शनिवार, 28 जून 2014

मानव को वरदान में, मिले बोल अनमोल

13.
चाकी पर घट ढालता, कारीगर कुम्हार,
माटी जल में भीगती, लेती है आकार|
लेती है आकार, आँच में फिर तप जाती,
प्यारी सी सौंधास, नीर में भर कर लाती|
बचपन ऐसे पाल, बसे अंतस में खाकी,
परमारथ हो काज, करे जैसे ये चाकी|

12.
मानव को वरदान में, मिले बोल अनमोल,
हृदय तुला में तोलकर, मन की परतें खोल|
मन की परतें खोल, भाव भी रखना निश्छल,
शीतलता के साथ, चाँदनी भाती हरपल|
कुछ निर्मम अपशब्द, बना देते हैं दानव,
मर्यादा हो साथ, वही कहलाते मानव|

11.
महकी है फिर वाटिका, पाकर कुसुम कनेर,
जागो भी गृहलक्ष्मी , अब नहिं करो अबेर|
अब नहिं करो अबेर, सुरभि शिव पर बिखराओ,
गाकर मंगल गान, पुष्प स्वर्णिम लिपटाओ|
आराधन के बाद, खुशी घर भर में चहकी,
पाकर कुसुम कनेर , वाटिका फिर से महकी|

10.
छाया को तुम काटकर, ढूँढ रहे अब छाँव,
पगडंडी को पाटने , आज चले हो गाँव |
आज चले हो गाँव, लिए कुल्हाड़ी आरी,
क्या काटोगे पेड़, नष्ट कर दोगे क्यारी ?
बना ताप संताप, विकल जीवों की काया,
रूठ रही है वृष्टि, सिमटती जाती छाया|

9.
चहकी घर की डाल पर, आँगन था गुलजार,
चूँ चूँ करके माँगती, दाना बारम्बार|
दाना बारम्बार, छींट के हम बिखराते,
गौरैया का झुंड, देख के फिर इतराते|
बँटवारे की आग, हृदय में उनके दहकी,
काट गए वो डाल, सहम पाखी नहिं चहकी

8.
धन दौलत केे मोह में, अपना आज गँवाय,
मन का जो नादान है, नासमझी करि जाय|
नासमझी करि जाय, क्षोभ दिल पर ले लेता,
करके भागमभाग, रोग को न्योता देता|
बिगड़ें जब हालात, काम आती नहिं दौलत,
समझो तन का मोल, वही होता धन दौलत|
............ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 24 जून 2014

बंधन में स्वतंत्रता

उड़ते परिंदे ने पूछा-
'अरी पतंग
उन्मुक्त गगन में
इधर उधर विचरती
तू बहुत खुश है न'
'हाँ, बहुत खुश हूँ'



'मगर तूने देखा
तेरे में जो डोर बँधी है
वह बाधक है
तेरी स्वच्छंंदता में
डोर ही तय करती है
तुम्हारी दिशा, गति
और उड़ान की ऊँचाई भी'

हौले से मुस्कुराई
फिर बोली पतंग
'वह डोर है मेरे संस्कारों की
उनमें चमकता है मेरा सिन्दूर
खनकती हैं मेरी चूड़ियाँ
चहकती हैं किलकारियाँ
और मैं चाहती हूँ
वह डोर इतनी मँझी रहे
इतनी अकाट्य रहे
कि उड़ती फिरूँ मैं निर्भीक'
.
परिंदे, तुम क्या जानो
बंधन में स्वतंत्रता का सुख
...ऋता
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रविवार, 15 जून 2014

बाबुल में ही जानिए संबल का आधार--ऋता

७.
बाबुल में ही जानिए, संबल का आधार,
बाबुल में ही मानिेए, अम्बर सा विस्तार|
अम्बर सा विस्तार, सहज ही हम पा जाते,
कदमों में विश्वास, निडर बन के ले आते|
हाथ सदा हो माथ, हिंद हो या हो काबुल,
बरगद जैसी छाँव, डगर पर देते बाबुल|
६.
तरुवर फूलों से लदे, झुककर दें यह ज्ञान, जिनमें भरी विनम्रता, वही लोग विद्वान| वही लोग विद्वान, क्रोध को जो पी लेते, तज बदला का भाव, मान वो सबको देते| उनके शीतल बोल, बनाते उनको प्रियवर, सहकर आँधी धूप, फलों से लदते तरुवर|
५.
सागर की लहरें कहें, गति ही जीवन नाम,
गिरने पर फिर से उठें, करती है संग्राम|
करती हैं संग्राम , गहन उनकी गहराई,
देकर उज्जवल सीप, भाव उसने बिखराई|
मन में मूरत दिव्य, रहे नटवर नागर की,
तट पर मिलती थाह, कहें लहरें सागर की|

४.
दामन सच का थाम कर, मन में राखो राम,
जीवन पथ होगा सरल, करते जाओ काम|
करते जाओ काम, हृदय को रखना चंगा,
मन हो निर्मल पात्र, समा जाती है गंगा|
तीन पग में त्रिलोक, नाप लेते हैं वामन,
टाँको सच का सीप, चमक जाता है दामन|
३.
हरियाली को चूमने, चली बसंत बयार
नख से शिख श्रृंगार कर, निखरा हरसिंगार निखरा हरसिंगार, लचक जाती हर डाली चटके जब कचनार, चहक जाता वनमाली कूक रही हर बौर, आज कोयलिया काली पहन पुष्प परिधान, झूम जाए हरियाली
२.
बंजारा मन उड़ चला, सात समंदर पार|
चुन भावों की मंजरी,रच कुण्डलिया हार||
रच कुण्डलिया हार,बनाते छंद विगाथा| 
कभी कृष्ण के साथ, कहें मनभावन गाथा||
घूम रहा मन खेत, लिखें सागर ध्रुवतारा|
कहता हिय की पीर, बावरा मन बंजारा||
१.
जागो जनता देश की, बदलेगी सरकार|
देखो चारो ओर है, वादों की भरमार|
वादों की भरमार, साथ हैं अनगिन नारे|
'पाओगे अधिकार', यही बोलेंगे सारे|
दे दो अपने वोट,अलस को अब तो त्यागो ,
बदलेगी सरकार, देश की जनता जागो|
..........ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 10 जून 2014

कभी बैठ भी जाया करो

कभी बैठ भी जाया करो... 
सहेलियो, आज बस तुमसे बातें करने की इच्छा हो गई|
घर के कामकाज में उलझे रहते हैं हम हमेशा, कभी साथ बैठकर बोल बतिया भी लिया करो|
अच्छा, ये बताओ कि आज कामवाली आई या नहीं| अ र र नहीं आई, च्च्च् तब तो सारे काम ही तुम्हें करने पड़े होंगे| खाना बनाने के अलावा झाड़ू पोछा, कपड़े धोना, बरतन धोना वगैरह वगैरह| क्या कहा, तुम रोज ही करती हो| तब तो सही है|
सखियो, काम तो करती हो पर कभी यह ध्यान दिया है कि पूरे काम के दौरान तुम जमीन में कितनी बार बैठती हो| जमीन में पलथी मारकर नहीं, चुक्को मुक्को बैठ पाती या नहीं| उम्र के साथ कमर के बढ़ते घेरे कहीं बाधा तो नहीं पहुँचा रहे | एक जमाना वह हुआ करता था कि महिलाएँ सारा काम जमीन में बैठकर ही किया करती थीं| झाड़ू लगाना हो तो बैठकर पूरे घर के कोने कोने से धूल निकालने का काम स्वयं बड़े मन से करती थीं| अब क्या है, महरी नहीं आई तो बस कामचलाऊ झाड़ू दे दिया गया बिल्कुल नगरनिगम की ओर से तैनात सड़क के झाड़ूवाले की तरह| पोछा के लिए बाल्टी में पानी लेकर कपड़े निचोड़ निचोड़ कर पौंछा करती हो या वो लम्बे से डंडे में स्पंज वाला पोछा खड़े खड़े मार लेती हो| मसाला भी तो सिल बट्टे पर नहीं पीसे जाते| मिक्सर, या नहीं तो बाजार के मिलावटी पाउडर वाले मसाले| अब बताओ, यह काम भी खड़े खड़े हो गया कि नहीं| कपड़े बैठकर धोए होंगे तो ठीक है या वाशिंग मशीन में डाला और सिर्फ कपड़े फैलाने में जो मेहनत करनी पड़ी हो| फिर तुम बैठी कब ? बरतन धोने के लिए भी सिंक का ही इस्तेमाल कर लेती हो| खड़े खड़े बरतन भी धुल जाते हैं| मेरी एक सहेली है वह पूजा भी खड़े खड़े ही करती है, पूरी चालीसा पढ़ लेती है| अब रसोई में चलते हैं| कोई आधुनिक फुड प्रोसेसर है तो कहने ही क्या, नहीं भी है तो स्लैब पर फटाफट सब्जी काटा और सब्जी भूँजने की जहमत भी कौन उठाए| सारे मसाले डालो और सीटी मार दो| पेट तो भर ही जाएगा चाहे सब्जी में सोंधापन आए या नहीं| बच्चों ने नाश्ते की फ़रमाइश की तो मैगी-पास्ता जिन्दाबाद!! कुछ बदलने की फरमाइश हो तो ब्रेड के बीच खीरा प्याज भर दो| बैठने की गुंजाइश यहाँ भी नहीं| खाना ठंडा हो जाए तो गैस के पास जाने की ज़हमत भी कौन उठाए| अरे भाई, माइक्रोवेव है तो वारे न्यारे| बचपन में जब हम संयुक्त परिवार में रहते थे तो परीक्षा के बाद जो डेढ़ महीने की छुट्टी होती थी तो पूरे परिवार की रोटियाँ बनानी पड़ती थीं| दादा दादी,मम्मी पापा, चाचा चाची, बुआ, अतिथि के रूप में विराजमान कुछ लोग और भाई बहन, अर्थात पचास साठ रोटियाँ- अब पहले के लोग रोटियाँ गिनकर थोड़े ही खाते थे| कोई अच्छी सब्जी बनी तो थोड़ी ज्यादा भी खा लेते थे| उतनी रोटियाँ चाहे कोई भी बनाए वह बैठकर आँच वाले चुल्हे पर ही बनेंगे| पीढ़े पर बैठकर रोटियाँ बेलते हुए पेट भी बेचारा चिपका रहता घुटनों के बीच में, अब सोचती हूँ कितना सेहतमन्द काम था ये| अब सोचो सखियों, अपने नन्हे से परिवार में तुम कितनी रोटियाँ सेंकती हो ? सेंकती भी तो खड़े खड़े ही न|
सारे काम खड़े होकर करने की आदत भारी पड़ रही है| हर दिन कोई भी एक काम घुटने मोड़कर बैठकर करो| यदि पाँच मिनट से ज्यादा नहीं बैठ पाती तो राम बचाए, स्थिति थोड़ी विकट है| पर घबराने की कोई बात नहीं| साफ घर मे ही किसी एक कमरे में बैठकर पोछा मार लो घुटने को जमीन पर रखे बिना| जितना समय जिम में व्यतीत करती हो उतने में घर का ही काम करो| शरीर तो मशीन है, चलाते रहने से जंग नहीं लगता और स्लिम भी दिखोगी| ठीक है सखियो, अब हम चलते हैं| पन्द्रह दिन बाद बताना पेट कुछ कम हुआ या नहीं |

............................ऋता शेखर 'मधु'

मंगलवार, 3 जून 2014

आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ











आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ
कान्हा तेरी प्रीत को मैं रंगों से सँवार दूँ

नील मेघ सा रंग है तेरा गहरी झील सी आँखें
तेरे रक्त अधर पर मैं रहस्य मुस्कान निखार दूँ
आ तुझे मैं अपनी कूची में उतार लूँ
कान्हा तेरी प्रीत को मैं रंगों से सँवार दूँ

ओ नील गगन के टिमटिम तारे कौन सा रंग है तेरा
तेरे नटखट कौतुक किरणों में रंग रुपहले निखार दूँ
आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ
कान्हा तेरी प्रीत को मैं रंगों से सँवार दूँ

जित देखूँ तित ही बहार है अगनित रंग हैं तेरे
वसुधा के हरित आँचल में बहुरंगे कुसुम पसार दूँ
आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ
कान्हा तेरी प्रीत को मैं रंगों से सँवार दूँ

रंगों के मनभावन छिटकन से तितली के पंख सजे
कलियों के संग रंग राग भर उनमें मैं विस्तार दूँ
आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ
कान्हा तेरी प्रीत को मैं रंगों से सँवार दूँ

जब जब रोता है अम्बर इक इंद्रधनुष उगता है
सात रंगों के दामन में मैं खुशियों को विस्तार दूँ
आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ
कान्हा तेरी प्रीत को मैं रंगों से सँवार दूँ

जितना ऊपर अम्बर है उतना ही गहरा है सागर
निस्सीम धरा पर सीप मंजरी का अतुल भंडार दूँ
आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ
कान्हा तेरी प्रीत को मैं रंगों से सँवार दूँ

जब जब आती रात अमा की कोई रंग न सूझे
स्याह रंग की कालिख को जगजीवन से निसार दूँ
आ तुझको मैं अपनी कूची में उतार लूँ
कान्हा तेरी प्रीत को मैं रंगों से सँवार दूँ
.............ऋता शेखर 'मधु'