ठनी लड़ाई
आज मेरी गणपति की सवारी के साथ ठन गई| गणपति के सामने लड्डुओं से भरा थाल रखा
था| उन लड्डुओं पर भक्त होने के नाते मैं अपना अधिकार समझ रही थी और वह मूषक
अपना...आखिर गणेश का प्रिय जो था| मेहनत की कमाई से लाए लड्डुओं को लुचकने के लिए
वह तैयार बैठा था| चूहों की तरह कान खडे करके गोल-गोल आँखें मटकाता दूर से ही वह
सतर्क था कि मैं कब अपनी आँखें बन्द करके ध्यान में डूबूँ और वह लड्डुओं पर हाथ
साफ करे| मैं भी कब दोनों आँखें बन्द करने वाली थी| एक आँख बन्द करके गणेश जी को
खुश किया और दूसरी आँख खुली रखकर चूहे पर नजर रखी| किन्तु ये भी कोई पूजा हुई
भला...देवता से ज्यादा ध्यान चूहे पर!
पल भर के लिए सीन बदल गया| थाल में लड्डुओं की जगह मेहनत की कमाई दिख रही थी
और चूहे में वह भ्रष्टाचारी जो एरियर का बिल बनाने के लिए पैसों पर नजर जमाए बैठा
था| फिर तो मैंने भी ठान लिया...उस चूहे को एक भी लड्डू नहीं लेने दूँगी|

ऋता शेखर ‘मधु’