बुधवार, 15 मार्च 2017

अब और नहीं...लघुकथा

अब नहीं...
घर में विवाह का माहौल था| सभी परिवार जन जुटे थे| हँसी ठिठोली चल रही थी| रसोई में उर्मिला जी खाना बनाने में तल्लीन थीं| बीच बीच में देवरानी रसोई में झाँककर औपचारिकता वश पूछ लेती,’’आपको कुछ चाहिए जिज्जी’’|
‘’नहीं, तुम बाहर सभी मेहमानों का ख्याल रखो’’
कहती हुई उनकी आवाज में गम्भीरता आ जाती क्योंकि वह जानती थीं कि उन्हे शहर से लाया ही गया है काम करने के लिए| वह विरोध भी नहीं कर सकती थीं| पति को अपने परिवार से अटूट लगाव था और पत्नी उनके परिवार की अवहेलना करे यह कतई बरदाश्त नहीं था|
दो वर्षों वाली टीचर्स ट्रेनिंग की डिग्री भी थी उनके पास| एक बार नौकरी के लिए नियुक्ति पत्र आया था किन्तु देवर और देवरानी ने कहा था,’’आपको नौकरी की क्या जरूरत है भाभी| सब कुछ तो आपका ही है|’’
‘सब सिर्फ काम के भागी हैं’ , यह सोचकर भी वे जवाब नहीं दे सकी थीं|
रसोई में बैठी चुल्हे में लकड़ी डालती हुई काठ की हाँडी में चढ़े चावल चला रही थीं| खदकते हुए चावल के साथ उनके विचार भी खदक रहे थे| सरकार ने पुराने ट्रेंड लोगों को उम्र से परे फिर से नियुक्त करने का फैसला लिया था| उन्होंने वहाँ आवेदन दिया हुआ था| गाँव आने के लिए जब वे घर से निकल रही थीं तभी डाकिया ने नियुक्ति पत्र का लिफाफा पकडाया था| पति ने देखा पर कुछ बोले नहीं| रसोई में वही नियुक्ति पत्र पड़ा था जो उनके विचारों में खदक रहा था|
भोजन का वक्त हो चुका था| देवरानी अन्दर देखने आई तबतक उर्मिला जी माँड पसा रही थीं| उत्सुकतावश देवरानी ने वह कागज उठा लिया| पढ़ते ही स्याह हो गई| फिर खुद को संयत करते हुए बोली, ‘’जिज्जी, अब इस उम्र में नौकरी....’’
‘’छोटी, देख , इस काठ की हाँडी में मैने चावल पकाया है| आगे यह हाँडी नहीं चढ़ेगी|’’
‘’जी, जिज्जी’’ समझदार देवरानी, जेठानी के स्वाभिमान से दीप्त चेहरे को पढ़कर चुप रह गई|
--ऋता

शुक्रवार, 10 मार्च 2017

रे मन! तू भीग जा


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रे मन! तू भीग जा

रंगों में प्रीत की
हो रही बौछार है
रे! मन तू भीग जा
होली का त्योहार है


पुलक रहा है रोम रोम
हुलस रही है रागिनी
रुप रस गंध लिए
हुई धरा पावनी

बसंत बना जादूगर
मकरंद का अंबार है
रे मन! तू भीग जा
पुष्प की मनुहार है

गलियों की टोलियों में
बाल बाल कृष्ण लगे
गोपियाँ नटखट हुईं
पलाश भी हुए सगे

ठिठोलियाँ गूँज रहीं
अबीर की भरमार है
रे मन! तू भीग जा
फागुनी बयार है

हृदय पटल पर घूमती
मायूसियों को त्याग दो
कह रही हैं तितलियाँ
धमनियों को राग दो

भंग की ठंडई में
विचित्र चमत्कार है
रे मन! तू भीग जा
प्रेम की पुकार है
-ऋता शेखर ‘मध

गुरुवार, 2 मार्च 2017

ये मिजाज़ है वक़्त का



अपने गम को खुद सहो, खुशियाँ देना बाँट
अर्पित करते फूल जब, कंटक देते छाँट

ये मिजाज़ है वक़्त का, गहरे इसके काज
राजा रंक फ़कीर सब, किस विधि जाने राज

दुख सुख की हर भावना, खो दे जब आकार
वो मनुष्य ही संत है, रहे जो निर्विकार

दरिया हो जब दर्द का, रह रह भरते नैन
हल्की सी इक ठेस भी, लूटे दिल का चैन

उड़ती हुई सोन चिड़ी, जा उलझी इक झाड़
ज्यों फड़काती पंख वो, बढ़ती जाती बाड़

गर्म तवे पर गिर गया, एक बूँद जो नीर
नाच नाच विलुप्त हुआ, कह ना पाया पीर

तितली भँवरे ने किया, फूल फूल से प्यार
हुलस हुलस कहती फ़िजा, सुन्दर है संसार

न दिख रही हैं तितलियाँ, न है भ्रमर का शोर
सिमट रही है वाटिका, घर है चारो ओर

सौ सौ हों बीमार जब, का करि एक अनार
सौ कामों के बोझ से, दबा रहा इतवार
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सब सुनाने लगे दास्ताँ अपनी अपनी
रफ़्ता रफ़्ता मैं चाँद हो गया

वक्त हमारा इंतजार नहीं करता
हम वक्त का क्यों करे
जो ख्वाब अधूरे हैं
पूरा करने में जुट जाएँ
आगे ये न कहें -"वक्त ही नहीं मिला "
तब वही वक्त कहेगा-"मैं तो हमेशा तुम्हारे साथ था"

काँटे मिलें या चाँटे
हमने तो बस
गुलाब ही बाँटे
मुक्तक

अंतस में हों भाव सुनहरे मुखड़े तभी सजा करते हैं
खिले गुलाबी रौनक से ही नैनन पात पढ़ा करते हैं
उबड़ खाबड़ रस्तो पर मनुज धैर्य से चलते जाना
बुलंद इरादों वाले ही चेहरों पर दृढ़ता गढ़ा करते हैं

गर गुलाब से जीवन की चाहत हो
दोस्ती काँटों से भी करना होगा
हुनर की खुश्बू फिजाओं में होगी
धैर्य की नदिया में भी बहना होगा
शे'र
बशर की हुनर में है पहचान उसकी
वो मिटकर भी दुनिया में आता रहेगा

किसे ये पता है किसे ये ख़बर है
वो किस किस को मरकर रुलाता रहेगा