ढाई आखर प्रेम का, पढ़ती बारम्बार|
मक्कारी की बाड़ है, कैसे जाऊँ पार||१
भव सागर में तैरती, जा पहुँची मँझधार|
लहरों का विस्तार है, कैसे जाऊँ पार||२
बड़ी विकट है यह घड़ी, मेरे पालनहार|
कुछ तो राह सुझाइए, कैसे जाऊँ पार||३
लोभ मोह में कट गए, जीवन के दिन चार|
मोक्ष क्षितिज पर है खड़ा, कैसे जाऊँ पार||४
सूरत से सीरत भली, यही हृदय का सार|
बिन दया या धर्म किए, कैसे जाऊँ पार||५
............................ऋता
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शुक्रवार (04-04-2014) को "मिथकों में प्रकृति और पृथ्वी" (चर्चा अंक-1572) में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चैत्र नवरात्रों की शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।..ऋता
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंसाझा करने के लिए आभार।