गुरुवार, 30 अगस्त 2012

रोज सवेरे मेरे आँगन...




गौरैया               

रोज़ सवेरे मेरे आँगन
आती थी इक गौरैया|
कुदक-कुदक कर,
फुदक-फुदक कर,
दाना खाती वह गौरैया|
छोटी सी आवाज़ पर
चौकन्नी होती गौरैया|
चकित नज़र चहुँ ओर डालती
चपल चंचल थी गौरैया|
चिड़ा आए दाना लेने तो
चोंच  मारती  गौरैया|
नन्हें से बच्चे को लाती
वात्सल्य से भरी गौरैया|
खाना डालती बच्चे के मुख में
ममता की मारी गौरैया|
क्षुधा की पूर्ति हो जाती तो
चहचहा उठती थी गौरैया|
नहीं मिलते चावल के दाने
चूँ-चूँ कर माँगती गौरैया|
निकट जाने की कोशिश की तो
उड़ जाती थी गौरैया|


एक सुबह उलझी झाड़ी में
लंगड़ी हो गई गौरैया|
पंख टूट गए उसके
लाचार हो गई गौरैया|
किसी तरह आँगन में आई
चुपचाप खड़ी थी गौरैया|
दाना डाल दिया फिर भी
उदास पड़ी थी गौरैया|
हाथ बढ़ाया चुपके से
मुट्ठी में आ गई गौरैया|
प्यार से सहलाया उसे
सिमट गई वह गौरैया|
नज़र मिली उसकी नज़रों से
कृतज्ञ थी शायद वह गौरैया|               
                       ऋता शेखर मधु’ 

रविवार, 26 अगस्त 2012

बहू, घर चलो...


http://www.rachanakar.org/2012/08/51.html
रचनाकार पर कहानी प्रतियोगिता आयोजन में मेरी यह कहानी शामिल की गई है|
मैं अनु जी एवं वंदना गुप्ता जी की आभारी हूँ जिन्होंने रचनाकार पर इस कहानी को अपनी बहूमूल्य राय से सुशोभित किया है|आप भी पढ़ें...
बहू, घर चलो...

रात बीतने को आई किन्तु वकील साहब की आँखों में नींद नहीं थी| सारी सात वे अँधेरे में ही कमरे की छत की ओर आँखें गड़ाए ताकते रहे| कभी करवट बदलते, कभी उठकर बैठ जाते| लग रहा था बहुत ही उधेड़बुन में थे| जिन्दगी में अक्सर दोराहों का सामना हो जाता है जिनमें किसी एक रास्ते को चुनना बहुत कठिन लगता है| किन्तु निर्णय तो लेना ही पड़ता है उन्हें, जो सभ्य और संस्कारी होते हैं| जिनमें दूरदर्शिता नहीं होती उनके सामने कभी दोराहे नहीं आते...जीवन जैसे चल रहा है, बस ठीक है|
    वकील साहब का एक सुखी परिवार था| सुंदर पत्नी और शादी के लायक एक बेटा था जिसे वे बहुत प्यार करते थे| गाँव में अपनी खेती-बाड़ी थी, प्रैक्टिस भी खूब चलती थी| धनाढ्‌यों में गिनती होती थी उनकी| महल जैसा घर और घर में नए मॉडल की दो गाड़ियाँ थीं, एक उनके लिए और दूसरी उनके सुपुत्र के लिए| वकील साहब दिन भर किताबों में उलझे रहते| बेटे की देख-रेख का सारा भार उनकी पत्नी पर था| नवाबों की तरह वह पल रहा था| जब भी पैसे की जरूरत होती माँ इन्कार नहीं करती| बेटे से सख्ती नहीं कर पाती थीं| नतीजा यह रहा कि वह बिगड़ैल नवाब के रूप में जाना जाने लगा| किसी तरह से उसने ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई की थी| आकर्षक डीलडौल, घुँघराले बाल, गोरा चिट्टा था| बचपन से कभी अभाव नहीं जाना था इसलिए पैसे को पानी की तरह बहाता था| गुस्सा तो नाक पर ही रहता| जब वह किसी तरह की कोई नौकरी में नहीं जा सका तो वकील साहब ने बिजनेस में लगा दिया| यहाँ वह सफल हुआ, क्योंकि उस बिजनेस में दबंग की ही जरुरत थी|
   इतने धनी-मानी घर में अपनी बेटी को देने के लिए कई पिता उत्सुक थे| खूब रिश्ते आने लगे| अन्त में हर प्रकार से जिसे योग्य समझा गया वह निहारिका थी| लड़की की सारी खूबियों से सुशोभित...अर्थात लम्बी , गोरी, घर के कामकाज में निपुण, सुशील और आज्ञाकारिणी| सभी खुश थे| वकील साहब की पत्नी बड़े ही शौक से शादी की खरीदारियाँ कर रही थीं| निश्चित समय पर विवाह संपन्न हुआ| घर में खूब रौनक आ गई| इस घर में आकर निहारिका भी अपने भाग्य सराह रही थी|
  सुंदर पत्नी पाकर वकील साहब का बेटा भी प्रसन्न था| हमेशा दोस्तों के साथ घूमने के बजाय घर में ही रहता| किन्तु अपने बेटे के स्वभाव को लेकर वकील साहब सदा सशंकित रहते| बहू की हर जरूरत और सुख सुविधा पर नजर रखते| बहू भी सास-ससुर की सेवा में तल्लीन रहती| समय बीता...वकील साहब और उनकी पत्नी दादा-दादी बने| पोते को गोद में ले फूले न समाते थे| दिन बीतने लगे|
एक दिन वही हुआ जिसका डर था...सभी लोग डायनिंग टेबल पर बैठे खाना खा रहे थे| बेटे ने निहारिका को गरम पराठा लाने को कहा...तभी मुन्ना रोने लगा| निहारिका उसे संभालने चली गई| नवाबज़ादे ने इसे अपनी तौहीन समझा और खाने की प्लेट जमीन में पटक दिया| माता-पिता तो उसके गुस्से से वाकिफ़ थे ही, किन्तु निहारिका के लिए पति का यह रूप नया था| वह सहम गई और रोने लगी| वकील साहब ने भी खतरे की घंटी को समझा| किसी तरह से बहू को समझाया| निहारिका बच्चे के कारण उसपर अधिक ध्यान नहीं दे पाती थी| इस कारण वह रईसजादा अधिकतर समय घर के बाहर बिताने लगा और बुरी  संगति में पड़ने लगा|
  उसके बाद इस तरह की घटनाएँ अक्सर घटने लगीं| मैके के अच्छे संस्कार लेकर आई थी, इसलिए घर को अखाड़ा नहीं बनाना चाहती थी| वह हरसंभव चुप रहने का प्रयास करती| निहारिका की चुप्पी वकील साहब के बेटे की हिम्मत बढ़ाती गई| अब वह कभी- कभी निहारिका पर हाथ भी उठा देता| यह निहारिका को बहुत बुरा लगता फिर भी सास- ससुर का ख्याल करके चुप रह जाती क्योंकि उनसे उसे कोई शिकायत नहीं थी|
  गुस्सैल तो वह था ही, किन्तु हर हमेशे  मार-पीट का माहौल निहारिका को बरदाश्त नहीं होने लगा| अब तो वह किसी किसी रात घर भी नहीं आता था| वकील साहब की चिन्ता बढ़ती जाती थी| बेटे को समझाना चाहा, लेकिन उसका मन तो कहीं और उलझ गया था| वह निहारिका की ओर देखना भी पसन्द नहीं करता था| एक बार निहारिका का मन हुआ कि वह सब कुछ छोड़छाड़ कर वापस मैके चली जाए किन्तु संस्कार यह कदम उठाने की इजाजत नहीं दे रहे थे|
  एक दिन तो हद ही हो गई...वह नशे में धुत लड़खड़ाता हुआ आया और पत्नी को घर से निकल जाने का आदेश दिया| वह सकते में आ गई| उसने ससुर जी की ओर देखा| वकील साहब ने उसे समझाने की कोशिश की किन्तु वह कहाँ समझने वाला था| उसने उनके साथ भी बदतमीजी से बात की| निहारिका कुछ बोलना चाह रही थी तो नवाबज़ादे ने उसे जोर से धक्का मारा| अचानक हुए इस प्रहार को वह झेल नहीं पाई| गोद में मुन्ना भी था| दोनों ही औंधे मुँह गिर पड़े| उसने किसी तरह मुन्ने को तो बचा लिया किन्तु खुद उसका सर जमीन से टकरा गया| सर से खून निकलने लगा| मुन्ना बेतहाशा रोए जा रहा था|  माँ ने कुछ कहना चाहा तो उन्हें भी चुप कर दिया| परिस्थिति बेकाबू हो गई थी| वकील साहब बेटे की इस हरकत से बहू के सामने शर्मिन्दगी महसूस कर रहे थे| समय पर बेटे पर अंकुश न लगाने का परिणाम सामने था| उन्होंने डॉक्टर को बुलाया और बहू की मरहम पट्टी करवाई| डॉक्टर से उन्होंने झूठ बोल दिया कि वह सीढ़ियों से गिर गई है|
  अभी तक निहारिका ने अपने मैके में कुछ नहीं बताया था| किन्तु वह पढ़ी-लिखी लड़की थी| जहाँ तक हो सका उसने सहनशीलता दिखाई...किन्तु कब तक? यह सवाल उसके जेहन में बार-बार उठने लगे| मुन्ने के भविष्य का सवाल भी सामने था|
     उसने घर छोड़ने का फैसला ले लिया| अश्रुपूरित नजरों से उसने सास-ससुर से विदाई ली| वकील साहब के पास कहने के लिए कोई शब्द ही नहीं थे|
   निहारिका पिता के घर के दरवाजे पर खड़ी थी| उसे विश्वास था कि पिता जी उसका साथ देंगे| काँपते हाँथों से उसने कॉलबेल बजाया| दरवाजा पिता ने ही खोला| बेटी के सर पर बँधी पट्टी देखकर उनका कलेजा मुँह को आ गया| अनुभवी आदमी थे, पल भर में ही सारा माजरा समझ गए| बेटी को गले से लगा लिया|पिता का स्नेहिल स्पर्श पाते ही वह फूट पड़ी| उसने रोते-रोते सबकुछ बताया| पिता ने निर्णय सुना दिया कि अब वह उस हैवान के पास वापस नहीं जाएगी|
     इधर सारी दुनिया के लिए लड़ने वाले वकील साहब को अचानक सामने दोराहा नजर आने लगा| एक तरफ बेटा था तथा दूसरी ओर बहू और पोता| इसी उधेड़बुन में उन्हें सारी रात नींद नहीं आई थी| बेटा को घर छोड़ने के लिए कहें , दिल यह मानने को तैयार नहीं था| बहू जिसने कभी शिकायत का मौका नहीं दिया, उसे कैसे बेघर कर दें| उनका दिमाग काम नहीं कर रहा था| बहुत सोच-विचार कर उन्होंने फैसला ले लिया| पत्नी मानने को राजी न थी| उसे भी समझाया|
  वकील साहब बहू के मैके पहुँचे| निहारिका और उसके पिता ने आवभगत में कोई कसर नहीं रखा| वकील साहब ने कहा- बहू, घर चलने के लिए तैयार हो जाओ|
निहारिका ने पिता की ओर देखा|
पिता ने कहा- क्षमा कीजिए वकील साहब, मैं आपकी इज्जत करता हूँ किन्तु बेटी को न भेजूँगा| मुझे उसकी जान पर खतरा नजर आ रहा है| शार्ट टेम्पर्ड व्यक्ति कब क्या कर बैठे, इसका कोई ठिकाना नहीं| आप यहाँ आते-जाते रहें, पर निहारिका को न भेजूँगा|
   मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, ऐसा कुछ न होगा| मेरा घर बहू और पोते का है, अपने बेटे को मैंने घर से निकाल दिया है| निहारिका सम्मान के साथ वहाँ रहेगी|
   निहारिका के पिता अवाक् रह गए| ऐसा भी होता है कि बहू के सम्मान के लिए इकलौते बेटे को घर से निकाल दें| जिसने भी सुना वकील साहब के न्याय पर दाँतों तले ऊँगली दबाकर रह ग‌या| वकील साहब बहू और पोते को आदर के साथ घर ले आए| बहू अपने स्वभाव के अनुरूप घर को सँभालती हुई मान मर्यादा से रहने लगी| पोते को उन्होंने बहुत अच्छी शिक्षा दी| अब वह एक ऊँचे पद पर कार्यरत था| एक बार वकील साहब के बेटे ने घर आने की कोशिश की किन्तु पिता से दो टूक जवाब सुनकर वापस लौट गया|
धीरे-धीरे वकील साहब का शरीर वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहा था| निहारिका और मुन्ना जी जान से उनकी सेवा करते| कभी किसी भी काम के लिए उन्हें दोबारा नहीं बोलना पड़ता| वकील साहब की पत्नी बेटे के लिए दुखी रहती थी पर बहू और पोते से उन्हें कोई शिकायत नहीं थी| समय बीता, मौत आनी थी, आई| वकील साहब का निधन हो गया| निहारिका निःशब्द रोए जा रही थी| उसे यही लग रहा था कि यदि उन्होंने सहारा नहीं दिया होता तो पिता के घर में वह जी जाती किन्तु एक बेचारी की तरह जिन्दगी हो जाती| माता-पिता बेटी को घर में रखकर समाज की आलोचना का शिकार बनते सो अलग| 
  अब दाह-संस्कार की बारी आई|वकील साहब का बेटा भी पिता के अन्तिम दर्शन के लिए मौजूद था| मुखाग्नि वही देना चाहता था| वकील साहब ने कह रखा था कि मरने के बाद उनकी वसीयत तुरत पढ़ी जाए और उस अनुसार ही काम किया जाए| वसीयत में यह लिखा था कि दाह-संस्कार का काम पोते के हाथो ही संपन्न हो| पत्नी के निधन के उपरांत सारी जायदाद निहारिका के नांम लिखी गई थी| जिसने भी सुना वकील साहब के न्याय पर दंग रह गया| अपने बेटे को छोड़ दूसरे की बेटी को सहारा देकर वकील साहब ने समाज के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया था|

ऋता शेखर मधु

मंगलवार, 21 अगस्त 2012

छलिया चितचोर साँवला सलोना नंद का छोरा



प्रेम का हर सार छुपा है राधा-कान्हा की भक्ति में
परम आनंद प्रकट होता मीरा की अनुरक्ति में

छलिया चितचोर साँवला सलोना नंद का छोरा
मनमोहना था, डूबी गोपियाँ प्रेम-आसक्ति में

मोहन एक गोपियाँ अनेक रास रचाए मधुवन
अधर से मुरली यूँ जुड़े ज्यूँ समास जुड़ें विभक्ति में

निष्ठुर बना वह नंदलाला छोड़ गया वृंदावन
गऊ गाछ गोपियाँ गलियाँ गुमसुम हुए विरक्ति में

कालिया जयद्रथ शिशुपाल कंस कृष्ण को ना भाते
धैर्य से हम रखें यकीन नारायण की शक्ति में

ऋता शेखर 'मधु'

इस ग़ज़ल को जन्माष्टमी के लिए तैयार किया था किन्तु ऐन मौके पर एक सप्ताह के लिए नेट महाराज धोखा दे गए...
अपनी रचना तो नहीं ही डाल पाई , सबके ब्लॉग की रचनाएँ भी मिस कियाः(

सोमवार, 20 अगस्त 2012

ईद मुबारक



ईद और उम्मीद जगी रहे
कुछ तो ऐसा आह्वान करें
सुनो सुनो ऐ दुनियावालो
हम ईश्वर- अल्लाह के बन्दे हैं
सब मिलजुल कर रहेंगे जब
देश हमारा स्वर्ग बनेगा
ना कोई हिन्दु- मुसलमाँ होगा
सब इंसान बन जाएँगे|


उसका दुख हमारा होगा
खुशी भी संग मनाएँगे
होली मनाएं दीप जलाएं
ईद में सब गले मिलें
अपना भारत ऐसा हो
जहाँ प्यार- सद्भाव पले
खूबसूरत इक जहाँ बनेगा
कदम से कदम मिलाएंगे|

बाजार एक है एक सामान
सेवई एक और एक मिष्टान्न
रंग बिरंगे कपड़े भी एक
पर्व भले ही अलग अलग हों
खुशियों के हैं रंग समान
उर्दू बोलें या बोलें हिन्दी
हँसते तो हैं एक समान
सब मिल ठहाके लगाएंगे
सब इंसान बन जाएंगे|

ऋता शेखर मधु

शनिवार, 18 अगस्त 2012

अंगूर खट्टे हैं




जाने अनजाने
कई सपने
हमारे इर्द-गिर्द
मँडराने लगते हैं
कुछ सपने
जो हमारी पहुँच में होते हैं
उन्हें पूरा करने के लिए
हम जी जान लगा देते हैं
पर जरूरी तो नहीं
सब कुछ
प्राप्य की ही श्रेणी में हो
अथक प्रयासों के बावजूद
कुछ सपने पूरे होने के
आसार नजर नहीं आते|

लोमड़ी जानती थी
वह अंगूर नहीं पा सकती
तो उसने कह दिया
अंगूर खट्टे हैं
नर्तकी जानती थी
वह अच्छा नाच नहीं सकती
उसने आँगन को ही टेढ़ा कहकर
राहत की साँस ली
तो दो जुमले बने
अंगूर खट्टे हैं
नाच न जाने आँगन टेढ़ा
इनका प्रयोग हम
किसी का मखौल उड़ाने के लिए ही करते हैं

अब इस तरह से सोचते हैं
परिश्रम किया
फल मिला तो ठीक है
सफल न हुए
तो अंगूर को खट्टा, या
आँगन को टेढ़ा कहने में
हर्ज़ ही क्या है
यह कहकर हम
इस अपराधबोध से
मुक्ति तो पा सकते हैं
कि हम इस काबिल ही नहीं कि
अपने सपने पूरे कर सकें
दार्शनिकता का यह निराला अंदाज
हमें कभी निराश नहीं होने देगा|

ऋता शेखर मधु 

 

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

शब्दों के अरण्य में कुलाँचे भरती कविताएँ...




अरण्य हमारी वसुन्धरा की प्राकृतिक संपदा हैं जो नमी समेटती है और हमारी धरती को हरा-भरा रखती है| इस अरण्य में बहुत प्रकार के पेड़-पौधे ,लुभावने जीव-जंतु होते हैं तो जाहिर है यहाँ विचरण करना बहुत सुखद अहसास देता है| ऐसा ही एक अरण्य काव्य-जगत में बनाया है आ० रश्मिप्रभा दी ने और उसे बड़े ही प्यारे और लुभावने शब्दों से सजाया है...शब्दों के अरण्य में सभी कवि और कवयित्रियों को पढ़ना बहुत सुखद अनुभूति कराता है| मेरी छोटी सी कोशिश है कि मैं रश्मिप्रभा जी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘’शब्दों के अरण्य में’’ का परिचय दे सकूँ| मुझे खुशी है कि रश्मि दी ने मेरी कविता को भी शामिल किया है|

पुस्तक का नाम- शब्दों के अरण्य में
सम्पादन- रश्मिप्रभा
आवरण चित्र- अपराजिता कल्याणी
कला-निर्देशन- विजेन्द्र एस विज
मूल्य- 200/-
प्रकाशक- हिन्द-युग्म
१, जिया सराय, हौज खास
नई दिल्ली-110016


इस पुस्तक को शुभकामना संदेश के जरिए अपने अनमोल शब्द दिए हैं संगीता स्वरूप जी एवं साधना वैद्य जी ने|
पुस्तक हमारे हाथों में है इसके लिए शैलेश भारतवासी जी का आभार !!

अब परिचय कवि और कविताओं का---
१)अंजू अनन्या जी
शिवरात्रि के रोज
पत्तों और फलों से
विरक्त कर दिया गया
बेल का पेड़
एक स्पर्श के बाद
पत्तों फलों की
जगह थी
कचरे का डिब्बा
२)अनुलता राज नायर जी
अपमानऔर वेदना के
बियाबान में
भटकता, ठोकरें खाता
सच्चे का स्वाभिमान
जल जल कर
निरंतर प्रकाश उत्सर्जित करता है
३) अपर्णा मनोज जी
महावर में डूबकर
मैं मीरा बनी थी
और तेरे युग को खींच लाई थी
पुनश्च
विष का रंग
क्या तेरे वर्ण-सा है कान्हा
४)अमरेन्द्रअमर जी
मेरी किताब के वो रुपहले पन्ने
जो अनछुए ही रह गए
वो नहीं बदले
न बदली उनकी तासीर
बदला तो केवल मेरा नजरिया
‘’मेरी किताब के वो रुपहले पन्ने’’
५) अमित आनन्द पाण्डेय जी
लव-कुश का आक्रोश-
तुम भले ही प्रकाशपु़ज हो
लेकिन
राम! याद रखो
हम
तुम्हारी ही
तली के अंधेरे हैं
तुम्हारे बेहद अपने|
६)अमित उपमन्यु जी
जीते जी इंसान कई जगह होने की कोशिश करता है
मौत के बाद वह सबके सपनों में आता है
इंसान मरकर ईश्वर हो जाता है
७) अवंती सिंह जी
अब मैं कविताओं के प्रकार बदलने बदलने लगी हूँ
आकार बदलने लगी हूँ, व्यवहार बदलने लगी हूँ
८) अश्वनी कुमार जी
प्रेमिका सी कविता
कई दिन के बाद मिलो तो
बात नहीं करती आसानी से
अनमनी सी रहती है
रूठी
९) ऋता शेखर मधु
श्मशानी निस्तब्धता छाई है
उभरी दर्द भरी चहचहाहट
नन्हे-नन्हे परिंदों की
शायद उजड़ गया था उनका बसेरा
मनुष्य ने पेड़ जो काट दिए थे
१०) कविता रावत जी
बेवजह गिरगिट भी नहीं रंग बदलता
यूँ ही अचानक कहीं कुछ नहीं घटता
११) कैलाश शर्मा जी
दूर दीपक देख कर
आस फिर से जग गई
आस की धूमिल किरण
तिमिर ढाँकते रहे
१२) गार्गी चौरसिया जी
वो रिश्ता
उस जिस्मानी रिश्ते से
कहीं अधिक सगा होता है
जो अनुभूति से बनता है
१३) गार्गी मिश्रा जी
कल रात
खिड़की के बाहर देखा था
स्ट्रीट लाइट के नीचे
एक जुगनू कुछ सोच रहा था
१४) गीता पंडित जी
ओ मृतप्राय पल!
मेरी बूढ़ी होती हुई
इन अस्थियों को
अगर दे सकते हो तो दो
वो आस्था/ वो विश्वास/ वो जिह्वाएँ
जिनसे उड़ सकूँ
पहले जैसे
१५) डॉ जय प्रकाश तिवारी जी
बादल तो फिर भी प्रायश्चित करते हैं
लेकिन इंसान भूल गया है करना
आत्मग्लानि और पश्चाताप
आखिर क्यों? कब ? और कैसे?
१६) डॉ कौशलेन्द्र मिश्र जी
नीम की ऊँची फुनगी पर
टाँग दिया है मैंने
अपना मोबाइल फोन
मैं खुश हूँ
आजाद जो हो गया हूँ
पहले उस नाचाज-सी चीज ने
जीना हराम कर रखा था मेरा
१७) डॉ जेन्नी शबनम जी
गैरों के दर्द को महसूस करना और बात है
दर्द को खुद जीना और बात
एक बार तुम भी जी लो
मेरी जिन्दगी
जी चाहता है
तुम्हें श्राप दे ही दूँ
‘’जा तुझे इश्क हो
१८) डॉ निधि टंडन जी
प्यार में, कभी कोई खाली नहीं होता
प्यार हमेशा व्यस्त रहने का नाम है
१९) डॉ प्रीत अरोड़ा जी
मन कहता उसका
बगावत करने को
तभी
गूँजने लगती कानों में माँ की शिक्षा
और संस्कार देने लगते दुहाई
आखिर
जीत जाते संस्कार और हार जाती वो
२०) डॉ मोनिका शर्मा जी
बड़ा विशाल हृदय है हमारा
कभी रीति-रिवाज,कभी दान दहेज
अनगिनत कारण हैं हमारे पास
बेटियों को कूड़ा समझ लेने के
और इतनी ही दलीलें भी
तभी तो सभी कुछ स्वीकार लेता है
हमारा निर्दयी हृदय
२१) डॉ रमा द्विवेदी जी
जीवन जब भी जटिल कठिन लगे
शून्य में खो जाओ
शून्य से फिर आरंभ करो
जीवन को नई ऊर्जा
नई स्फूर्ति का अहसास
शून्य को अंकों में बदल देता है
२२) डॉ विजय कुमार श्रोत्रिय जी
जब जब मैंने उड़ने का प्रयास किया
धरती ने मुझे खींचा है
अपनी ओर
झाड़ियों से युद्ध करने में
रिसा लहू
क्योंकि एक दिशा न थी
काश! तुम समझ सकते
मेरे पंखों से रिसते लहू की पीड़ा
२३) दिगम्बर नासवा जी
गुजरते लम्हों की अपनी गति होती है
दिन-महीने-साल भी
अपनी गति से गुजरते जाते हैं
पर उम्र का हर नया पड़ाव
पीछे की ओर धकेलता है
ये सच है कि
एक सा तो हमेशा कुछ भी नहीं रहता
पर कुछ न कुछ होने का ये एहसास
शायद कभी खत्म भी नहीं होता
२४) दीपिका रानी जी
पति से बिछुड़ी औरत
उसे दिखाया नहीं गया
कोई और रास्ता
उसके घर में
बाहर की ओर खुलने वाला दरवाजा
बंद हो गया है
ढक गए हैं रोशनदान-खिड़कियाँ
परंपरा के मोटे परदों से
२५) निखिल आनंद गिरि
जिस कागज की कतरन मेरे पास पड़ी है
उसपर जो इक नज़्म है आधी
उसमें बस इतना ही लिखा है
काश! कागज के इस पुल पर
हम-तुम मिलते रोज शाम को...
बिना हिचक के,
बिना किसी बंदिश के साथी
२६) नित्यानंद गायेन जी
दूर नदी के उस पार
जो आखिरी वृक्ष खड़ा है
गिन रहा है
अपने जीवन के बचे दिन
२७) पल्लवी त्रिवेदी जी
बचपन भले ही चला जाए
बचपना कहाँ जाता है
और शायद यही तो है
जो इंसान की मासूमियत
खोने से बचाता है|
२८)प्रत्यक्षा जी
मेरे अंदर भी
उग आया है
एक पूरा जंगल
ऐसे वृक्षों का
सोख रहा है जो
धूप का हर एक कतरा
२९)बाबुषा कोहली जी
कठोरता की प्रतियोगिता में
वह मोची निरीह दिखता है
जिसने किसी पशु का चमड़ा काटकर
मेरे जूते सिले हैं
३०) मार्कण्डेय राय जी
गँवई गाँव के लोग कितने भले लगते थे
सीधा सपाट जीवन, कहीं मिलावट नहीं
गाय की दही न सही, मट्ठे से ही काम चलाना
मटर की छीमी को गोहरे की आग में पकान्
सब कुछ याद है
३१) मीनाक्षी धन्वन्तरी जी
सामने से उसे आते देख मैं समझ गई
इन आँखों का पढ़ना मुश्किल है
पढ़ लिया तो फिर समझना मुश्किल है
समझ लिया तो फिर भूलना मुश्किल है|
३२) मीनाक्षी स्वामी जी
पीछे छूटती जाती हैं सदियाँ
और रेल के भीतर बैठी स्त्री के सपने
वैसे ही बक्से में बंद रहते हैं
जैसे उसने
सहेज कर
रखे थे कभी |
३३) मुकेश कुमार सिन्हा जी
हाथ की ये लकीरें
छपी होती हैं
मकड़े के जालों जैसी
हथेली पर
जिसमें रेखाएँ
होती हैं अहं
जिनके मायने
होते हैं, हर बार
अलग-अलग
इन जालों की तरह
उकेरी हुई लकीरों को
१पने वश में
करने हेतु
हम करते हैं धारण
लाल, हरे, पीले
चमकदार
मँहगे- सस्ते पत्थर
३४) रश्मिप्रभा जी
मैंने देखा है रब को करवटें बदलते
मेरी हर करवट पर वह साथ रहा है
शारीरिक पीड़ा हो या मानसिक द्वंद
रब ने सब जीया है
फूँक-फूक कर रखे कदमों के नीचे
वह रखता रहा है अपनी हथेलियाँ
काँटे वही चुभे हैं
जो उसकी हथेलियों को चीर गए
३५) रश्मि रविजा जी
खिड़की के बाहर उदास शाम
फैलकर पसर गई है
मुस्कुराकर नाटक करने की जरूरत नहीं आज
जी भर कर जी लूँ, अपनी उदासी को
कब मिलता है जिन्दगी में ऐसा मौका
अपने मन को जिया जा सके
मनमुताबिक !
३६) राजीव चतुर्वेदी जी
कविता शब्दों में ढला अक्स है आहट का
कविता-चिंगारी सी
अंगारों का आगाज किया करती है
कविता सरिता में दीप बहाते गीतों- सी
कविता कोलाहल में शांत पड़े संगीतों- सी
कविता हाँफते शब्दों की कुछ साँसें हैं 
३७) राजेन्द्र तेला निरंतरजी
रात
नींद को बुलाता रहा
करवटें बदलता रहा
पर नींद मानो
रूठ कर बैठ गई
मैंने उससे
नाराजगी का कारण पूछा
तो कहने लगी
तुम मुझे
ढंग से बुलाते कहाँ हो
मुझे बुलाना हो तो
विचारों का मंथन त्याग कर
शांत मन और मस्तिष्क से
बुलाओ
३८) लावण्या दीपक शाह जी
स्वर झंकार कर मेरे मन
हों निनादित दिशाएँ
गा उठे पाषाण भी
कलकलित स्वर से बह चले
झरने की धार भी
३९) लीना मल्होत्रा राव जी
हर बार
तुम
इतने निष्ठुर क्यों हो जाते हो राम
तुम्हारा यह स्वार्थ
तुम्हारे पुरुष होने का परिणाम है
या
मेरे स्त्री होने का दंड?
४०) वंदना गुप्ता जी
ढूँढ रहे हो तुम मुझे शब्दकोशों में
निकाल रहे हो मेरे विभिन्न अर्थ
कर रहे हो मुझे मुझसे विभक्त
बना रहे हो मेरे नए उपनिषद
कर रहे हो मेरी नयी-नयी व्याख्याएँ
मगर फिर भी नहीं पकड़ पाते हो पूरा सच
४१) वंदना शुक्ला जी
और वक्त अचानक पलट कर देखने लगता
धरती का वो आखिरी पेड़
जिसके झुरमुट में अटकी है कोई
खुशी से लथपथ फटी चिथड़ी स्मृति
किसी सूखे पत्ते की ओट में
हवा के डर से
थकी सहमी और उदास सी
४२) वाणी शर्मा जी
मिचमिचाए अधमुंदी पलकों में
सपनीले मोती जगमगाए
मेरी सूनी गोद भर आई
जब यह नन्ही कली मुस्काई
मैं अकिंचन, हुई वसुंधरा
अब कोई सपना अपना नहीं
थमा उसे सपनों की पोटली
निश्चिंत हुई
मैं पूर्ण हुई
सम्पूर्ण हुई|
४३) विजय कुमार सप्पत्ति जी
माँ को मुझे कभी तलाशना नहीं पड़ा
वो हमेशा ही मेरे पास थी और है अब भी
आहिस्ता-आहिस्ता इस तलाश की सच्ची आँ-मिचोली
किसी और झूठी तलाश में भटक गई
मैं माँ की गोद से दूर होते गया
४४) विभा रानी श्रीवास्तव जी
मुद्दा ये नहीं
कि मैं अपने जख्मों को कुरेद रही हूँ
जखाम हैं तो कभी बहेंगे ही
कभी हल्की चोट पर उभर ही आएँगे
प्रश्न ये है कि जख्म बने क्यूँ
४५) शिखा वार्षणेय जी
रात के साए में कुछ पल
मन के किसी कोने में झिलमिलाते हैं
सुबह होते ही वे पल
कहीं खो जाते हैं
४६) शेफाली गुप्ता जी
आज यूँ ही एक खयाल
गुजरा मेरे रास्ते से
शायद क्योंकि
तुम मेरे साथ नहीं आज
४७) संगीता स्वरूप जी
जिन्दगी की राह में
शूल भी हैं, फूल भी
किस-किस का त्याग करूँ
और किसे वरण करूँ?
४८) संतोष कुमार सिद्धार्थ जी
बिछुड़ गए वो
जो अभी मिले थे
संग चले थे
चार कदम जीवन में
पर क्यों
ह्सकर न शरीक हुए
मिलने पर आत्मा परमात्मा के
४९) संध्या शर्मा जी
मेरे बचपन की साथिन
ये नन्ही-सी चिड़िया
मुझसे बातें करती
मेरे संग गाती
इनका साथ मुझे खूब भाता
पिछले जन्म का कुछ तो था नाता
५०) सतीश सक्सेना जी
हम जी न सकेंगे दुनिया में
माँ जन्मे कोख तुम्हारी से
जो दूध पिलाया बचपन में
यह शक्ति उसी से पायी है
जबसे तेरा आँचल छूटा, हम हँसना अम्मा भूल गए
हम अब भी आँसू भरे, तुझे टकटकी लगाए बैठे हैं|
५१) समीर लाल जी
उम्र के इस पड़ाव पर आ
निकलता हूँ जिस शाम
खिड़की के उस किनारे से
आसमान में आता
चाँद...
पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटने के वक्त
उसके आने का सबब
५२) सरस दरबारी जी
शाम खिसककर जब रात के पास आती है
एक अकेलेपन का एहसास लिए आती है
फिर वही छत, वही दीवारें, वही घड़ी पे नजर
बस इस तरह से उम्र बीतती जाती है
५३) सलिल वर्मा जी
दिसंबर की ठिठुरती ठंढ में
दिल्ली के जनपथ पर
मुझे याद आ गए कविवर निराला
जब दिखा भिक्षुक मुझे इक
खुद में गठरी की तरह सिमटा हुआ...
५४) साधना वैद जी
जीजी, राम की
भौतिक और भावनात्मक
आवश्यकताओं के लिएतो
उनकी संगिनी सीता तो उनके साथ थीं
लेकिन मेरे लक्ष्मण और उर्मिला ने तो
चौदह वर्ष का यह वनवास
नितांत अकेले शरशैय्या
की चुभन के साथ भोगा है
५५) सीमा सिंघल जी
बचपन से विनम्रता का पाठ पढ़कर
बड़ों का सम्मान हृदय में पोषित कर
वह खुद के लिए
हेय दृष्टि कैसे सहन करती
और क्रूर हो जाती अपनी आत्मा के प्रति
बस कर लिया बँटवारा
अब उसके पास जवाब तो है
सिर्फ अपने लिए
क्योंकि जिन्दगी का कोई सवाल नहीं था उससे|
५६) सुनीता शानू जी
कभी-कभी आत्मा के गर्भ में
रह जाते हैं कुछ अंश
दुखदायी अतीत के
जो उम्र के साथ-साथ
फलते-फूलते लिपटे रहते हैं
अमर बेल की मानिंद
५७) सुशीला शिवराण जी
काली विभत्स रात गुजर गई
दे एक नई भोर
और छोड़ गई सवाल
जो हैं आज तक अनुत्तरित
क्यों नहीं पुण्य कमाते पति
कर पत्नी के शव पर निज दाह
क्या है कोई जवाब
बोल मेरे पुरुष-प्रधान समाज?
५८) सोनिया बहुखंडी गौड़ जी
मेरे जीवन की यादें
प्रायः अर्धरात्रि में उठती हैं
तो पीड़ा प्रभंजन की भाँति
नैनों में प्रवेश कर जाती हैं
जब समस्त जग निद्रा में लीन होता है
मैं यादों के आलिंगन में बंदी बनी रहती हूँ
५९) स्वाति भालोटिया जी
पाँच हजार मील की दूरी पर
जब वो सोच कर मुझको
गाता है इक गीत गर्म-सा
सर्द रूह का जवाँ आँचल
लहकता है जुनून बन कर
६०) हरकीरत हीर जी
आज मैं
मुहब्बत की अदालत में
खड़ी होकर तुम्हे
दर्द के सहारे
उस रिश्ते से मुक्त करती हूँ
जो बरसों तक
हम दोनों के बीच
मजबूरी की चुन्नी ओढ़े
खामोश सिसकता रहा..

प्रस्तुति...ऋता शेखर 'मधु'