बुधवार, 30 अप्रैल 2014

आत्मनिर्भरता...( लघुकथा)

आत्मनिर्भरता...

आज कई दिनों के बाद दोनो सहेलियाँ रमा और माधवी मिली थीं| इतनी सारी गप्पें कि समय कैसे पंख लगाकर भाग रहा था पता ही नहीं चला| विवाह के तीस वषों के बाद मिलीं थीं दोनो| जाहिर हैं गप्पों का पुलिंदा था उनके पास| पति, सास, ससुर, बच्चे, मायका, ससुराल, ये चंद घंटों में कैसे सिमटते| पतियों के बारे में भी ढेर सारी बातें हुईं| 
माधवी ने अपने पति के को आदर्श, प्रगतिशील एवं नारी समर्थक बताय्| रमा भी अपने पति एवं ससुराल से खुश थी|
रमा गृहिणी थी|
माधवी नौकरी करती थी और वेतन भी अच्छा खासा था| ए टी एम कार्ड का इस्तेमाल भी करती थीं| बातें करते करते दोनों सहेलियों ने शॉपिंग का प्रोग्राम बनाया| पास में तो पैसे होते नहीं सो दोनो नजदीक के ही एटीएम पर चली गईं| रमा ने पैसे निकाले| फिर माधवी ने मशीन में कार्ड डाला| पिन नम्बर की माँग की गई तो माधवी ने नम्बर दबाया| मगर यह क्या, मशीन ने नम्बर को गलत बता दिया| माधवी ने दूसरी बार कोशिश की किन्तु परिणाम वही आया| माधवी के चेहरे पर परेशानी दिखी| रमा ने उससे पूछा कि उसे सही पिन याद है या नहीं|
माधवी ने कहा- वह हमेशा पैसे निकालती है और यह सही नम्बर है|
रमा बोली- एक बार और कोशिश कर लो मगर तीन बार गलत पिन देने पर कार्ड ब्लॉक हो जाएगा|
माधवी ने कहा - नम्बर तो यही है | मैं फिर से कोशिश कर लेती हूँ|
उसने फिर वही नम्बर दबाया और मशीन ने लिख दिया, "अपने ब्रांच मैनेजर से सम्पर्क करें"|
माधवी चुपचाप बाहर आ गई| रमा के सामने वह झेंप महसूस कर रही थी|
रमा भी ताज्जुब में थी| उसने पूछा- बैंक का अकाउंट तुम्हारे नाम है, तुम्हारा वेतन वहीं आता है और तुम निकालती भी हो पैसे, फिर ऐसा कैसे? कभी कार्ड से किसी दुकान में पैसे दिए हैं या नहीं|
माधवी ने कहा कि कई शॉपिंग वह कार्ड से कर चुकी है|
रमा कुछ देर सोचती रही| फिर उसने पूछा- जब भी तुमने एटीएम से पैसे निकाले तो पिन किसने दबाया|
माधवी ने कहा-मैं मशीन में सिर्फ कार्ड डालती थी, पिन मेरे पति ही देते थे|
ओह, तो तुम्हे नम्बर कैसे पता चला|
बैंक से जो पिन मिला था वह याद था|
"ओह मेरी भोली माधवी, पहली बार में पिन बदलने का ऑप्शन होता है, शायद तुम्हारे पति ने वह नम्बर बदल दिया हो और तुम्हे नहीं बताया|"
अब माधवी सोचने लगी कि सारे खर्च उसके कार्ड से होते रहे किन्तु आज जब खुद उसने पैसे निकालने चाहे तो नाकाम रही| गल्ती उसकी ही थी, कभी अपने हाथ से भी उसे पैसे निकालने चाहिए थे| माधवी ने सोचा- कितनी बड़ी पढ़ी लिखी बेवकूफ़ हूँ मैं|
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• यह सिर्फ एक लघुकथा नहीं है|
• महिलाओं की आत्मनिर्भरता पर बहुत सारे सवाल खड़े कर रही है|
• सिर्फ पैसे कमा लेने भर से ही आत्मनिर्भरता नहीं आ जाती| यदि घर में रहने वाली महिलाएँ नीचे लिखे काम स्वयं कर लेती हैं तो वे कामकाजी महिलाओं से ज्यादा आत्मनिर्भर कही जाएँगी|
• < कभी यह भी सोचा है कि पासबुक अपडेट खुद से कराया है या नहीं|
• < फोन से गैस में नम्बर लगाया है या नहीं|
• < कभी कैब बुक करना हो तो स्वयं फोन किया या नहीं|
• < मोबाइल को खुद टॉप अप कराया या नहीं|
• < अपने शहर में आपको बिना अपनी गाड़ी के कहीं जाना हो तो ऑटो का निर्धारित स्थान मालूम है या नहीं|
• < बिजली बिल जमा किया है या नहीं|
• महिलाओं को खुद तो जागरुक होना ही चाहिए मगर कभी कभी महिलाओं की इस अनभिज्ञता के पीछे उनके पतियों का भी हाथ होता है| वे अपनी पत्निओं को इन सब कामों के काबिल नहीं समझते और सारे काम स्वयं कर देते हैं| पत्नियों को भी सभी कामों की जानकारी होनी चाहिए ताकि समय पड़ने पर वे किसी अन्य लोगों का मुँह नहीं ताकें|
----ऋता

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

पानी दो बेटे...(लघुकथा)


पानी दो बेटे...(लघुकथा)

वह भारत देश था जो मृत आत्माओं को भी पानी पिलाता था|
पितृपक्ष में प्रेतात्माएँ अपनी संतति के घरों के चक्कर लगा रही थी|
भीषण गर्मी से परेशान...मगर पानी का नामोनिशान नहीं|
जब उनसे नहीं रहा गया तो मनुष्य का रूप धारण कर जा पहुँचे अपनी संतानों के घर|

'बेटे, हमारे हिन्दुस्तान में मृत पूर्वज अपनी संतान की खैरखबर लेने आते हैं ,और उनके पुत्र उन्हें शीतल जल पिलाते हैं...तुमने वह रिवाज छोड़ दिया क्या?'

''नहीं तो...याद है...पर उन्हे शुद्ध शीतल जल पिलाएँ कैसे...हमारे पूर्वजों ने धरती पर बहुत अत्याचार किया है...यह नहीं सोचा कि आने वाली पीढ़ी किस तरह जीवन जीएगी...ग्लोबल वार्मिंग से जूझ रहे हैं हम...पीने योग्य जल भी नहीं है तो उन्हें कैसे पिलाएँ|"

''हम्म्म...मगर बेटे जो जल तुम पीते हो वही पिला दो|''

''बाबा, उनकी करनी के कारण हम पानी खरीदकर पीते हैं...कुदरत ने हमें अकूत जल भंडार दिया था...मगर अब वह बेहद कीमती हो गया है|''

सभी प्रेतात्माओं को लगभग यही जवाब मिला|
वे वापस एक स्थान पर इकट्ठा हुए और सबने अपनी गल्ती स्वीकार की|
..................ऋता

रविवार, 20 अप्रैल 2014

मन वैरागी

दस तांका --- ऋता शेखर 'मधु'
१.
हृदय गंगोत्री
प्रेम की गंगा बही
धारा पावन 
समेट रही छल
जीत रही है बल|
२.
मन वैरागी
स्मृतियों का कानन
करे मगन
चुनो सुहाने पल
महकेगा आँचल|
३.
लेखनी हंस
मन मानसरोवर
शब्दों के मोती
चुगता निरंतर
खोल रहा अंतस|
४.
सूरज हँसा
धरा गई निखर
जागा जीवन
खुशी गई बिखर
दिन लागे प्रखर|
५.
धरा की नमी
नभ दृग में बसी
छेड़ो न उसे
वो बरस जो जाए
भीगे दिल सभी का|
६.
जागे अम्बर
चाँद चाँदनी संग
पल शीतल
सूरज से छुपाये
राग मधुर गाए|
७.
तेज आँधी थी
बुझा पाई न दिया
ऐसा लगा है
दुआ सच्चे दिल की
रब ने कुबूल की|
८.
चमकी लाली
प्राची ने माँग भरी
ले अँगड़ाई 
अरुण वर उठा
कौंधा नव जीवन|
९.
क्या करे कोई
एक ओर हो खाई
दूजी में कुआँ
बढ़ाना पग-नाप
पार हो जाना भाई|
१०.
जीवन रेल
भागती सरपट
कई पड़ाव
साथ हैं मुसाफिर
अलग हैं मंजिलें|

...........ऋता शेखर 'मधु'

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

मौन.....

मौन कहीं निःशब्द है और कहीं है अति मुखर
बना कहीं अवहेलना या कहीं बने बहुत प्रखर
मौन अधर के नम दृगों की बनती बड़ी कहानी
अनकही बातों में मौन भर देता अपनी रवानी
नदिया मौन सागर मौन पर्वत मौन अम्बर मौन
हर मौन का जीवन दर्शन, बिन कवि के समझे कौन?



तुझ में रम कर सुध बुध खोई  मेरे नटवर कान्हा|
मइया कह मुझको दुलरावे मेरा प्रियवर कान्हा|
बाल सखा गोपी की बातें मुझको नहिं हैं भातीं,
मैं ना मानूँ छलिया है वह मेरा  ईश्वर कान्हा||
..........................ऋता

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

वोट भी देने चलो


वोट भी देने चलो...

मन्दिर जाते मस्जिद जाते
गिरजा और गुरुद्वारे जाते
सर्वधर्म का उत्सव है बन्धु
वोट भी देने चलो
देश अपना देश के हम
निज मत को आंको न कम
आलस मत करना रे बन्धु
वोट भी देने चलो
फलां नेता पसंद नहीं फलां है भ्रष्चाटारी
फलां लगे निकम्मा या फलां हो अहंकारी
चर्चा से कुछ ना होगा बंधु
वोट भी देने चलो
जो बोएँगे वही काटेंगे
अपनी मंशा जग को बाटेंगे
विवादों में न पड़ना बन्धु
वोट भी देने चलो
एक रुप्पैया से बनता है करोड़
एक रोटी ना मिले उठता है मरोड़
एक क्लिक अनमोल हमारा
वोट भी देने चलो
..............ऋता शेखर 'मधु'

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

रंगा सियार











रंगा सियार...

हरा भरा इक जंगल था
वहाँ न कोई दंगल था
सभी प्यार से रहते थे
अच्छी बातें कहते थे

शेर हिरन भालू या  बंदर
निर्मल दिल था सबके अन्दर
एक घाट पर जाते थे वे
मीठे बोल सुनाते थे वे

कोयल बुलबुल चहका करतीं
कानन में जूही महका करती
वह मंगल वन सबको भाता
दुष्ट शिकारी वहाँ न आता

एक रोज उस नंदन वन में
एक सियार कहीं से आया
कानाफूसी फूट की बातें
जहाँ तहाँ कहकह कर छाया

लोमड़ी दीदी थी बड़ी सयानी
समझ रही थी सभी कहानी
सियार को रस्ते पर है लाना
बात ये उसने मन में ठानी

तभी मूर्ख दिवस था आया
लोमड़ी को भी आइडिया आया
झटपट उसने प्लान बनाया
सबको ताल के निकट बुलाया

हँस हँस कर बोली वह सबसे
कहनी है इक बात को कबसे
इस पोखर में एक घड़ा है
उसके भीतर माल भरा है

कल जो मूरख बन जाएगा
पूरा घड़ा वही पाएगा
सुबह सुबह सब आएँगे
अपने खेल दिखाएँगे


चले गए सब फिर अपने घर
लोमड़ी दीदी गई कुछ रुककर
ताल में उसने रंग मिलाया
फिर मुसकाकर पूँछ हिलाया

आधी रात को पहुँचा सियार
हिलोरे बेवकूफ़ तलैया बार बार
कुछ भी उसके न हाथ लगा
चतुर लोमड़ी ने था खूब ठगा

दूसरे दिन जब हुआ विहान
आने लगे सब पशु महान
सियार भी आया शरमाकर
सब पशु हँस पड़े ठठाकर

हक्का बक्का हो गया सियार
चकित हो देखे सभा निहार
'रंगा सियार' 'रंगा सियार'
छौने चिढ़ाने लगे बार बार

धूर्त ने सबसे मांगी माफी
सबक बना था इतना काफी

सीख लो बच्चो,
न करना नादानी
आज भी जो होते हैं कपटी
रंगा सियार ही कहलाते हैं|
...........ऋता

रविवार, 6 अप्रैल 2014

लघुकथा...

लघुकथा....

सुरेश बाबू दफ्तर की फ़ाइल लिए सवेरे फटाफट सीढ़िया उतरने 


लगे...देर जो हो रही थी...तभी माँ की पुकार सुनाई पड़ी...उल्टे पाँव 

वापस आ गए माँ के पास|


चलने फिरने से लाचार अशक्त वृद्धा ने आँखों में आँसू भरकर कहा- 

मुझे नाश्ता करवाकर जाया करो बेटा...और हर तरह से समृद्ध सुरेश 

बाबू स्तब्ध रह गए|
.
ऋता

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

कैसे जाऊँ पार


ढाई आखर प्रेम का, पढ़ती बारम्बार|

मक्कारी की बाड़ है, कैसे जाऊँ पार||१


भव सागर में तैरती, जा पहुँची मँझधार|

लहरों का विस्तार है, कैसे जाऊँ पार||२


बड़ी विकट है यह घड़ी, मेरे पालनहार|

कुछ तो राह सुझाइए, कैसे जाऊँ पार||३


लोभ मोह में कट गए, जीवन के दिन चार|

मोक्ष क्षितिज पर है खड़ा, कैसे जाऊँ पार||४


सूरत से सीरत भली, यही हृदय का सार|

बिन दया या धर्म किए, कैसे जाऊँ पार||५

............................ऋता