गुरुवार, 30 जनवरी 2014

ससुराल में ठीक से रहना बेटी


    

 दुल्हन के वेश में  सजी वह निढाल सी तकिए पर गिर पड़ी और सुबक सुबक कर रोने लगी| आँसुओं से तरबतर चादर और तकिया , हिचकियों से रूँधा गला और हताश सी उसकी आँखें निःशब्द थीं| कुछ देर तक वह इसी अवस्था में रही फिर धीरे धीरे स्वयं को संयत किया| थके थके कदमों से आँगन में गई जहाँ उसके पिता की मृत देह पड़ी थी| एक सुकून था उनके चेहरे पर जैसे वह अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गए हों| स्नेहा बगल में बैठ गई और एकटक उन्हें निहारने लगी| एक पिता के लिए उसकी बेटी की शादी कितनी महत्वपूर्ण होती है यह तो हर लड़की एवं पिता का दिल ही जानता है| 
     आज सुबह ही तो स्नेहा के पिता स्नेहा की शादी तय करके लौट रहे थे| खुशी से उनका चेहरा चमक रहा था| वे यह समाचार घर में खुद ही सुनाना चाहते थे इसलिए घर पर फोन भी नहीं किया था| चार बहनों में सबसे बड़ी थी स्नेहा और बिटिया को दुल्हन के रूप में देखने की तमन्ना उनमें उत्साह पैदा कर रही थी | किन्तु विधि ने कुछ और ही रचा था इस मौके के लिए| ट्रेन से उतरते हुए अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे प्लेटफॉर्म पर ही गिर पड़े| जब तक लोगों का ध्यान उधर गया और उचित चिकित्सा मिलती तबतक बहुत देर हो चुकी थी| अस्पताल में वे कौमा की अवस्था में पहुँचे | स्थिति में सुधार आते ही डॉक्टर ने उन्हे घर जाने की इजाजत दे दी|  सभी बहने सामने आईं| बीमार पिता के चेहरे पर स्नेहा को देखते ही मुस्कान खिल गई| कुछ कहना ही चाह रहे थे कि कमजोरी से आँखें झपक गईं| सबने उन्हें आराम करने दिया| 

     अचानक उनकी आँख खुली और वे जोर जोर से बोलने लगे---स्नेहाssss स्नेहा ,तुम तैयार नहीं हुई अभी तक| बाहर दरवाजे पर बारात आ चुकी है और तुम घर के कपड़ों में ही बैठी हो| जाओ जल्दी तैयार हो जाओ| मेरी बेटी आज दुल्हन बनेगी...मैं बहुत खुश हूँ...जाओ बेटी , जल्दी से तैयार हो जाओ|

     स्नेहा की माँ और सभी लड़कियाँ एक दूसरे का मुँह देखने लगीं| फिर माँ ने इशारा किया कि वह तैयार हो जाए वरना भावातिरेक में वे पुनः अचेत हो सकते थे|
स्नेहा चुपचाप उठी और कमरे में गई| माँ के बक्से से लाल बनारसी साड़ी निकालकर पहन लिया उसने| हाथों में चमकीली चुड़ियाँ पहन लीं| नथ और टीका भी पहन लिया| लाल चुनर सर पर डाल वह धीरे धीरे आकर पिता के सामने खड़ी हो गई| बेटी को दुल्हन के रूप में देख एक संतुष्टि उभरी उनके मुख पर और उन्होंने बेटी को पास बुलाया| उसके दोनो हाथों को थामकर अपलक देखते रहे|

'ससुराल में ठीक से रहना बेटी'| 

अब स्नेहा से बरदाश्त नहीं हुआ | देर से छलक रही आँखों से आँसुओं की धार बह चली| धीरे धीरे उसे महसूस हुआ कि पिता के हाथों की पकड़ ढीली होती जा रही है| हड़बड़ा कर सचेत हुई स्नेहा तबतक पिता के प्राण पखेरु उडं चुके थे मगर संतोष झलक रहा था चेहरे की हर लकीर में|
....................................ऋता शेखर 'मधु'

शनिवार, 25 जनवरी 2014

ईश्वर के दरबार में झूठ कभी मत बोलो|


तुम ही मेरे राम हो, तुम ही हो घनश्याम|
ओ मेरे अंतःकरण, तुम ही तीरथ धाम||
तुम ही मेरा काव्य हो, तुम ही मेरा ग्रन्थ
आलोचक बनकर सदा, सही दिखाते पन्थ||



ईश्वर के दरबार में झूठ कभी मत बोलो|
हो जाए गर भूल तो मन ही मन में तोलो|
दिल में अपने झाँक कर खुद से खुद को परखो,
करके पश्चाताप फिर मन की परतें खोलो|

साँवरे कान्हा श्याम, मनोहर कृष्ण मुरारी|
सांवरिया को देख, हृदय उनपर ही वारी|
सुन वंशी की तान, पुलकित राधिका प्यारी|
गिरधर की है मीत, लली वृषभानु कुमारी|

सोच रही हूँ सोन चिरैया फिर से वापस आएगी|
फुदक फुदक हर डाल डाल पर मीठे गीत सुनाएगी|
पर लगता है भूल वतन को,अभी तलक वह रूठी है।
संजीदा बन देख रही क्या वह वादोँ की झूठी है।। 

जीवन  वापस लौट चलो अब गाँव जहाँ हम खेल रहे थे|
पेंग भरा मनभावन झूलन आँगन में हम ठेल रहे थे||
भोर भई जब कोयलिया कुहकी तरु मंजर से जमता है|
डोल रही अब सांध्य घड़ी मन भी घनश्यामल में रमता है||
................ऋता

शनिवार, 18 जनवरी 2014

यह है मौज मनाने का दिन



यह है मौज मनाने का दिन
खेलने हँसने गाने का दिन
छुपा छुपाई दिन भर खेलें
सोमवार को हिन्दी पढ़ लें
मंगल की है बात निराली
गेंदा फूले डाली डाली डाली
बुधवार ने बिगुल बजाया
बच्चों ने फिर चित्र बनाया
गुरुवार को इंग्लिश पढ़ लो
फिर माटी से मूरत गढ़ लो
शुक्रवार को गणित है भाया
गिनती ने है शोर मचाया
शनिवार को शॉपिंग कर लो
मनचाहा डलिया में भर लो
रविवार है सोने का दिन
यह है मौज मनाने का दिन|
.........ऋता शेखर 'मधु'

सोमवार, 13 जनवरी 2014

मेरे हाइकु-जोशीले पग


इसमे एक हाइकु की अंतिम पंक्ति दूसरे हाइकु की प्रथम पंक्ति है

१.

जोशीले पग
वतन के रक्षक
रुकें न कभी|


२.

रुकें न कभी

धड़कन दिलों की

सूर्य का रथ|

३.
सूर्य का रथ
उजालों की सवारी
धरा की आस|

४.
धरा की आस
नभ से मिली नमी
उर्वर हुई|

५.
उर्वर हुई
सुनहरी बालियाँ
स्वर्ण जेवर|

६.
स्वर्ण जेवर
झनके झन झन
वधु-कंगना|

७.
वधु कंगना
झूम उठे अँगना
घर की शोभा|

८.
घर की शोभा
मर्यादा का बंधन
गृह रक्षित|

९.
गृह रक्षित
देहरी पर दादा
अनुशासन|

१०.
अनुशासन
घर का आभूषण
घर चमके|

११.
घर चमके
अमृत वाणी बूँद
सदा अमर|
.......ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 8 जनवरी 2014

तो मैं गीत तुम्हारे गाऊँ...


गीत....

हे नारायण दयामना
शीश नवा मैं करूँ प्रार्थना
दे दो भक्ति का भंडार
तो मैं गीत तुम्हारे गाऊँ|

पितृ भक्ति में राम बनूँ
मधुर भाव सुर श्याम बनूँ
हर लो नैनों से जलधार
तो मैं गीत तुम्हारे गाऊँ|

मीत कहूँ मन बसे राधिका
प्रीत रचे मीरा सी साधिका
रच दो आशा का आधार
तो मैं गीत तुम्हारे गाऊँ|

नवल वर्ष में हर्ष नवल
मन सरित में खिले कँवल
भर दो दिल में दया अपार
तो मैं गीत तुम्हारे गाऊँ|

बन नीलकंठ धारुँ गरल
सहज बोल व्यवहार सरल
गढ़ दो खुशियों का संसार
तो मैं गीत तुम्हारे गाऊँ|
प्रभु मैं गीत तुम्हारे गाऊँ|
.............ऋता

शनिवार, 4 जनवरी 2014

नए वर्ष का हुआ विहान - चौपई छंद

चौपई छंद - १५ मात्राओं के साथ अन्त में गुरु लघु



१.
नए वर्ष का हुआ विहान|
गिरधर छेड़ो अपनी तान||

नहिं नारी का हो अपमान|
कुछ ऐसा ही रचो विधान||

*****************

२.
वर्ष नवल आया है द्वार|
लेकर खुशियों का भंडार||
अनुपम है रब का उपहार|
सूर्य नवल कर लो स्वीकार||

******************

३.
ज्यूँ कान्हा की बात सुनाय
हिय राधे का बहु अकुलाय
विकल नैन पुनि भरि भरि जाय
प्रीत विदुर की समझ न आय|

*******************

४.
गाए ग़ज़ल हृदय की पीर|
कविता में नैनों का नीर||
व्यथित नज़्म खो देती धीर|
छंद बने बातों के वीर||

********************
५.
तरुवर से मिलती है छाँव|
कहत सरोवर धो लो पाँव|
सरस सुहावन मेरा गाँव|
पथिक सदा रुक पाते ठाँव|
***************************
६.
धरती का प्यारा परिधान|
गेहूँ सरसों झूमे धान|
गुलमोहर ने रख ली शान|
रखें सदा भारत की आन|
******ऋता

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

गुलाब...



नए वर्ष की प्रथम पोस्ट के रूप में गुलाब पर आधारित रचना पेश है.....आप सभी का जीवन गुलाब जैसा कोमल हो और गुलाब की खुश्बू जैसे रिश्ते अपनी सुगंध  बिखेरते रहें...शुभकामनाएँ सभी को !!

गुलाब......

खुश्बू संग रंग भी देखो|
जीवन की तरंग भी देखो|
बीच कंटकों के पनप रहा,
गुलाब की उमंग भी देखो|

फूल देते हाथ भी देखो|
दोस्तों का रुआब भी देखो|
किया है स्वीकार जब इसको,
निभाने का ख्वाब भी देखो|

चाचा की लिबास भी देखो|
सुरभित एहसास भी देखो|
गुलाब से कोमल हों बच्चे
जवाहर की आस भी देखो|

पुष्प की मधुर ताजगी भी देखो|
काँटों की नाराजगी भी देखो|
देवताओं के शीश है सोहता,
गुलाब की पाकीज़गी भी देखो|

................ऋता

आ० दिगम्बर नासवा सर...मैं आपकी पोस्ट पढ़ती तो हूँ पर कमेंट नहीं दे पा रही क्योंकि मैं गूगल+ पर नहीं हूँ...यदि आप मेरी इस रचना पर आते हैं तो आपसे निवेदन है कि साधारण वाला कमेंट बॉक्स लगाएँ अपने ब्लॉग पर...साभार !!