून से
मिलता नहीं पता उसे कोई ख़िताब का

--ऋता शेखर 'मधु'
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शनिवार, 19 अगस्त 2017

तुम अब भी हो-लघुकथा

तुम अब भी हो

ट्रेन पहले ही सोलह घंटे लेट हो चुकी थी| विह्वल सा आकाश बार बार घड़ी देखे जा रहा था| व्हाट्स एप पर हर मिनट एक ही मेसेज भेजे जा रहा था,''कैसी हो''
अब जवाब आना भी बन्द हो गया था| पास बैठे बुजुर्ग सहयात्री तक को उसकी आकुलता समझ में आ रही थी|
''बेटे, अब तो पाँच मिनट में ट्रेन पहुँचने ही वाली है| तुम इतने परेशान क्यों हो|''
''बाबा, मेरी आशु आई सी यू में है और चन्द घंटे ही बचे हैं उसकी जीवन लीला खत्म होने में| हम दोनो एक दूसरे को बहुत प्यार करते हैं बाबा| मैं जाते जाते उसकी माँग में सिंदूर भरना चाहता हूँ ताकि वह सुहागन बनकर इस दुनिया से जाए| फिर मैं पूरी जिंदगी उसकी याद में बिता दूँगा', बोलते हुए आकाश ने एक सिंदूर की डिबिया निकाली और भर्राकर रो पड़ा|
ट्रेन में भी माहौल कुछ भारी सा हो गया| तब तक जंक्शन पर गाड़ी लग चुकी थी|
तुरंत टैक्सी कर के आकाश अस्पताल की ओर भागा| चूँकि आशु का जाना तय था इसलिए डॉक्टर ने सबको मिलने की छूट दे दी थी| आकाश ने पहुँचते ही आशु का हाथ अपने हाथ में ले लिया|
''आशु, यहाँ तुम्हारे और मेरे पापा- मम्मी और सब भाई- बहन मौजूद हैं| मैं सबके सामने तुम्हारी माँग भरना चाहता हूँ,'' कहते हुए आकाश ने डिबिया निकाली किन्तु आशु ने महीन आवाज में धीरे धीरे कहा,''मैं जाते जाते रिश्तों में नहीं बँधना चाहती आकाश| मुझे याद तो रखोगे न'', अब आशु की आँखों में कोई बूँद न थी, बस प्रेम था जो छलक रहा था|
आकाश ने कुछ पल सोचा और थके कदमों से पास ही बैठी आशू की दृष्टिबाधित बहन नयना के पास गया|
''नयना, क्या तुम मेरी पत्नी बनना स्वीकार करोगी|''
नयना की आँखों से अविरल धार बह निकली|
आकाश ने आशु की ओर देखा| एक सुकून पसरा हुआ था वहाँ|
आकाश की चुटकी का सिंदूर नयना की माँग को सजा चुका था|
''देखो आशु, तुम अब हमेशा मेरे पास रहोगी'', कहते हुए आकाश ने आशू की ओर देखा किन्तु वह प्रेम दीवानी तो अपने दीवाने को छोड़कर जा चुकी थी|
--ऋता शेखर 'मधु'

गुरुवार, 17 अगस्त 2017

हमारी दोस्ती-लघुकथा

हमारी दोस्ती

''अर्णव, एक महीने से ऊपर हो गया यहाँ आए हुए,'' पिता ने आखिरकार इकलौते पुत्र को टोक ही दिया|
''तो'' अर्णव ने थोड़ी लापरवाही से कहा|
''अपना रेज्युमें सभी जगह भेज तो रहे हो न''
''नहीं'' फिर से उसका संक्षिप्त जवाब आया|
''एग्रीकल्चर साइंस की पढ़ाई विदेश से पूरी करने के बाद यहाँ रहने का मतलब''अब पिता की आवाज में थोड़ी खीझ भरी हुई थी|

गाँव की पगडंडी पर तीन पीढ़ियाँ एक साथ चल रही थीं|पिता- पुत्र के संवाद के दौरान दादा जी चुप थे|खेत आ चुका था और धान के नन्हें नन्हें पौधे हवा के साथ अठखेलियाँ कर रहे थे| अर्णव ने हरियालियों के बीच अपना चार्जर खोंस दिया|

''ये क्या है बेटे'' अब दादा जी बोले|

''दोस्ती, एग्रीकल्चर की दोस्ती आधुनिक तकनीक के साथ| ये दोनों ही ऊर्जा के स्रोत हैं| मैंने विदेश से एग्रीकल्चर साइंस की पढ़ाई की है और उसका उपयोग अपने देश में करना चाहता हूँ दादा जी| आप अब बूढ़े हो गए हैं| इन खेतों का विस्तार नहीं संभाल पाएँगे| इसे मैं सम्भालता हूँ और आप गैजेट्स संभाल लीजिए|''
''मतलब'', पलकें झपकाते हुए दादा जी बोले|
''मतलब दादा जी, आप व्हाट्स एप और फेसबुक चलाना सीख लीजिए, मैं खेती करना सीखता हूँ| जहाँ भी हम अटकेंगे, एक दूसरे की मदद करेंगे पक्के दोस्त की तरह,'' चुहल भरे अंदाज में अर्णव ने कहा|
दो कलों का सामंजस्य देखकर पिता की आँखें छलछला गईं|
-ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 11 अगस्त 2017

कर्मयोगी-लघुकथा

कर्मयोगी
''मिसेज अणिमा, आपकी नियुक्ति यहाँ जीव विज्ञान के पद पर हुई है|स्नातक में आपने भोतिकी की पढ़ाई की हुई है| अभी इस विद्यालय में भौतिक विज्ञान के लिए कोई शिक्षक नहीं| बोर्ड की परीक्षा का समय नजदीक आ रहा| क्या आप बच्चों को भौतिकी पढ़ा देंगी?'' प्राच्रार्य महोदय ने अनुरोध के भाव से कहा|
''किन्तु सर, ये सब्जेक्ट गणित के शिक्षक को पढ़ाना चाहिए'' अणिमा ने कुछ सोचकर कहा|
''आपकी बात सही है| मैंने उनसे भी कहा था किन्तु....'' प्राचार्य महोदय ने अपनी बात पूरी नहीं की|
''किन्तु'' के आगे बोलने की जरूरत भी नहीं थी|
उच्च माध्यमिक विद्यालय में नियुक्त हुए अणिमा को लगभग एक महीना हो चुका था| नियुक्ति के बाद से उसने एक दिन के लिए भी अपना कोई भी क्लास मिस नहीं किया था जबकि कुछ सहशिक्षक बैठ कर गप्पें लड़ाते रहते| बरसों से बंद पड़ी प्रयोगशाला को खुलवाकर उसने सफाई करवाई और प्रयोग करवाने बच्चों को ले जाने लगी| बच्चे अणिमा मैम को पसंद करने लगे और यही बात पुराने शिक्षकों को नागवार लगने लगी| 
स्टाफ रूम में अणिमा कई कटाक्षों का शिकार होती रहती|
''आप तो बहुत काम करते हैं| इस बार राष्ट्पति अवार्ड के लिए आपका नाम जाना चाहिए|''
''इतना काम करके क्या होगा| ज्यादा तनख्वाह मिलेगी क्या''
''यह सरकारी संस्थान है| कोई नौकरी से थोड़े ही निकाल देगा|''
''हम जिस सब्जेक्ट के लिए आए हैं सिर्फ वही पढ़ाएँगे, दूसरा पढ़ाने से क्या मिलेगा| 
कर्मयोगियों की यहाँ कोई वैल्यू नहीं|''
प्राचार्य महोदय के प्रस्ताव पर यह सारी बातें अणिमा के मन में आने लगीं| उसे लगा कि क्यों वह इतनी मेहनत करे| इससे क्या फायदा होगा| फिर अगले ही पल प्राचार्य की उम्मीद भरी नजरें उसे उद्वेलित करने लगीं|
''जी सर, बच्चों के भविष्य का सवाल है और मैं तैयार हूँ|''
''मुझे आपसे यही उम्मीद थी'' मुस्कुराते हुए प्रिंसिपल ने कहा|
''मुझे आपसे यह उम्मीद नहीं थी'' स्टाफ रूम में घुसते ही गणित के शिक्षक ने तोप दाग ही दिया|
_ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 9 अगस्त 2017

कासे कहूँ-लघुकथा

कासे कहूँ
भाई के पास जाते हुए अचला ने अटलता से निर्णय कर लिया था। आज भाई से जानकर ही रहेगी कि वह कौन-सी बात है, जो उसे गाहे-बेगाहे उदास कर देती है|
भाई को उसके बच्चों से कितना अधिक प्यार हैं। हमेशा तरह-तरह के उपहार लाते हैं बच्चों के लिए, खूब हँसते, खिलखिलाते हैं बच्चों के साथ, किन्तु...! उसकी नजरें भाई की आँखों की नीरवता पढ़ लेतीं हैं। पिछले कई वर्षों से उसे महसूस हो रहा था, कि कुछ तो ऐसा दुख है जो भाई किसी से बाँटतें नहीं, मन ही मन घुटते रहतें हैं|

''भइया!'' अचला चहकती हुई घर में घुसी|
''आ गई बहन मेरी!'' भाई ने बहन का स्वागत किया|
अचला स्वयं ही प्लेट लाई| राखी,रोली, अक्षत , दीपक और मिठीइयों से प्लेट को सजाया| प्रेम से भाई को राखी बाँधी |
उसके बाद भाई ने उपहारस्वरूप एक लिफाफा आगे बढ़ा‌या|
''ना, नहीं लूँगी'' अचला ने हाथ पीछे कर लिया|
''क्यों री, ये नखरे क्यों, अगले साल गले का हार दूँगा | इस बार ये रख ले|''
''नहीं भइया, अगले साल उपहार स्वरूप एक भाभी चाहिए'' अचला ने भाई की आँखों में झाँकते हुए कहा जहाँ उदासी तिर चुकी थी|
''अचला, बेकार की जिद नहीं करते''
''ये बेकार की जिद नहीं भइया, आप मेरे बच्चों से कितना प्यार करते हो| मुझे भी तो बुआ बनने का शौक है, ये क्यों नहीं समझते आप|''
''तुम क्यों नहीं समझती कि अपनी अक्षमता के कारण मैं किसी लड़की को बाँझ का विशेषण नहीं दे सकता|''कहते कहते आवाज भर्रा गई थी भाई की |
अचला सन्न-सी कुछ देर चुप रही, फिर धीरे-से हाथ बढ़ा लिफाफा पकड़ लिया और कहा, "कल मेरे साथ आपको अस्पताल चलना है, सुना है इसका भी इलाज होता है।

अपनी कमी को स्वयं स्वीकारने वाले भाई के प्रति नतमस्तक थी अचला|

-ऋता शेखर 'मधु'
स्वरचित
8/08/17

मंगलवार, 8 अगस्त 2017

पूजा के फूल-लघुकथा

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पूजा के फूल
''माँ, मैंने पूजा के पास फूल रख दिए हैं,''यह ऋषभ की आवाज थी|
''मम्मी जी, जल्दी उठिए, चाय के लिए पानी चढ़ा दिया है चुल्हे पर, आपके कपड़े भी बाथरूम में रख दिए हैं,''यह बहु रीमा कह रही थी|
''अच्छा बाबा उठती हूँ, बहु, जरा पैर तो दबा दे पहले| और हाँ, तेरे पापा जी को मूली के पराठे पसन्द हैं| जरा मूली कस के रख दीजो|''
''ठीक है मम्मी जी,'' बहु गुनगुनाती हुई काम में व्यस्त थी|
कामिनी जी ध्यान से सुनने की कोशिश करने लगीं|
''मैं तो भूल चली बाबुल का देस....सासू जी मेरी हैं ममता की मूरत'' यह सुनते हुए कामिनी जी के चेहरे पर मुस्कान तैर गई|
कामिनी जी को जगाने के लिए उनके पति सुरेश बाबू कमरे में आए तो पत्नी के चेहरे पर मधुर स्मित देखा| समझ गए स्वप्न देख रही|
''कामिनी, चाय लाया हूँ''
''आपने चाय क्यूँ बनाई, बहु है न घर को स़भाल लेगी| बिल्कुल अपना घर समझती है इसे,'' उनींदे स्वर में कामिनी जी ने कहा|
''नींद से जगो कामिनी| ऋषभ का फोन आया था|''
''अच्छा, भारत आ रहा है न मेरा सपूत और रीमा से क्या बात हुई|दोनो आएँगे तो हमारी खूब सेवा करेंगे जी '' कामिनी जी बोले जा रही थीं|
सुरेश बाबू से यह बोलते न बना कि ऋषभ ने विदेश में ही रहने का फैसला कर लिया है|
--ऋता शेखर 'मधु'

शनिवार, 5 अगस्त 2017

गठबंधन-लघुकथा

गठबंधन

''दो विरोधी पार्टियों का गठबंधन, चुनाव में दोनो नजर आएँगे साथ साथ''
समाचार पत्र के मुखपृष्ठ पर छपे समाचार से पूरे राज्य में सनसनी फैल गई|
लाला जी की पत्नी ने ज्योंहि यह पढ़ा , पति के पास सच्चाई जानने पहुँच गईं|
लाला जी चाय का प्याला हाथ में लिए मंद मंद मुसकुरा रहे थे| पत्नी के हाथ में समाचारपत्र देखा तो जोर से हँस पड़े|
''जैसे कि आसार थे, इस बार आपकी पार्टी न जीतती| गठबंधन से अवश्य लाभ पहुँचेगा| मगर आपने यह चमत्कार किया कैसे|'' पत्नी की जिज्ञासा चरम सीमा पर थी |
''कल मैंने गोप जी को बुलाया था| बातचीत की| किन्तु वे अपने सिद्धांतों से समझौता करने को तैयार न थे|''
''फिर'' पत्नी अपलक लाला जी को देख रही थी|
''फिर क्या, मैंने एक तस्वीर की ओर इशारा किया जिसे कुछ देर देखने के बाद उन्होंने हामी भर दी|"
''कौन सी तस्वीर'' पत्नी ने चारो ओर दीवारों को ताक लिया जहाँ कई तस्वीरें लगी थीं|''
''वो वाली'' लाला जी ने एक तस्वीर की ओर इशारा किया|
पत्नी ने देखा, चित्र में दुश्मन समझे जाने वाले दो जन्तु,एक कुत्ता और एक बिल्ली मुस्कुरा कर एक दूसरे को देख रहे थे|
-ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

नचिकेता-लघुकथा

नचिकेता

प्राची ने आज फिर एक लघुकथा पोस्ट की थी| कथा माता-पिता के सम्बंध-विच्छेद पर आधारित थी| उस कथा में उसके सात वर्ष के पात्र ने वह कहा जो साधारणतया बच्चे नहीं कह सकते| कथा की यही बात आलोचना का विषय बन गई|
चूँकि कथा प्रतियोगिता के लिए थी और अच्छी भी थी इसलिए प्राची से कहा गया,'' आप वह बात किसी बड़े से कहलवाइए, तब हम आपकी कथा को विजेता बना देंगे''
''मगर क्यों''
''क्योंकि छोटे बच्चे इतनी बड़ी बात नहीं कह सकते प्राची जी |''
''मगर जो बच्चा विच्छेद का दंश सह रहा हो....''
''मतलब आप अन्त नहीं बदलेंगी'' प्राची की बात पूरी भी न हुई कि जवाब आ गया|
''विजेता बनने के लिए मैं कोई फेर बदल नहीं करूँगी| अनुभव के सामने उम्र मायने नहीं रखती | कभी नचिकेता-यमराज संवाद पढ़ लीजिएगा| ''
जवाब की प्रतीक्षा किए बिना प्राची ने लॉग आउट कर दिया|


-ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 2 अगस्त 2017

सोचो अम्मा-लघुकथा


''बेटे, सौरभ की शादी की बात कहीं पक्की हुई?'' फोन पर रमोला जी ने बेटे मनोज से यह बात पूछी|

सौरभ रमोला जी का पोता था और मल्टीनेशनल कम्पनी में काम करता था| सरल सहज सौरभ ने कभी किसी लड़की की ओर आँख उठाकर नहीं देखा, इसलिए प्रेम विवाह का प्रश्न ही नहीं उठता था| अरेंज्ड मैरिज में उसकी शर्त थी कि लड़की भी कामकाजी चाहिए थी|

''नहीं माँ, अभी नहीं| तीन जगहों पर बात आगे बढ़ी, दोनो मिले फिर लड़की ने इन्कार कर दिया|''

''क्यों, क्या कमी है हमारे सौरभ मे," रमोला जी ने आहत स्वर में पूछा|

''उसका श्यामल वर्ण'' मनोज जी ने बताया|

''उफ, लड़कियों की हिम्मत तो देखो| लड़के की सीरत देखी जाती है सूरत नहीं| ,'' माँ को यह बात हजम नहीं हुई|

सारी बातें स्पीकर पर हो रही थीं और रमोला जी की बेटी सृष्टि भी सुन रही थी|

''अब लड़कियाँ आत्मनिर्भर हो चुकी हैं| उन्हें भी निर्णय का अधिकार मिल चुका है| अब सोचो अम्मा , मनोज भैया के लिए लड़की देखने के समय आपने भी कई सर्वगुणसंपन्न लड़कियों को साँवले होने की वजह से छोड़ दिया था|''

सोचती हुई माँ को छोड़कर सृष्टि दूसरे काम निपटाने चली गई थी|
--ऋता शेखर 'मधु'