सोमवार, 29 जून 2015

खिल कर महका मोगरा

ये दोहे अनुभूति पर प्रकाशित हैं|

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नभ में खिलता चन्द्रमा, नीचे बेला फूल।
कुशल चितेरे ने रचा, लतिका को बिन शूल।।१

खिल कर महका मोगरा, घुली पवन में गंध।
अनुरागी बन अलि कली, बना रहे अनुबंध।।२

जहाँ बसा है मोगरा, वहाँ बसी है प्रीत।
एक पुष्प हँसकर दिया, पुलक गया मनमीत।।३

बेला की हर पाँखुरी, करे तुहिन से बात।
अलसाई सी चाँदनी, सोई सारी रात।।४

नवल धवल बेला करे, शंकर का शृंगार।
पावन तन मन में हुआ, शुभता का संचार।।५

फूला जब भी मोगरा, विरहन हुई उदास।
हृदय हूक से जो भरा, विकल हो गई आस।।६

भर अँजुरी में मोगरा, चल सजनी उस पार।
विष बेलों को काटकर, वहाँ उगाएँ प्यार।।७

आई बेला साँझ की, सूर्य हो गया अस्त।
बगिया में बेला खिला, भ्रमर हुआ अलमस्त।।८

मुठ्ठी में भर चाँदनी, और ओक में गंध।
बेला ने भी रच दिया, मोहक छंद निबंध।।९

शबनम के मोती झरे, कोमल हैं अहसास।
अँखियों में छाई नमी, बना मोगरा खास।।१०

वेणी में बेला गुँथे, रचे महावर पाँव।
डाले कंगना हाथ में, आना मेरे गाँव।।११

- ऋता शेखर 'मधु'
२२ जून २०१५

मंगलवार, 23 जून 2015

कलम...

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वह नन्हा सा बालक
उन्मुक्त आकाश में 
उड़ान का स्वप्न लिए
चुनता था दूध की पन्नियाँ
बीनता था टूटी काँच
जमा करता बिसलरी की बोतलें
जब बोरे भर जाते
शान से कंधे पे उठा 
इस तरह से चलता
जैसे कोई खजाना हाथ लगा हो
बेच देता बीस रुपए किलो के भाव से
अपनी जमा की हुई दौलत
और सौंप देता माँ को ले जाकर

बहुत दिनों से देख रही थी
विद्यालय की खिड़की से परख रही थी
बीच बीच में कनखियों से
वह भी देख लेता मुझे
एक दिन इशारे से बुलाया
बेटे, तुम विद्यालय आया करो
मेरी माँ बीमार रहती है
पैसे नहीं ले जाऊँगा तो खाऊँगा क्या
समझाया उसे-
सरकारी विद्यालय में पैसे नहीं लगते
स्कूल के बाद अपना काम भी करना
चमक उठी उसकी आँखें
मुस्कुरा उठे उसके होंठ
मैंने थमा दिया उसे एक कलम
और वह मासूम उसे यूँ निहार रहा था
जैसे शिक्षा के हिंडोले पर सवार हो
जाएगा वह बादलों के पार 
भर लाएगा तारों से भरी थैली
जब उसकी माँ देखेगी
तब सफल हो जाएगी
उसकी शैक्षिक उड़ान
वह भी तो बन जाएगा
समाज की पहचान
*ऋता शेखर मधु*