गुरुवार, 10 जुलाई 2025

ऋषि मुनि और उनका आध्यात्म



*' ऋषि मुनि और उनका आध्यात्म'*

इस विषय के अंतर्गत सर्वप्रथम हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि आध्यात्म क्या है और ऋषि, मुनि, संत एवं महर्षि में मूलभूत अंतर क्या है एवं मानव कल्याण में उनकी आध्यात्मिक भूमिका क्या है ?

ऋषि, मुनि, संत, महर्षि, ब्रह्मर्षि, और राजर्षि, ये सभी शब्द भारतीय संस्कृति और धर्म में विभिन्न प्रकार के आध्यात्मिक गुरुओं या ज्ञानियों को दर्शाते हैं। इनमें से प्रत्येक शब्द एक विशेष स्तर या प्रकार के आध्यात्मिक विकास को दर्शाता है। 

*ऋषि:* ऋषि शब्द का अर्थ है "दृष्टा" या "जानने वाला"। प्राचीन काल में, ऋषि उन लोगों को कहा जाता था जिन्होंने वेदों की ऋचाओं (मंत्रों) की रचना की या उन्हें देखा। ऋषि ज्ञान और तपस्या के माध्यम से सत्य को जानने का प्रयास करते हैं। 

*मुनि:* मुनि शब्द का अर्थ है "मनन करने वाला" या "शांत रहने वाला"। मुनि वे होते हैं जो अपनी इंद्रियों को वश में करके मन को शांत करते हैं और ज्ञान प्राप्त करने के लिए गहन चिंतन करते हैं। मुनि आमतौर पर एकांत में रहते हैं और तपस्या करते हैं। 

*संत:* संत शब्द का अर्थ है "सत्य को जानने वाला" या "सत्यनिष्ठ व्यक्ति"। संत वे होते हैं जिन्होंने सत्य को जान लिया है और उसे अपने जीवन में उतार लिया है। संत आमतौर पर सांसारिक सुखों का त्याग कर देते हैं और दूसरों को सत्य का मार्ग दिखाते हैं। 

*महर्षि:* महर्षि शब्द का अर्थ है "महान ऋषि"। महर्षि वे ऋषि होते हैं जिन्होंने ज्ञान और तपस्या के माध्यम से उच्च स्तर की आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त कर ली है। वे न केवल ज्ञानवान होते हैं, बल्कि वे दूसरों को ज्ञान देने और उनका मार्गदर्शन करने में भी सक्षम होते हैं। 

*ब्रह्मर्षि:* ब्रह्मर्षि शब्द का अर्थ है "ब्रह्म को जानने वाला ऋषि"। ब्रह्मर्षि वे ऋषि होते हैं जिन्होंने ब्रह्म (सर्वोच्च वास्तविकता) को पूरी तरह से जान लिया है और उसमें लीन हो गए हैं। ब्रह्मर्षि को ऋषियों में सबसे महान माना जाता है। 

*राजर्षि:* राजर्षि शब्द का अर्थ है "राजा होते हुए भी ऋषि"। राजर्षि वे राजा होते हैं जिन्होंने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए भी आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त किया है और ऋषि का दर्जा प्राप्त किया है।

अध्यात्म को हमें वेद, पुराण, उपनिषद और ग्रन्थों के माध्यम से समझने का प्रयास करना होगा। यहाँ पर हम श्रीमद्भगवतगीता में वर्णित अध्यात्म की परिभाषा को सामने लाने एवं आत्मसात करने का प्रयत्न करते हैं।

भगवद गीता के अनुसार, अध्यात्म  का अर्थ है अपने स्वयं के स्वरूप का, अपनी आत्मा का अध्ययन करना। यह  व्यक्ति के भीतर की चेतना और प्रकृति के गुणों के बारे में है, और यह दर्शाता है कि कैसे मनुष्य अपने कर्मों और स्वभाव के माध्यम से विकसित होता है। 

अध्यात्म का अर्थ है  सांसारिक मोह-माया से परे होकर आत्मा के परम सत्य को प्राप्त करना।

अध्यात्म एक दर्शन है, चिंतन-धारा है, विद्या है, हमारी संस्कृति की परंपरागत विरासत है और ऋषियों, मुनियों के चिंतन का निचोड़ है। आत्मा, परमात्मा, जीव, माया, जन्म-मृत्यु, पुनर्जन्म, सृजन-प्रलय की अबूझ पहेलियों को सुलझाने का प्रयत्न है अध्यात्म। वैदिक काल से हमारा देश कृषि और पशुपालन युग में था। उस समय के निवासी कर्मठ, फक्कड़, प्रकृ‍तिप्रेमी, सरल और इस जीवन को भरपूर जीने की लालसा वाले थे। उन्होंने कुछ प्राकृतिक शक्तियों जैसे मेघ, जल, अग्नि, वायु, सूर्य, उषा, संध्या आदि की पहचान की और इन्हें संचालित करने वाले काल्पनिक आकारों ,जैसे वरुण, इंद्र, रुद्र आदि को देवों के रूप में मान्यता दी। फिर इन्हें प्रसन्न रखने और इनके आक्रोश से उत्पन्न अनिष्ट से अपने जीवन, अपनी फसलों, अपने पशुओं को बचाने के लिए इनके निमित्त अनुष्ठान किए जाने लगे। ये अनुष्ठान फिर अपनी कामना-पूर्ति और बीमारियों, शत्रुओं पर विजय पाने के तंत्र के रूप में विकसित हो गए। 

ऋषियों ने आध्यात्मिक ज्ञान को आकार देने, पवित्र ज्ञान को संरक्षित करने और व्याख्या करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। हिन्दू धर्म में प्रसिद्ध  ऋषियों के दिव्य आध्यामिक जीवन व आध्यात्मिक योगदान पर चर्चा करते हैं। 

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*1.महर्षि वेदव्यास* वेदों के विभाजक और महाकाव्यों के रचयिता हैं।

महर्षि वेदव्यास, जिन्हें कृष्ण द्वैपायन व्यास के नाम से भी जाना जाता है, सनातन धर्म के आदिगुरु हैं। उनके नाम के साथ  ‘व्यास’ शब्द  एक उपाधि है, जो  द्वापर युग में वेदों का विभाजन करने वाले प्रत्येक महापुरुष को मिलती थी। 

 इन्हें गुरुओं का भी गुरु माना जाता है, और गुरु पूर्णिमा इन्हीं को समर्पित है। पुराणों के अनुसार इन्होंने अट्ठावन बार वेदों का विभाजन किया।

 इन्होंने महाभारत जैसे महाकाव्य और अठारह पुराणों की रचना की। 

ये त्रिकालदर्शी थे। 

युधिष्ठिर को ‘प्रतिस्मृति’ विद्या का ज्ञान दिया।

धर्म की क्षीण होती स्थिति को देखकर वेदों का व्यास किया।

*2 महर्षि वशिष्ठ:* ज्ञान, तेज और मर्यादा के प्रतीक हैं।

वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र और सप्तर्षियों में प्रमुख थे। 

ऋग्वेद के सप्तम मंडल के वे मुख्य द्रष्टा माने जाते हैं।

वे श्रीराम के गुरु थे। राम के वनवास से लौटने के बाद, इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ था।

 कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच हुए संघर्ष में, विश्वामित्र ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, पर वशिष्ठ के अद्वितीय तपोबल के आगे उन्हें हार माननी पड़ी। इसी घटना ने विश्वामित्र जी को ब्रह्मर्षि बनने की प्रेरणा दी।

इनसे संबंधित कई महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं जैसे ‘योग वशिष्ठ’ ज्ञान और वैराग्य का अनुपम ग्रंथ है।‘वशिष्ठ संहिता’ में  उनके ज्ञान और शिक्षाओं का सार।

*3 विश्वामित्र* की क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि तक की यात्रा अद्भुत है।

 विश्वामित्र का जन्म एक क्षत्रिय राजा के रूप में हुआ था। ऋषि वशिष्ठ से पराजित होने के बाद, उन्होंने ब्रह्मर्षि बनने का दृढ़ निश्चय किया। उनकी यह यात्रा दृढ़ इच्छाशक्ति, कठोर तपस्या और अटूट संकल्प का प्रतीक है जिससे वो सबसे शक्तिशाली ऋषि बन सके।

उन्होंने वर्षों तक कठोर तपस्या कर ब्रह्मा और शिव से सभी दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। 

अपनी साधना से उन्होंने इतना तेज अर्जित किया कि एक समानांतर सृष्टि की रचना तक आरंभ कर दी। बाद में ब्रह्मा जी द्वारा मान्यता प्राप्त कर वे ब्रह्मर्षि कहलाए।

 हिंदू धर्म के सबसे पवित्र और शक्तिशाली गायत्री मंत्र के द्रष्टा, महर्षि विश्वामित्र को माना जाता है।

उनकी “मानसिक सृष्टि” शक्ति इतनी प्रबल थी कि वे केवल विचार से ही नई वस्तुओं का निर्माण कर सकते थे।

*4 महर्षि भृगु:* ज्योतिष, संजीवनी और त्रिदेव की सहनशीलता के परीक्षक थे।

महर्षि भृगु भगवान ब्रह्मा के मानसपुत्रों में से एक थे और सप्तर्षियों में उनका विशेष स्थान है। 

उन्होंने ‘भृगु संहिता’ की रचना की, जो ज्योतिष शास्त्र का एक विशाल और प्राचीनतम ग्रंथ है।

 महर्षि भृगु ने संजीवनी विद्या की खोज की थी, जिससे मृत प्राणी को पुनः जीवित किया जा सकता था। 

उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और शिव की सहनशीलता की परीक्षा ली थी। भगवान विष्णु की अपार सहनशीलता को सिद्ध किया। 

5 महर्षि अगस्त्य: ब्रह्मतेज और लोक कल्याण के प्रतीक थे।

महर्षि अगस्त्य वैदिक युग के महान सप्तर्षियों में से एक थे और वशिष्ठ मुनि के ज्येष्ठ भ्राता थे। ब्रह्मतेज से परिपूर्ण अगस्त्य मुनि, देवताओं के अनुरोध पर उत्तर भारत से दक्षिण की ओर गए और वहीं निवास करने लगे।

वे अभूतपूर्व दैत्य संहारक थे। महर्षि अगस्त्य ने अपनी मंत्र शक्ति से संपूर्ण समुद्र को पी कर दुष्ट राक्षसों का विनाश किया था। उन्होंने इल्वल और वातापि नामक दुष्ट दैत्यों द्वारा किए जा रहे ऋषि-संहार को भी अपनी शक्ति से रोका।

एक बार विंध्याचल पर्वत ने अपनी ऊंचाई बढ़ाकर सूर्य का मार्ग अवरुद्ध कर दिया। सूर्यदेव की प्रार्थना पर, महर्षि अगस्त्य ने विंध्य पर्वत को स्थिर करते हुए कहा, “जब तक मैं दक्षिण से न लौटूँ, तुम ऐसे ही निम्न बने रहो।” चूंकि अगस्त्य जी वापस नहीं लौटे, विंध्याचल उसी प्रकार निम्न रूप में स्थिर रह गया और सूर्य का मार्ग सदा के लिए प्रशस्त हो गया।

*6 महर्षि भारद्वाज* ऋग्वेद के द्रष्टा, विज्ञानवेत्ता और ज्ञान के भंडार थे।

उन्हें ऋग्वेद के छठे मण्डल का द्रष्टा माना जाता है, जिसमें उनके 765 मंत्र संग्रहित हैं। अथर्ववेद में भी उनके 23 मंत्र मिलते हैं। 

महाभारत के अनुसार, उन्होंने ‘धनुर्वेद’ पर प्रवचन दिया।

उन्हें ‘राजशास्त्र’ का भी प्रणेता माना जाता है।

उन्होंने ‘यन्त्र-सर्वस्व’ नामक एक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी, जो प्राचीन भारतीय इंजीनियरिंग का एक अद्भुत प्रमाण है।

 इंद्र ने भारद्वाज को सावित्र्य-अग्नि-विद्या का विधिवत ज्ञान कराया, जिससे उन्होंने अमृत-तत्त्व प्राप्त किया और स्वर्गलोक में जाकर आदित्य से सायुज्य प्राप्त किया।

यह शक्तिशाली ऋषि आयुर्वेद के प्रयोगों में परम निपुण थे, जो उनके लोक कल्याणकारी स्वभाव को दर्शाता है।

*7 महर्षि कश्यप* सृष्टि के प्रजापति और विज्ञान-अध्यात्म के संयोजक थे।

 उनकी कुल सत्रह पत्नियाँ थीं, जिनमें दक्ष प्रजापति की तेरह पुत्रियाँ प्रमुख थीं। इन्हीं पत्नियों से देवों, असुरों, नागों और अनेक अन्य प्राणियों का जन्म हुआ, जिससे उन्हें सृष्टि के प्रजापति के रूप में जाना जाता है।

भगवान विष्णु ने अपना पाँचवाँ अवतार, वामन अवतार, ऋषि कश्यप और उनकी पत्नी आदिति के पुत्र के रूप में लिया था।

उन्होंने ‘कश्यप संहिता’ की रचना की, जिसमें आयुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान समाहित है। इसके अतिरिक्त, वे ‘शिल्प शास्त्र’ के भी रचयिता थे।

*8 अत्रि ऋषि* का जन्म ब्रह्माजी के नेत्रों से हुआ था, इसलिए उन्हें ब्रह्मा का मानस पुत्र माना जाता है। 

अत्रि ऋषि ने कर्दम ऋषि की पुत्री अनुसूया से विवाह किया था। अत्रि ऋषि और अनुसूया ने पुत्र प्राप्ति के लिए ऋक्ष पर्वत पर कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर त्रिदेवों ने उनके पुत्र के रूप में अवतार लिया। विष्णु के अंश से दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, और शिव के अंश से दुर्वासा ऋषि का जन्म हुआ। 

अत्रि ऋषि को त्याग, तपस्या और संतोष का प्रतीक माना जाता है।  अश्विनीकुमारों की उन पर विशेष कृपा थी।अत्रि ऋषि ने देश में कृषि के विकास में भी योगदान दिया। कहा जाता है कि अत्रि ऋषि ने अंजुली में जल भरकर सागर को सोख लिया था, जिसके बाद सागर ने उनसे याचना की कि उसे जलविहीन न करें। 

*9 महर्षि पराशर:* उन्होंने अपने तपोबल से यमुना नदी की धारा को परिवर्तित कर दिया और उनके मंत्रों की शक्ति से कालकेय राक्षसों का संहार हुआ।

वे महाभारत के रचयिता महर्षि वेदव्यास के पिता थे।

उन्होंने ज्योतिष शास्त्र के मूल ग्रंथ ‘बृहत् पराशर होरा शास्त्र’ की रचना कर ग्रह-नक्षत्रों के गूढ़ रहस्यों को उजागर किया। यह ग्रंथ वैदिक ज्योतिष का आधार स्तंभ है।

उन्होंने ‘पराशर स्मृति’ जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की भी रचना की, जिससे वेदों के गूढ़ रहस्यों को जनसामान्य तक पहुँचाया जा सके।

*10 गौतम ऋषि* का उल्लेख, त्रेता युग एवं द्वापर युग में मिलता है।वे राहुगण नामक ऋषि के पुत्र थे, इसलिए उन्हें गौतम राहुगण के नाम से जाना जाता है।। 

वे ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा थे।उन्हें मंत्रों का आविष्कारक माना जाता है। ऋग्वेद में उनके नाम से कई सूक्त मिलते हैं, जो उनके महत्व को दर्शाते हैं। 

उनके दो पुत्र ,वामदेव और नोधा, भी मंत्रों के ज्ञाता थे। शतपथ ब्राह्मण में भी गौतम ऋषि का उल्लेख मिलता है, जहां उन्हें पुरोहित के रूप में दर्शाया गया है। 

गौतम राहुगण ने अग्नि अर्थात दिव्य इच्छा की स्तुति में एक स्तोत्र की रचना की, जो शतपथ ब्राह्मण में वर्णित है। 

*11:ऋषि जमदग्नि:*

जमदग्नि ऋषि, भृगुवंशी ऋचीक के पुत्र  थे। जिन्होंने गोवंश की रक्षा के लिए ऋग्वेद के 16 मंत्रों की रचना की। 

*12 महर्षि कपिल:* सांख्य दर्शन के प्रणेता थे जो भारतीय दर्शन के छह प्रमुख आस्तिक दर्शनों में से एक है। उन्होंने अपनी माता देवहुति को वैराग्य और मोक्ष का उपदेश दिया, जो ‘कपिल गीता’ के नाम से प्रसिद्ध है।

*13 कात्यायन ऋषि*

कात्यायन ऋषि एक प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय ऋषि थे, जो वैदिक काल के अंतिम महान गणितज्ञों में से एक माने जाते हैं। वे एक व्याकरणविद, वैदिक पुरोहित और ऋषि भी थे। उन्होंने श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी कात्यायनी, जिन्हें नवदुर्गा में से एक माना जाता है, ऋषि कात्यायन की पुत्री थीं। 

*14 कण्व ऋषि*

ऋग्वेद के आठवें मंडल के अधिकांश मंत्रों को कण्व ऋषि और उनके वंशजों द्वारा रचित माना जाता है. 

कण्व ऋषि ने एक स्मृति धर्मशास्त्र की भी रचना की है, जिसे 'कण्वस्मृति' के नाम से जाना जाता है. 15 नारद मुनि, हिंदू पौराणिक कथाओं के एक प्रसिद्ध ऋषि और भगवान विष्णु के भक्त हैं। उन्हें देवर्षि भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है देवताओं का ऋषि। नारद मुनि को तीनों लोकों ; स्वर्ग, पृथ्वी, और पाताल में विचरण करने वाला माना जाता है और उन्हें "सृष्टि के पहले पत्रकार" के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि वे विभिन्न लोकों की खबरें एक-दूसरे तक पहुंचाते थे. नारद मुनि को ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माना जाता है.

वे भगवान विष्णु के परम भक्त थे।  उन्होंने कई ग्रंथ लिखे, जिनमें नारद पुराण, नारद भक्ति सूत्र, और पांचरात्र हैं।

इसके अतिरिक्त हिन्दू धर्म में आकाशगंगा में अवस्थित सात तारों के समूह को सप्तऋषि मंडल के नाम से जाना जाता है। प्रत्येक तारा को एक ऋषि का नाम दिया गया है। इनकी नामावली हर काल में बदली गयी है। अभी तक चार नामावली ज्ञात है जिसकी चर्चा करेंगे।सभी सूचियों को मिलाकर जितने भी ऋषि हैं उनमें कुछ के आध्यात्मिक योगदान की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। बाकी बचे ऋषियों पर आगे चर्चा करेंगे।

सप्तऋषि

ऋषियों की संख्या 7 ही क्यों? 

 धार्मिक शास्त्रों में इसके बारे में बकायदा वर्णन किया गया है। तो आइए जानते हैं शास्त्रों में शामिल इससे संबंधित श्लोक व उसका अर्थ- 

श्लोक- 

सप्त ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महर्षि, परमर्षय:।

कण्डर्षिश्च, श्रुतर्षिश्च, राजर्षिश्च क्रमावश:।। 

अर्थात: 1. ब्रह्मर्षि, 2. देवर्षि, 3. महर्षि, 4. परमर्षि, 5. काण्डर्षि, 6. श्रुतर्षि और 7. राजर्षि- ये 7 प्रकार के ऋषि होते हैं इसलिए इन्हें सप्तर्षि कहते हैं।

सनातन धर्म के ग्रंथों व पुराणों में काल को मन्वंतरों में विभाजित कर प्रत्येक मन्वंतर में हुए ऋषियों के ज्ञान और उनके योगदान को परिभाषित किया है। इसके अनुसार प्रत्येक मन्वंतर में प्रमुख रूप से 7 प्रमुख ऋषि हुए हैं। 

सप्तर्षि (सप्त + ऋषि) सात ऋषियों को कहते हैं जिनका उल्लेख वेद एवं अन्य हिन्दू ग्रन्थों में अनेकों बार हुआ है।

वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:-

1.वशिष्ठ, 2.विश्वामित्र, 3.कण्व, 4.भारद्वाज, 5.अत्रि, 6.वामदेव 7.शौनक।

इनमें ऋषि वशिष्ठ, विश्वमित्र, कण्व, भारद्वाज एवं अत्रि की चर्चा ऊपर की जा चुकी है।

अब ऋषि वामदेव और ऋषि शौनक के बारे में जानते हैं।

 *ऋषि वामदेव:* 

वे ऋग्वेद के चौथे मंडल के द्रष्टा ऋषि थे, जिसमें अग्नि, इंद्र, वरुण, सोम और आदित्य जैसे देवताओं की स्तुति में रचित मंत्र हैं. 

वे महर्षि गौतम के पुत्र थे।

उन्हें 'जन्मत्रयी' का अर्थात अपने पिछले तीन जन्मों का ज्ञान था. 

वामदेव शिव के भक्त थे और शरीर पर भस्म धारण करते थे. 

वामदेव का उल्लेख महाभारत में भी मिलता है, जहां वे राजा वसुमना को उपदेश देते हैं.

*ऋषि शौनक*

पुराणों के अनुसार ऋषि शौनक एक वैदिक आचार्य थे, जो भृगुवंशी शुनक ऋषि के पुत्र थे। इनका पूरा नाम इंद्रोतदैवाय शौनक था।

बताया जाता है कि ऋषि शौनक ने कुल 10 हज़ार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलापित का विलक्षण सम्मान हासिल किया था। 

इन्हें शौन राजा के नाम से भी जानते हैं।

इन्होंने महाभारत काल में राजा जनमेजय का अश्वमेध और सर्पसत्र नामक यज्ञ संपन्न करवाया था।

ऋषि शौनक ने ऋक्प्रातिशाख्‍य, ऋग्वेद छंदानुक्रमणी, ऋग्वेद ऋष्यानुक्रमणी, ऋग्वेद अनुवाकानुक्रमणी, ऋग्वेद सूक्तानुक्रमणी, ऋग्वेद कथानुक्रमणी, ऋग्वेद पादविधान, बृहदेवता, शौनक स्मृति, चरणव्यूह, ऋग्विधान आदि अनेक ग्रंथ लिखे हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने ही शौनक गृह्सूत्र, शौनक गृह्यपरिशिष्ट, वास्तुशा्सत्र ग्रंथ की रचना भी की थी।

पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण के अनुसार सातवें मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :-

वशिष्ठकाश्यपोऽत्रिर्जमदग्निस्सगौतमः।

विश्वामित्रभरद्वाजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।

अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज। इनमें सभी ऋषियों की चर्चा की जा चुकी है।

इसके अलावा अन्य पुराणों के अनुसार सप्तऋषि की नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वसिष्ठ और मरीचि है।

इस भाग में ऋषि क्रतु, पुलह, पुलस्त्य और मरीचि की चर्चा करेंगे।

ऋषि क्रतु

ऋषि क्रतु को भगवान ब्रह्मा के मस्तिष्क से उत्पन्न माना जाता है।

उन्हें सप्तर्षियो में से एक माना जाता है, जो मनु के युग में महत्वपूर्ण थे।

क्रतु सोलह प्रजापतियों में से एक भी हैं, जो सृष्टि के आरंभ में देवताओं और मनुष्यों के पूर्वज माने जाते हैं।

क्रतु को वेदों का विभाजन करने का श्रेय दिया जाता है।

बालखिल्य ऋषि थे।

क्रतु के 60,000 पुत्र थे, जिन्हें बालखिल्य कहा जाता था, वे अंगूठे के आकार के थे और सूर्यदेव की पूजा करते थे।

क्रतु ऋषि को ध्रुव की प्रदक्षिणा में लीन रहने के लिए भी जाना जाता है, जो निरंतर योग और ध्यान का अभ्यास करते थे। 

 उन्हें भार्गवों में से एक माना जाता है.

ऋषि पुलह

पुलह ऋषि, ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में से एक माने जाते हैं और सप्तर्षि में भी गिने जाते हैं।पुलह ऋषि को प्रजापति भी कहा जाता है, और उन्हें सृष्टि के रचनाकारों में से एक माना जाता है।

पुलह ऋषि को भगवान ब्रह्मा का मानसिक पुत्र माना जाता है, जो उनकी इच्छा से उत्पन्न हुए थे।

महर्षि पुलह ने महर्षि सनंदन को गुरु स्वीकार किया। उनसे शिक्षा दीक्षा ग्रहण की। संप्रदाय की रक्षा की ज़िम्मेदारी ली। आश्रम में रह कर तत्वज्ञान का संपादन किया। बाद में महर्षि गौतम ने इन्हें गुरु बनाया। उन्होंने गौतम को अपने ज्ञान का भंडार दिया। गौतम ने भी पुलह ऋषि से प्राप्त ज्ञान का विस्तार किया।

पुलह ऋषि भगवान शिव के भक्त थे और उन्होंने काशी में पुलहेश्वर नामक शिवलिंग की स्थापना की थी।

पुलह ऋषि ने जगत को आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक शांति प्रदान करने का कार्य किया।

महाभारत के अनुसार, किम्पुरुषों की जाति पुलह ऋषि की संतान है।

ऋषि पुलस्त्य

ऋषि पुलस्त्य, ब्रह्मा के दस मानस पुत्रों में से एक थे। वे सप्तर्षि  में से एक थे। 

ऋषि पुलस्त्य को ब्रह्मा से विष्णु पुराण प्राप्त हुआ था, जिसे उन्होंने पराशर को सुनाया, जिन्होंने इसे मानव जाति के लिए जाना।

ऋषि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा थे, जिनके पुत्र रावण और कुबेर थे। 

कुछ मान्यताओं के अनुसार, ऋषि पुलस्त्य का विवाह कर्दम प्रजापति की पुत्री हविर्भू से हुआ था, और वे कनखल के राजा दक्ष के दामाद भी थे।

एक कथा के अनुसार, ऋषि पुलस्त्य ने मेरु पर्वत पर तपस्या करते समय, अप्सराओं को परेशान करने पर उन्हें श्राप दिया था कि जो भी महिला उनके सामने आएगी, वह गर्भवती हो जाएगी।

 ऋषि पुलस्त्य ने अपने पोते रावण को सहस्त्रार्जुन से मुक्त कराया था। 

ऋषि अंगिरा

अंगिरा ऋषि, जिन्हें वेदों के रचनाकारों में से एक माना जाता है, ब्रह्मा के मानस पुत्र थे। उन्होंने अग्नि को सबसे पहले उत्पन्न किया और धर्म तथा राज्य व्यवस्था पर महत्वपूर्ण कार्य किया। अंगिरा स्मृति की रचना भी उन्होंने की, जिसमें उपदेश और धर्माचरण की शिक्षा दी गई है। 

अंगिरा ऋषि को वेदों में अग्नि के पहले ज्ञाता के रूप में जाना जाता है। 

उन्होंने धर्म और राज्य व्यवस्था पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया, जिससे समाज में व्यवस्था बनी रहे। 

उन्होंने अपने नाम से अंगिरा स्मृति की रचना की, जो धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं का संग्रह है। 

अंगिरा ऋषि की तपस्या इतनी महान थी कि उनका तेज अग्निदेव से भी अधिक था। 

उनके पुत्र बृहस्पति, जो देवताओं के गुरु बने, भी बहुत प्रसिद्ध हुए। 

ऋषि मरीचि

महर्षि मरीचि परमपिता ब्रह्मा के प्रथम मानस पुत्रों में से एक हैं जिनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के मन से हुई मानी जाती है, जिसके कारण उनका नाम 'मरिचि' पड़ा। 

इनका निवास स्थान मेरु पर्वत के शिखर पर बताया गया है। मरीचि सहित अन्य सप्तर्षियों की गिनती १० प्रजापतियों में भी की जाती है। अन्य तीन प्रजापति हैं - नारद, भृगु और प्रचेता। इनकी महानता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अर्जुन को गीता का ज्ञान देते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं - 'हे पार्थ! आदित्यों में मैं विष्णु हूँ, तेज में मैं सूर्य हूँ, मरुतों में मैं मरीचि हूँ और नक्षत्रों में मैं चंद्र हूँ।' यही कारण है कि इन्हे प्रजापतियों में श्रेष्ठ समझा जाता है। महाभारत में इन्हे 'चित्रशिखण्डी' कहा गया है।

महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं।

 एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली के अनुसार सप्तर्षि - कश्यप, वशिष्ठ, मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु हैं।

इस प्रकार भारतवर्ष में ऋषि मुनि अध्यात्म के प्रणेता माने जाते हैं।ऋषि वशिष्ठ हर मन्वंतर में निर्विवाद रूप से सप्तऋषियों में एक माने गए हैं। जनमानस के मानसिक विकास एवं शांति में अध्यात्म का बहुत महत्व है।

ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 17 जून 2025

कलम

 रचनाकार - ऋता शेखर 'मधु' 

विधा - नवगीत

विषय - कलम, लेखनी


चिंतन की भीड़ से पन्नों को आस

कलम की सड़क पर शब्द चले खास


परिश्रम के पेड़ पर मीठे लगे फल

स्याही की बूँद से हुलस गए पल

खबरों में शब्दों की हो रही हलचल

बधाई की खुशी में पेन गयी मचल

सधे हुए हाथ जुटे लेखनी के पास


बसा रही लेखनी किताबों के नगर

कृष्ण से प्रीत करे पनघट की डगर

श्याम रंग स्याही के दावात हुए घर

बारिश की नमी में पेन को लगे पर

चिट्ठियों में जा बसे गुलाब के सुवास


हिमालय की चोटी या नदियों की धार

मनहर हर दृश्य को पेन रही उतार

प्रेरणा की गाथा में आशा का संचार

लेखनी को भा रहे प्रभाती सुविचार

नीब से अमर है विश्व का इतिहास


बाइबल कुरान संग रच रही वेद

ग्रन्थों में लेखनी करे न कोई भेद

कविता के लय में तुकों के हैं स्वेद

ज्यों धुन सँवारते बाँसुरी के छेद

कलम से दोस्ती कवि का प्रभास।

ऋता शेखर 'मधु'

17/06/2025

गुरुवार, 12 जून 2025

परिधान

 परिधान

सभ्यता उन्नत हुई, तब आया परिधान।

पहनावा भी है  नियत, है इनका भी स्थान।।


लहँगा चुन्नी साड़ियाँ, दुल्हन का परिधान।

मंडप पर होता नहीं, जींस टॉप में दान।।


पूजाघर में सोच लो, बिकनी का क्या काम।

सूट साड़ी ओढ़नी, लेती उसको थाम।।


 स्वीमिंग पूल में कहाँ, साड़ी बाँधें आप।

सोचो ट्रैक सूट बिना, छोड़ें कैसे छाप।।


सेना वर्दी में रहें, तब होती पहचान।

स्कूल ड्रेस जब से बनी, बच्चे हुए एक समान।।


धोतियाँ शेरवानियाँ, लड़के पहनें सूट।

कश्मीरी जूता सहित, भाते उनको बूट।।


वस्त्रों से माहौल भी, पा जाता है भेद।

मातम में अक्सर मनुज, भाता रहा सफेद।।

ऋता शेखर


क्यों दिखलाते अंग को, कैसी है अब सोच।

गरिमा तन की भूलकर, दिखलाते हैं लोच।।


कितनी फूहड़ सी लगें, आधे वस्त्रों में नार।

उल्टे सीधे तर्क में, छोड़ें सद्व्यवहार।।

गौरवशाली भारत

गौरवशाली भारत देश

दोहे...

यहाँ सनातन सभ्यता, यहाँ अनूठा प्यार।

मेरे भारत देश में, मिलता सद्व्यवहार।।


संस्कृति या अध्यात्म में, सदा रहा अनमोल।

कत्थक गरबा डांडिया, तबला हो या ढोल।।


हड़प्पा मोहनजोदड़ो, कहता है इतिहास।

प्राचीन काल से यहाँ, होता रहा विकास।।


वैदिक कालखंड बने, सभ्यता के प्रमाण।

पूजे जाते देश में, नदी और पाषाण।।


वेद ऋचाएँ हैं गहन, वहाँ भरा है ज्ञान।

भरते दया विनम्रता, महिमामंडित दान।


ऋग्वेद सामवेद में, अनुभव का भंडार।

आयुर्वेद अथर्व रचे, जीवन का हर सार।।


रघुनन्दन के राज्य में, स्थापित है धर्म।

द्वारकाधीश कह गए, रखना सुन्दर कर्म।।


भगवद्गीता के सार में, जीवन की है सीख।

मर्यादा जब भंग हो, लड़ो, न माँगो भीख।।


पूजा होती अन्न की, पूजे जाते नीर।

पर्व त्योहार में बन रहे, केसर वाली खीर।।


ज्योतिष वास्तुशास्त्र गणित, गणना में अनमोल।

अद्भुत संख्या शून्य के, बड़े बड़े हैं बोल।।


राष्ट्र में हो अखंडता, रखना है यह ध्यान।

विश्वगुरू बनकर रहे, आर्यावर्त महान।।


-ऋता शेखर 'मधु'

रविवार, 25 मई 2025

अंधेरों का सफर- हाइकु संग्रह पर पाठकीय प्रतिक्रिया

 


पुस्तक - अंधेरों का सफर ( वृद्धावस्था पर केंद्रित हाइकु)

पृष्ठ - 111

मूल्य - 320.00 रुपये

प्रकाशक - अयन प्रकाशन, नई दिल्ली - 110059, मोबाइल - 9911313272

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*पाठकीय प्रतिक्रिया*

*"अंधेरों का सफ़र" पर प्रकाश डालते हाइकु - ऋता शेखर 'मधु'*


तकनीकी प्रसार से आधुनिक युग अत्याधुनिक हो गया है। आज के युग में पल पल की खबर सभी को है, चाहे वह देश दुनिया की खबर हो, रिश्ते नातों की हो या घर परिवार की। यदि खबर नहीं है तो जीवन की साँझ में बैठे घर के ही लोगों की। सारी दुनिया की कुशलता उनके मोबाइल में है, लेकिन घर में एकाकी जीवन जी रहे माता-पिता, दादा-दादी की जरूरतों की ओर उनकी नजर नहीं। ऐसा नहीं है कि आज की पीढ़ी लापरवाह है या रिश्तों की समझ नहीं। पर थोड़ा स्वार्थ तो है अपनी सुख सुविधा पर। बुजुर्गों की कद्र भी करते हैं , फिर भी कुछ तो है जो बड़े स्वयं को उपेक्षित महसूस करते हैं। यह पीढ़ियों से पीढ़ियों तक चलने वाला नियम है। 

आज के युग में साहित्य जगत से जुड़ना आसान है। बिना किसी से मिले भी बड़े बड़े समूह बन जाते हैं और महत्वपूर्ण विषयों पर साझा पुस्तकें प्रकाशित होती हैं। नवीन विषयों की तार्किक पुस्तकें  पाठकों को लुभा भी रही हैं। 

जापानी छंद विधा हाइकु ने साहित्य जगत में अपना स्थान बनाया है। इसी विधा में डॉ सुरंगमा यादव लेकर आई हैं," अंधेरों का सफर".  बत्तीस हाइकुकारों ने अंधेरों का सफर करते वृद्धावस्था पर प्रकाश डाला है और यह पुस्तक सटीक सारगर्भी बन गयी है। वृद्धावस्था स्वयं पर आई हो या उस अवस्था के बुजुर्ग घर में हैं तो जो भी लिखा गया है, अंतर्मन से लिखा गया है और हर एक हाइकु से पाठक अपने अनुभव जोड़कर समझ सकते हैं। पुस्तक मुझे कुछ दिन पहले मिली थी, तभी से लिखना चाह रही थी। मन में चाह रही तो आज कलम उठा लिया। लगभग सभी रचनाकारों के 30 हाइकु हैं। मेरा प्रयत्न है कि मैं सबके एक हाइकु लूँ।

डॉ सुधा गुप्ता जी अब हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु लिखे शब्द तो अमर होते हैं।

*नीड़ बेकार/ शावक उड़ गए/ पंख पसार।*

रामेश्वर कम्बोज हिमांशु जी के हाइकुओं की व्यथा के बीच इस हाइकु की सकारात्मकता ने आकर्षित किया।

*अकेला कहाँ/ जब बीसों गौरैया/ आ बैठी यहाँ।*

वृद्धावस्था जीवन की अवस्था है। उम्र के इस पड़ाव तक पहुँचने वाले लोग के साथ अनुभवों का मंजूषा होता है। बचपन और युवावस्था की तरह शारीरिक स्वस्थता साथ नहीं रहती तो सब कुछ वीराना सा लगता है।

सुदर्शन रत्नाकर जी के हाइकु इसे बखूबी परिभाषित कर रहे।

*रूठी बहारें/ छूटी अपनी काया/ वक़्त की धारा।*

डॉ कुँवर दिनेश सिंह जी ने बुजुर्गों के साथ एक आदर्श घर की कल्पना की है। 

*शाम सुहानी/ बरामदे में कुर्सी/ बूढ़ों की बानी।*

कमला निखुरपा जी ने बेहद कोमल,प्यारे और नाजुक भाव को अपने हाइकु का हिस्सा बनाया।

*साँझ के संग/ नन्ही भोर चलती/ दादी औ पोती।*

पुष्पा मेहरा जी ने गहन हाइकु की रचना की है। 

*गिनते दिन/ गिना रहे निवाले/ अपने पोसे।*

डॉ शिवजी श्रीवास्तव जी ने आधुनिक युग के वृद्धजन के बारे में सही विवेचना की है। इस तकनीकी युग में वृद्ध अपनी खुशी के लिए किसी के मोहताज नहीं। वे भी आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ चले हैं और अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग हैं। उनकी सक्रियता और जिंदादिली युवा वर्ग को भी पीछे छोड़ रही।

*बूढ़े ठहाके/ युवाओं पर भारी/ पार्क में योग।*

डॉ जेन्नी शबनम जी ने कहा, वृद्धावस्था में अमीर होना कोई मायने नहीं रखता। जब शरीर साथ न दे तो कुछ भी ठीक नहीं होता।

*बदले कौन/ मखमली चादर/ बुढ़ापा मौन।*

ऋता शेखर ने वृद्ध आश्रम के सकारात्मक पहलू को उभारा है।

*वृद्ध आश्रम/ दोस्तों की महफ़िल/ हो गयी जवां।*

डॉ सुरंगमा यादव जी ने बुढ़ापे का सार लिख दिया। वही  अपनाया जाये तो मानसिक कष्ट अवश्य कम रहेगा।

*बुढापा आया/ कितने समझौते/ संग ले आया।*

जिन नौनिहालों को सुखद सार्थक जीवन देने के लिए माता पिता न जाने कितना त्याग करते हैं, वे बाद में उनका अवमूल्यन करते हैं तो बेहद कष्ट होता है।

अनिता ललित जी का ये हाइकु सटीक है।

*लेके आकार/ आँखों के सपनों ने/ दिया नकार।*

डॉ उमेश महादोषी जी ने मार्मिक हाइकु लिखा है। वृद्धों को आश्रम मिलता है, साथ ही यह भी विचारणीय है कि नन्हें बच्चों को

घर से दूर क्रेच में डाला जाता है। दोनों ही घर से दूर होकर अपनत्व खो देते हैं। बचपन और बुढापा, जब एक समान गुजरते हैं तो मार्मिक अभिव्यक्ति सामने आती है।

*एक ही कथा/ क्रेच से वृद्धाश्रम/ उम्र की व्यथा।*

जीवन भर के कर्मों का लेखा-जोखा करती हुई वृद्धावस्था की नजरें अंतिम सफ़र के लिए प्रतीक्षारत हो जाती हैं। डॉ कविता भट्ट जी का हाइकु देखिए।

*प्राण पखेरू/ उड़ने की प्रतीक्षा/ करो समीक्षा।*

भावना सक्सेना जी ने नवीन पीढ़ी को सुन्दर सन्देश दिया है।

*ले लो उनसे/ परंपरा की थाती/ अमूल्य धन।*

बड़े सुझाव देकर पछताते हैं। क्यों ? यह डॉ आशा पांडेय जी के हाइकु में देखिए।

*चले न कुछ/ समझ हुई दूर/ बच्चों के आगे।*

बढ़ती उम्र का असर आँखों, पैरों, दाँतों पर पड़ता है और कृत्रिम चीजों का सहारा लेना बाध्यता हो जाती है। इसे रमेश कुमार सोनी जी ने बखूबी उकेरा है।

*छड़ी-ऐनक/ ज़िंदगी को चलाते/ दाँत नकली।*

मीनू खरे जी ने सारगर्भित बिम्ब लेते हुए वृद्धावस्था की सशक्तता को दर्शाया है।

*बूढ़ी दीवार/ जवान बरगद/ तन के खड़ा।*

अनिता मांडा जी के हाइकु वृद्ध मन के सफर पर लिखती हैं,

*वापसी बेला/ कहाँ-कहाँ डोलता/ मन अकेला।*

प्रियंका गुप्ता जी ने प्राकृतिक बिम्ब के सहारे बड़ों के महत्व को दर्शाया है। 

*कड़ी धूप में/ बहुत याद आये/ पेड़ों के साये।*

भीकम सिंह जी ने वृद्ध के दुखी और व्यंग्य बाणों से आहत अंतर्मन को समझा है।

*खाकर घात/ तलाश रहे वृद्ध/ मुक्ति की रात।*

बच्चे घर के दीपक कहे जाते हैं। उस दीपक को बड़े जतन से संसार में लाया जाता है। रश्मि विभा त्रिपाठी जी ने हाइकु में सारगर्भित सवाल किया है।

*बूढ़े के पास/ घर का चिराग़/ क्यों अँधेरे में?*

डॉ पूर्वा शर्मा जी ने सुन्दर हाइकु लिखे। अपनी सारी जिम्मेदारियां पूरी कर लेने के बाद बुजुर्गों की ज़िंदगी स्वयं की हो जाती है।

*बड़ी बेफ़िक्री/ अब रोज ही होती/ बाग की सैर।*

दादी के चले जाने के बाद कुछ काम अनदेखे रह जाते हैं। दिनेश चन्द्र पाण्डेय जी ने हाइकु में इसे इंगित किया है।

*दादी का चौथा/ तुलसी का बिरवा/ सिधार गया।*

डॉ छवि निगम जी ने आधुनिक अंतर्जाल को सकारात्मकता से जोड़कर लिखा है।

*बेतार जोड़े/ रिश्तों का अंतर्जाल/ वीडियो कॉल।*

विदेश में बस जाने वाले बच्चों के लिए डॉ उपमा शर्मा जी ने लिखा,

*सूना आंगन/ राह तकें बुजुर्ग/ बच्चे विदेश।*

अनिमा दास जी के सभी हाइकु दार्शनिकता से भरे हैं।

*प्राचीन कथा/ शेष शब्द की भाषा/ केवल व्यथा।*

अंजू निगम जी ने वृद्ध मन को यादों से जोड़ा है।

*मन बो रहा/ विगत की माटी में/ यादों के बीज।*

डॉ हरदीप कौर जी ने घर में बुजुर्ग की उपस्थिति को इस तरह से परिभाषित किया है,

*रात अंधेरी/ दे रही है पहरा/ बापू की खाँसी।*

कृष्णा वर्मा जी को बच्चों से कोई शिकायत नहीं। वे बहुत कुछ चाह कर भी नहीं कर पाते। उनके पास अपनी व्यस्तताएँ हैं।

*संतान व्यस्त/ एकाकी जीवन में/ जीवन त्रस्त।*

सविता अग्रवाल सवि जी ने दो बोल के लिए तरसते बुजुर्गों के लिए सुन्दर हाइकु लिखा।

*दर्द ये मेरा/ बंटता तो कटता/ छलके आँसू।*

एकाकीपन झेलते बुजुर्गों के लिए बाहरी आवाज सुनने का माध्यम टेलीविजन बन चुका है जिसे मंजू मिश्रा जी ने इस तरह से लिखा है।

*संगी न साथी/ बस एक टीवी ही/ बतियाता है।*

शशि पाधा जी ने जीवन की सच्चाई को इन शब्दों में उकेरा है।

*उम्र गुजरी/ पाई-पाई जो जोड़ी/ बाँट दी सारी।*

आवरण रश्मि शर्मा जी ने बनाया है जो बिल्कुल विषय के अनुरूप है।

अंधेरों के सफर पर प्रकाश डालते हाइकु समेटने और सहेजने के लिए सुरंगमा यादव जी बधाई की पात्र हैं। उन्हें हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं !!

ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 9 मई 2025

तटस्थता अस्तु

 


तटस्थता क्या है ?

कहीं बुद्धिमानी

कहीं है स्वार्थ

कहीं चालाकी

कहीं परमार्थ


कहीं निष्क्रिय

कहीं उदासीन

कहीं कुटिल

कहीं पदासीन


कहीं समझौता

कहीं समर्पण

कहीं उपेक्षा

कहीं है दर्पण


कहीं समस्या

कहीं समाधान

कहीं मूढ़ता

कहीं है ज्ञान।


कहीं अहंकार

कहीं अपना काम

कहीं युद्ध

कहीं है विराम।


तटस्थ रहने में

कोई न कोई भाव

होता है निहित

तटस्थता में

हित है या अनहित

अंतरात्मा ही जाने

क्या है सम्मिलित


ऋता शेखर

शनिवार, 11 जनवरी 2025

पाँच लघुकथाएँ - ऋता शेखर

1. असर कहाँ तक

"मीना अब बड़ी हो गई है। उच्च शिक्षा लेने के बाद नौकरी भी करने लगी है। कोई ढंग का लड़का मिल जाये तो उसके हाथ पीले कर दें !" चाय पीते हुए सरला ने पति से कहा।

     "हाँ, बेटी के पिता को दिल पर पत्थर तो रखना ही होता है। बेटी को खूब पढ़ाया-लिखाया और वह अब नौकरी भी करने लगी है। फिर भी, उसे विदा तो करना ही है।"

     "किसे विदा करना है पापा?" मीना जाने कब कमरे में आ गई थी।

     "तुम्हें विदा करना है, और किसे। उसी पर बातें हो रही है।" माँ  ने बेटी से कहा।

     "पर मुझे तो यहीं रहना है। मैं अपना घर-द्वार, सखी-सहेलियों को छोड़कर दूसरे घर क्यों जाऊँगी माँ। मेरी नौकरी है तो आर्थिक रूप से आपको किसी पर बोझ नहीं बनने दूँगी।"

      "यही समाज का नियम है। विवाह तो करना ही होता हैं।" माँ ने उसे समझाते हुए कहा।

      "मैं यह नियम मानने से इनकार करती हूँ। विवाह कर मैं किसी को मानसिक प्रताड़ना नहीं दे सकती। कोई भी विरोध अपने घर से आरम्भ होना चाहिए।" मीना के स्वर में दृढ़ता झलक रही थी।

      "कैसी प्रताड़ना देने की बात कर रही हो मीना?"

      "वही, जो आज तक आप पापा को देती आई हो।"

      "मैंने क्या किया है?" बेटी के इस आरोप से सरला घबरा गई।

      "आप हमेशा पापा पर अहसान जताती रही हो, कि विवाह कर, अपने सबों को छोड़कर आप यहाँ आईं। पापा उस समय खुद को अपराधी समझने लगते हैं। आपको भी तो पता था कि यह समाज का नियम है। घरवालों को नहीं छोड़ना था तो अपने ही घर रहना चाहिए था। माना कि पहले के समय आर्थिक मजबूरी रहती थी। लड़की विरोध नहीं कर सकती थी। अब तो ऐसी बात नहीं है।"

      "ये तू क्या बोले जा रही है मीना?"

      "सही तो कह रही हूँ माँ, विवाह एक सामाजिक बंधन है। विवाह के बाद घर छोड़ने के त्याग को बार-बार कहकर किसी को अपराध बोध से ग्रसित रखना भला क्यों? मुझे कोई जबरदस्ती तो अपने घर नहीं ले जा सकता। विरोध मेरा ही है कि मुझे कहीं नहीं जाना।"

      मामूली नोक-झौंक का बेटी पर इतना गहरा असर देख सरला स्तब्ध रह गई। पिता ने पुत्री को निहारा और पीठ पर स्नेह का हाथ रख दिया।


2. सुपर मॉम

"भैया, मम्मी को पहले भी जब थकान लगी थी, तो उस वक्त आपने दिखाया क्यों नहीं?"

     "मम्मी तो सुपर मॉम हैं। सब कुछ सम्भाल लेती हैं। कभी उन्हें थकते नहीं देखा। काम करते हुए थोड़ी बहुत थकान तो हो ही जाती है, इसमें कौन-सी बड़ी बात है। लेकिन तुझे कैसे पता कि मॉम को थकान लग रही थी।" भैया ने सफाई देते हुए कहा।

     "मैं परसों भी आई थी। अपने लिए कभी कुछ न कहने वाली मॉम ने हताश स्वर में कहा था--"बहुत थकान लग रही है। चलते हुए लगता है कि अभी गिर पड़ूँगी।" 

      "मैंने कहा था कि डॉक्टर के यहाँ चलते हैं। उन्होंने कहा--"नहीं, डॉक्टर की जरूरत नहीं, वैसे ही ठीक हो जाउँगी। पहले भी कई दफा ऐसा हुआ है, फिर अपने आप ठीक भी हो गई थी।"

      बहन ने एक कागज़ थमाते हुए भाई से कहा--"मैंने उसी दिन उनका ब्लड टेस्ट करवाया था। भैया, ये आपकी सुपर मॉम की ब्लड रिपोर्ट आई है।"

      "ओह ! विटामिन 'डी' और हीमोग्लोबिन, दोनों इतना कम।" रिपोर्ट भैया के हाथों में फड़फड़ा रही थी।

       "तुम दोनों बेकार ही परेशान हो रहे हो। मैं तुम दोनों के लिए कुछ बनाकर लाती हूँ।" माँ ने बात टालने के लिए कहा।

       "आप सुपर मॉम हो। मेटल मॉम नहीं।" कहते हुए भैया ने माँ को कुर्सी पर बैठा दिया और खुद रसोई में चले गए।

       "माँ, यह आपकी भी भूल थी कि खुद को न थकने वाली मशीन समझा। अब दवाएँ समय पर लेते रहें और स्वयं को स्वस्थ रखें। पढ़े लिखे होने का यह फायदा दिखना चाहिए।" बेटी और बेटा एक साथ चिर्रा पड़े। 

       बच्चों की झिड़की सुन, माँ को अपनी माँ की याद हो आई। शरीर में हड्डियों का घनत्व कम होने के कारण ऑस्टियोपोरोसिस का शिकार होकर वह दस वर्षों तक बिस्तर से उठ ही नहीं पाई थी। काश उस समय यही बात मैंने भी, अपनी माँ को कही होती?


3. छाया दान

एक-एक कर सारे गमले ठेले पर चढ़ाए जा रहे थे। आदित्य बाबू हर गमले की पत्तियों पर हाथ फिराते, फिर जाने देते। बड़े नावनुमा गमले में बरगद का बोनसाई था। जिसमें तीस वर्षों से उनकी पत्नी वट सावित्री पूजा करती आई थी। एक बार पानी की टँकी बेकार हो गयी तो उसमें मिट्टी भरकर आम का वृक्ष लगाया गया था, ताकि सत्यनारायण की पूजा में आम के पल्लव मिल सकें। वैसे ही दान के लिए आँवले का पेड़ और शिव पूजन के लिए बेल का पेड़ भी लगा हुआ था। तीन तल्ला घर में ऊपरी छत पर पूरा एक बगीचा सुशोभित था।

      अब गुलाब के गमले ठेले पर जाने लगे। सफेद, लाल, गुलाबी, काले, पीले गुलाब; सबका अपना-अपना महत्व और सबकी अपनी-अपनी सुंदरता थी।

      इसी तरह बोगनविलिया, जिनिया, लिली, चमेली, बेली, कनेर, अपराजिता, अड़हुल, मीठा नीम के पौधे भी घर से निकलने लगे। हर पौधे के साथ आदित्य बाबू की आँखों मे नमी बढ़ती ही जा रही थी।

       तभी, पड़ोसी अरुण बाबू ने उनका हाथ थाम लिया और बोले--"पूरा बगीचा किधर भेज रहे भाई। क्यों हटा रहे हो यह सब?"

      आदित्य बाबू बोले--"रिटायरमेंट के बाद, यह शहर छोड़कर जा रहा हूँ भाई। अब बच्चे जिस शहर में रहेंगे, वहीं हम भी रहेंगे। पेड-पौधों को सूखने के लिए नहीं छोड़ सकता।" आवाज में दर्द साफ झलक रहा था।

      "तो इन्हें पड़ोसियों में बाँट देते भाई।"

      "बात तो सही है अरुण बाबू, लेकिन किसी पर अवांछित बोझ नहीं डाल सकता। इसे नर्सरी वालों के हवाले कर रहा हूँ। वही इसकी कीमत समझेंगे। कोई वहाँ से पैसे देकर खरीदेगा तो वह भी कीमत जानेगा।"

      "कितने पैसे दे रहा है नर्सरी वाला?"

      "दान में दी जा रही वस्तु की कीमत नहीं ली जाती।"

       तभी, पास खड़ी अरुण बाबू की माँ बोल पड़ीं--"यह छाया दान है बेटा, पर्यावरण रक्षा के लिए इस दान का बहुत पुण्य मिलेगा तुम्हें ! इन्हें हम अपने घर ले जाते हैं। इनके सहारे तुम्हारा स्नेह भी हमें याद आता रहेगा।"

       आदित्य बाबू ने झुककर माता जी के पाँव छू लिए।


4.परछाई

जीवन के उतार-चढ़ाव समझने की कोशिश में वह थोड़ा परेशान रहने लगा था। एक दिन, प्रोफ़ेसर ने उससे कहा--"वह सूरज उगने के साथ ही उठे और सूरज की ओर मुँह करके बैठ जाए। उसके बाद उसकी जो परछाई बनेगी, वह दिन के पहर बीतने के साथ-साथ कैसे-कैसे बदलती है, उसे लिखता जाए और मुझे दिखाया करे।"

      आज उसने यही करने का फैसला किया। सूरज उगा, वह भी उठा और एक खुली जगह पर आसन जमा लिया। सुबह, दोपहर, शाम और रात की परछाई का सर्वेक्षण था। निर्देशानुसार मुँह हमेशा पूरब की ओर ही रखना था। रात को वह प्रोफेसर के घर पहुँचा। प्रोफेसर ने उसे सर्वेक्षण पढ़ने को कहा। उसने पढ़ना शुरू किया--"सुबह में, लम्बी सी परछाई मेरे पीछे थी। दोपहर को वह मेरे आस-पास सिमट आई थी। शाम को परछाई फिर से लम्बी हुई। लेकिन शाम के समय वह मेरे आगे की तरफ थी। रात में तो बिल्कुल ही गायब हो गई थी। हाँ, एक बार दिन में परछाई धूमिल भी हुई थी। यह तब हुआ, जब आसमान में बादल आये थे।"

      प्रोफेसर ने उससे कहा--"तो समझ लो कि सूर्य जीवन है और परछाई है, यह जमाना। मनुष्य जब जन्म लेता है तो अपनी ऊर्जा, अपनी सफलता से पूरे जमाने को अपने पीछे चला सकता है। सफलता की ऊँचाई पर सारा जमाना उसके इर्द-गिर्द सिमटा रहता है। जीवन की संध्या में उसे जमाने के पीछे चलना होता है, और फिर मिट जाना होता है। मनुष्य मात्र एक बिम्ब है, जो सफलता की परछाइयाँ बनाता हुआ, एक दिन मिट जाता है। बादलों के कारण परछाई धूमिल हो सकती है, पर कुछ देर के लिए ही।"

      उसने अपनी उम्र देखी। और परछाइयों को अपने इर्द-गिर्द समेटने के लिए निकल पड़ा।


5. बेटी बड़ी हो गई

"आज हमारी बिटिया अट्ठारह साल की हो गई। अब तुम अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकोगी। मैं मतदाता सूची में तुम्हारा नाम दर्ज करवा देता हूँ।" पुत्री के अट्ठारहवें जन्मदिवस पर पिता ने बिटिया को बधाई देते हुए कहा।

     "लेकिन पापा, मैं तो चार वर्ष पहले ही बड़ी हो गई थी।"

     "अच्छा ! ये आपको किसने बताया?"

      "चार वर्ष पहले ही दादी ने कहा था कि अब मै बड़ी हो गई हूँ, और मुझे लड़कों से दूर रहना है।"

      मातृ-विहीन बिटिया को उसके पिता शारीरिक रूप से बड़े हो जाने और बौद्धिक रूप से उम्र का फर्क, चाहकर भी समझा नहीं सके थे।

*****

ऋता शेखर 'मधु'